Tuesday, December 9, 2008

आखिर कब मिलेगी 'दो गज ज़मीन?'



सन १८५७ के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम में आख़िरी मुग़ल सम्राट बहादुरशाह ज़फ़र ने जननायक की भूमिका निभाई थी. ज़फ़र एक महान शायर भी थे. इस बुजुर्ग बादशाह ने अपनी पार्थिव देह दिल्ली की गोद में दफ़न कराने की इच्छा जताई थी. लेकिन मौत आई भी तो रंगून की जेल में. उनका दर्द उन्हीं की इन पंक्तियों में झलकता है- 'कह दो इन हसरतों से कहीं और जा बसें, इतनी जगह कहाँ है दिल-ए-दागदार में. कितना है बदनसीब ज़फ़र दफ्न के लिए, दो गज ज़मीन भी न मिली कू-ए-यार में.' ज़फर की यह इच्छा पूरी करने का बीड़ा उठाया है लन्दन में रह रहे प्रवासी राजनीतिज्ञ एवं साहित्यकार डॉक्टर विद्यासागर आनंद ने. उन्होंने इसके लिए बाकायदा एक अभियान छेड़ रखा है. इसी कड़ी में प्रकाशित हुई है यह पुस्तक -'१८५७ के प्रथम स्वतंत्रता सेनानी और बहादुरशाह ज़फ़र'. प्रसिद्ध कवि-लेखक आलोक भट्टाचार्य ने इसकी समीक्षा विशेष तौर पर हमारे लिए की है- विजयशंकर चतुर्वेदी.

हिन्दुस्तान के बादशाह थे वह- शानदार मुग़ल परम्परा के सम्राट! जाने कितने-कितने लोगों को, कितने मंदिरों, मस्जिदों, गुरुद्वारों, कितनी संस्थाओं को कितनी ज़मीन दी उन्होंने! उन्हीं का तो घर है वह, उनका जन्मस्थान, उनके बचपन का आंगन, उनकी जवानी का महल, उनकी बादशाहत का शाही दरबार- वह लाल क़िला, जिसकी प्राचीर से आज भी हर साल १५ अगस्त और २६ जनवरी को भारत का तिरंगा फहराया जाता है- इतने विशाल हिन्दुस्तान के उस अन्तिम मुग़ल सम्राट को, जिसने सबको दिया, ख़ुद उसके माँगने के बावजूद हम उसे आज तक उसके 'कू-ए-यार' में दो गज ज़मीन भी न दे सके! उसकी अन्तिम इच्छा पूर्ण नहीं कर सके?

जबकि यह हमारा राष्ट्रीय फ़र्ज़ भी था. बहादुरशाह ज़फ़र सिर्फ़ भारत के अन्तिम मुग़ल सम्राट ही नहीं थे, वह प्रथम भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के महानायक भी थे. उन्हीं के नेतृत्त्व में लड़ा गया था १८५७ का वह पहला महासंग्राम, अँग्रेजी हुकूमत के ख़िलाफ़ आज़ादी की वह पहली जंग. आज़ादी के दीवाने विद्रोही सिपाहियों को नेतृत्व देने वाले ८२ वर्ष के उस बुजुर्ग बादशाह ने अकथनीय तकलीफें झेलीं. जब अँग्रेज जनरल हडसन ने बादशाह के तीनों शाहजादों मिर्ज़ा खिज़र सुलतान, मिर्ज़ा मुग़ल और अबू बकर के कटे हुए सर क़ैदी बादशाह के आगे थाल में सजा कर पेश किए, तब बादशाह के दिल पर क्या गुज़री होगी, सोच कर कलेजा मुंह को आता है! सोचिए ज़रा, हिन्दुस्तान के उस बादशाह को क़ैद करके दिल्ली से रंगून बैलगाड़ी में ले जाया गया और जेल की एक तंग कोठरी में घुट-घुट कर मरने को मजबूर कर दिया गया! क्या उसके प्रति हमारा कोई कर्त्तव्य नहीं?

....अगली कड़ी में जारी

1 comment:

एस. बी. सिंह said...

जफ़र का एक शेर याद आ गया ...

मैं वो मंजनू हूँ के ज़िन्दान निगहबानों को
जिसकी ज़ंजीर की झंकार ने सोने न दिया।

बहुत अच्छी पोस्ट शुक्रिया।