Thursday, December 11, 2008
न हरम में तुम्हारे यार पता न सुराग़ दैर में है मिलता
(पिछली कड़ी से जारी) ...
अपने उस बुजुर्ग के प्रति इसी राष्ट्रीय कर्त्तव्य की जिम्मेदारी निबाहने के उद्देश्य से हिन्दी-उर्दू के प्रसिद्ध साहित्यकार-शायर, लन्दन प्रवासी राजनीतिज्ञ हिन्दी-उर्दू-अँग्रेजी में ५० से अधिक पुस्तकों के लेखक डॉक्टर विद्यासागर आनंद ने एक अभियान छेड़ रखा है- बहादुरशाह ज़फ़र की पार्थिव देह के अवशेष उनकी रंगून (अब म्यानमार, पूर्व में बर्मा) स्थित मजार से उनके देश, उनकी मातृभूमि भारत और उनके जन्मस्थान दिल्ली लाकर सूफी संत कुतुबुद्दीन बख्तियार काकी की समाधि के निकट अपने पूर्वजों की कब्रों के पास ख़ुद अपने लिए चुने स्थान पर दफ़न करके मकबरा बनाना और इस तरह उनकी अन्तिम इच्छा के अनुसार उनके 'कू-ए-यार' में उन्हें 'दो गज ज़मीन' दिलवाना, जो उनका हक़ है.
अन्तिम मुग़ल सम्राट के तौर पर जाने जानेवाले बहादुरशाह ज़फ़र तैमूर-बाबर-हुमायूं-अकबर-जहाँगीर-शाहजहाँ के महान वंशज तो थे ही, धोखेबाजी और चालाकी से भारत पर कब्ज़ा जमा लेने वाले धूर्त्त अंग्रेजों के ख़िलाफ़ बगावत को नेतृत्व देनेवाले सर्वोच्च सेनानी भी थे. ज़फ़र एक उत्कृष्ट शायर थे. उर्दू साहित्य के इतिहास में मीर-ज़ौक-ग़ालिब-मोमिन के समान ही उनका महत्वपूर्ण स्थायी मुकाम है. वह सूफी धारा के एक ऐसे संत थे जो शराब-अफीम छूते तक नहीं थे. जातिवाद-सम्प्रदायवाद के कट्टर विरोधी उदार मानवतावादी दार्शनिक एवं हिन्दू-मुस्लिम एकता के प्रतीक थे ज़फर. ऐसे बहादुरशाह ज़फ़र अपनी इच्छा के विरुद्ध रंगून की एक समाधि में पड़े रहें, यह लाखों देशभक्तों की ही तरह डॉक्टर विद्यासागर आनंद को भी नागवार है, और उन्होंने १० मार्च २००७ को लन्दन में अप्रवासी भारतीय और भारतीय विद्वानों की एक सभा में अपने इस उद्देश्य के पूर्ति के लिए एक विश्व समिति का गठन किया था- 'प्रथम स्वतंत्रता संग्राम १८५७ की विश्व यादगारी समिति.'
सन २००७ भारत के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम का एक सौ पचासवां साल भी था. सो समिति ने भारत सरकार को; बहादुरशाह ज़फर के पैतृक मकान, यानी दिल्ली के ऐतिहासिक लाल किले के मौजूदा व्यवस्थापकों को और सम्बद्ध तमाम प्रशासनिक विभागों, मंत्रालयों को एक ज्ञापन भेज कर यह मांग की थी कि ज़फ़र के पवित्र दैहिक अवशेषों को रंगून से दिल्ली लाकर उचित जगह समाधिस्थ किया जाए.
साथ ही समिति ने देश-विदेश के तमाम सम्बंधित इतिहासकारों, लेखकों, पत्रकारों एवं राजनेताओं से भी आग्रह किया कि वे इस अभियान को अपना सहयोग देते हुए इस विषय पर लेख लिखें. उन्हीं महत्वपूर्ण लेखों का संपादित संकलन है यह पुस्तक- '१८५७ के प्रथम स्वतंत्रता सेनानी और बहादुरशाह ज़फ़र.'
पुस्तक में संकलित ३७ लेखों में बहादुरशाह ज़फर के विषय में तो है ही, स्वतंत्रता-संग्राम तथा उसके अन्यान्य नायकों, शहीदों, चरित्रों के विषय में भी बहुत-सी ऐसी जानकारियां दी गयी हैं जो आम भारतीयों के साथ-साथ पूरे विश्व को भी मालूम होना चाहिए. जानकारियों एवं प्रसंगों की प्रामाणिकता पुष्ट करने वाले तथ्यात्मक दस्तावेजी सबूत भी हैं. पृष्ठ ३११ से ४८८ तक का जो अध्याय है -'पुराने पन्नों से,' वह तो प्रामाणिक दस्तावेजों के आधार पर लिखे गए प्रसिद्ध इतिहासकारों और विद्वानों के अत्यन्त ही वैचारिक और सूचनात्मक लेखों का ही संकलन है, जिसमें स्वतन्त्र भारत के प्रथम शिक्षामंत्री, अरबी-फारसी-उर्दू-अँग्रेजी के प्रकांड विद्वान मौलाना अबुल कलाम आज़ाद, प्रसिद्द शायर मख़मूर सईदी जैसे लेखक-चिन्तक शामिल हैं.
...अगली कड़ी में जारी
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