आवाज़ रेशमा की. कलाम इब्न-ए-इंशा का.
देख हमारे माथे पर ये दश्त-ए-तलब की धूल मियां
हम से है तेरा दर्द का नाता, देख हमें मत भूल मियां
अहल-ए-वफ़ा से बात न करना होगा तेरा उसूल मियां
हम क्यों छोड़ें इन गलियों के फेरों का मामूल मियां
ये तो कहो कभी इश्क़ किया है, जग में हुए हो रुसवा भी
इस के सिवा हम कुछ भी न पूछें, बाक़ी बात फ़िज़ूल मियां
अब तो हमें मंज़ूर है ये भी, शहर से निकलें रुसवा हों
तुझ को देखा, बातें कर लीं, मेहनत हुई वसूल मियां
दश्त-ए-तलब: इच्छा का जंगल, मामूल: दिनचर्या, नाका: चुंगी, महसूल: चुंगी पर वसूला जाने वाला टैक्स.
3 comments:
जहनी उलझनों के बीच रूह को राहत!
gazab..
मस्त किया मालिक. मस्त किया..
यूं ही तो नहीं दश्त में पहुंचे, यूं ही तो नहीं जोग लिया
बस्ती बस्ती कांटे देखे, जंगल जंगल फूल मियाँ
नस्ब करें मेहराब-ए-तमन्ना, दीदा-ओ-दिल को फर्श करें
सुनते हैं वो कू-ए-वफ़ा में आज करेंगे नुजूल मियाँ
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