Thursday, December 11, 2008
तुम भी मेरे गांव-गवार के हो: चीनी कविताओं की श्रृंखला - २
चीनी से हिन्दी में किए गए श्री त्रिनेत्र जोशी के अनुवादों की दूसरी कड़ी के रूप में प्रस्तुत हैं वांग वेई की कविताएं.
वांग वेई (७०१-७६१) चीन के वर्तमान शांसी प्रान्त के निवासी थे. वह एक प्रतिभासम्पन्न कवि तो थे ही, एक विशिष्ट चित्रकार और संगीतकार भी थे. इसलिए उन की कविता में प्रकृति, रेखाचित्रों वाली सूक्ष्म लाक्षणिक अभिव्यक्ति और सांगीतिक लय का अद्भुत योग है.
वे दृश्य की सूक्ष्म कढ़ाई कर उसमें प्रकृति की रंगत का समानुपातिक मिश्रण कर मानवीय कल्पना की उड़ान के असंख्य आसमानों को पार कर जाते हैं और एक सहृदय पाठक आश्चर्यचकित रह जाता है.
घाटी में चिड़ियें
सुस्ता रहा हूं मैं, कुमुदिनी की पंखुड़ियां झर रही हैं
वसंत की चुप रात और रिक्त पहाड़
झांकता है चन्द्रमा ताकता पहाड़ी चिड़ियों को
वासंती घाटी में नहीं रुकती उन की चिंचियाहट
यों ही
तुम भी मेरे गांव-गवार के हो
ज़रूर होंगे तुम्हारे पास कस्बे के हालचाल
भोर में रेशमी खिड़की के सामने
क्या ठंड के मारे फूट नहीं पा रहे हैं आलूचे के कल्ले?
मठ की ओर
एक तंग गहन छायादार रास्ता मठ-वृक्ष की ओर,
गहरा और अंधेरा, काई की इफ़रात
आंगन की सफ़ाई तक दरवाज़े पर इंतज़ार
अगर उतरे पहाड़ी से कोई भिक्षु
मंग छंग आओ
मंग छंग के मुहाने पर मेरा नया घर,
प्राचीन सरपत शोक से आच्छादित
बाद में कौन आएगा, नहीं मालूम
शायद पूर्वजों के लिए करेगा शोक
दक्षिणी पहाड़ी
एक हल्की नौका रवाना होती है दक्षिणी पहाड़ी से
अनंत को पार कर उत्तर पहुंचना है मुश्किल
उस तट पर, तलाशता हूं अपना घर,
इतनी दूर कि पहचानना असंभव
कुमुदिनी प्रांगण
शरद में पहाड़ियां समेट रही हैं बची खुची रोशनी
साथी का पीछा कर रही है चिड़िया
हरे रंग में आती है हल्की सी चमक
सूर्यास्त का कोहरा भटकता है दर-ब-दर.
हरिण प्रांगण
उजाड़ हैं पहाड़ियां एकदम निर्जन
फिर भी आती हैं लोगों की आवाज़ें
बियावान जंगल में गिरती है रोशनी
फिर चमकती है हरी काई पर.
(इन कविताओं को यहां पोस्ट करते हुए मैं अपनी तरफ़ से जोड़ना चाहूंगा कि वांग वेई की इन कविताओं को पढ़ते हुए मुझे कभी तो अपने महान बंगकवि जीबनानन्द दास याद आते रहे और कभी आस्ट्रिया के गियोर्ग ट्राकल. इन दोनों की कविताएं भी जल्दी ही यहां लगाऊंगा. फ़िलहाल जोशी जी के अनुवादों की सीरीज़ जारी रहेगी.)
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9 comments:
अच्छी बात....आनन्द आया लेकिन गाँव गिराव होता है गाँव गवार नहीं
बोधिसत्व जी, मुझे खुद इस शब्द पर थोड़ा खटका था. जोशी जी से पूछा तो उन्होंने कन्फ़र्म किया कि गवार शब्द उन्होंने जानबूझ कर इस्तेमाल किया है क्योंकि कुमाऊंनी हिन्दी में यही शब्द है. और गांव जुआर भी ऐसा ही एक एक्सप्रेशन है. आप ने ध्यान दिलाया, इस बात का धन्यवाद!
आनंद दायिनी कविता
Thanx again ashok bhai for focussing on china. more than their poetry i admire the chinese for the way they are dealing with religious fanatics . no doubt they have been devilish to innocent tibbetans but the way they r handling so called jehadis is something rest of the world should emulate.
कविता के साथ-साथ मुनीश भाई की टिप्पणी पर भी ध्यान दिया जाना चाहिए! मेरे लिए दोनो ही उतनी ही अहम हैं !
धन्यवाद त्रिनेत्र जी !
धन्यवाद अहोक जी !
धन्यवाद मुनीश जी !
उजाड़ हैं पहाड़ियां एकदम निर्जन
फिर भी आती हैं लोगों की आवाज़ें
बियावान जंगल में गिरती है रोशनी
फिर चमकती है हरी काई पर
कविता की रौशनी से चमक उठा है कबाड़खाना । बधाई ।
अद्भुत हैं कविताएं और प्रवाहमय है अनुवाद। लगा नहीं कि ये कविताएं हैं बल्कि कविता में चित्रकारी है, चाइनीज मास्टर्स स्ट्रोक्स।
हमने तो गाँव-जवार सुना है भाई. बाकी कविता और उसके अनुवाद के क्या कहने!
gaon-jawar yaa juar hindi mein istemal hota hai. kintu,eise yugmon ke sthaniya roop alag-alag ho sakte hain aur hain bhi. Jaise Bodhisatva ne gaon-girav kaha. Mera nivedan yah hai ki yah ek doosri linquistic bahas ki darkar rakhta hai. Phir bhi kavita padhi gaee aur pasand ki gai, yah asli baat hai. kyonki kavita mein kavita dhoondna hee rachanatmak eshana hai. Kabir kah gaye ne -- bhakha bahata neer.
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