Saturday, December 27, 2008

न: दे नामे को इतना तूल 'ग़ालिब' मुख़्तसर लिख दे


मैं चमन में क्या क्या गोया दबिस्ताँ खुल गया,
बुलबुलें सुनकर मेरे नाले ग़ज़लख़्वाँ हो गईं.

आज मिर्ज़ा असदु्ल्लाह खाँ 'ग़ालिब' की जयंती (२७ दिसंबर १७९६ - १५ फरवरी १८६९) है. इस महान साहित्यकार के बारे में क्या लिखा जाय ! इतना लिखा जा चुका है उसकी खोज -खबर लेने में सारा जीवन निकल जाएगा और पता चलेगा कि यह तो समुद्र की एक बूँद भर थी. यह भी मालूम कि आने वाले वक्तों में उन पर इतना कुछ और लिखा जाएगा कि आज कल्पना करना भी दुश्वार लगता है. हो सकता कि मेरी यह बात कुछ सहॄदयों को अतिशयोक्ति लगे लेकिन साहब मुझे ऐसा लगता है तो मैं क्या करूँ ! आप चाहें तो इसे भावुकता भी कह सकते हैं - ऐसी भावुकता : जिसका कि आजकल भाव गिरा हुआ है फिर भी वह बाजार में है और उसके भी खरीदार अलबत्ता कम नहीं हैं , खैर...

'ग़ालिब' बुरा न: मान जो वाइज बुरा कहें
ऐसा भी कोई है के सब अच्छा कहें जिसे

आज क्या किया? वही रोज का किस्सा : 'होता है शबो -रोज तमाशा मेरे आगे' . दिन भर इस तमाशे में पार्ट अदा कर अपने घोंसले में पहुँचकर दोपहर में आया अंग्रेजी का अखबार देखा , टीवी पर थोड़ी देर समाचार और चाय के बाद ग़ालिब के साथ थोड़ी सैर.. ..'दीवाने ग़ालिब' (सं० साक़िब सिद्दीक़ी) , 'उर्दू साहित्य कोश' (कमल नसीम) और 'उर्दू भाषा और साहित्य' ( रघुपति सहाय 'फ़िराक़' गोरखपुरी) जैसी किताबों को उलट - पलटा , कुछ ग़ज़लें सुनीं... मन हुआ कि ग़ालिब पर कुछ लिखा जाय किन्तु ...लिखना हो नहीं पा रहा है -

'ग़ालिब' कर हुजूर में तू बार - बार अर्ज़,
जाहिर तेरा हाल सब उन पर कहे बगैर.

आइए सुनते हैं ग़ालिब की इस कालजयी ग़जल के कुछ शे'र -

आह को चाहिये इक उम्र असर होने तक.
कौन जीता है तेरी ज़ुल्फ़ के सर होने तक।

आशिक़ी सब्र-तलब और तमन्ना बेताब ,
दिल का क्या रंग करूँ ख़ूने जिगर होने तक ।

हम ने माना के तग़ाफ़ुल न करोगे लेकिन ,
ख़ाक हो जायेंगे हम तुम को ख़बर होने तक।

ग़मे-हस्ती का 'असद' किससे हो जुज़ मर्ग इलाज ,
शम्मा हर रंग में जलती है सहर होने तक ।

१- गुलजार की प्रस्तुति टीवी धारावाहिक 'मिर्ज़ा ग़ालिब' में नसीरुद्दीन शाह और जगजीत सिंह -




२- सोहराब मोदी की प्रस्तुति फ़िल्म 'मिर्ज़ा ग़ालिब' में सुरैया -

7 comments:

siddheshwar singh said...

क्षमा चाहूँगा होना चाहिए था-

'ग़ालिब' न कर हुजूर में तू बार - बार अर्ज़,
जाहिर तेरा हाल सब उन पर कहे बगैर.

कुछ तकनीकी दिक्कत है सो संपादित नहीं कर पा रहा हूँ.कॄपया सुधार कर लें और क्षमा तो कर ही देंगे-

उस अंजुमने नाज़ की क्या बात है ग़ालिब !
हम भी गए वाँ और तेरी तक़दीर को रो आए.

लावण्यम्` ~ अन्तर्मन्` said...

मियाँ गालिब
सारा लिखा, देख भाल कर,
आज भी,
अर्ध सत्य सी मुस्कुराहट ही देते होग़ेँ क्यूँकि जैसा अँदाज़े बयाँ उनका रहा वल्ल्लाह, फिर किसी का ना हुआ
- लावण्या

विजयशंकर चतुर्वेदी said...

abhhi aur chaahiye gaalib par

अमिताभ मीत said...

क्या बात है सरकार. सुबह सुबह ख़ुदा का नाम !!

"रखियो ग़ालिब मुझे इस तल्ख़नवाई में मु'आफ़
आज कुछ दर्द मेरे दिल में सिवा होता है ...."

आप का ये पोस्ट पढ़ / सुन कर मुझे भी मन हो रहा है 'चचा' की कोई ग़ज़ल सुनवाने का. वैसे ज़माना हो गया "कबाड़खाने" पर कुछ पोस्ट नहीं किया ... और कल से सोच रहा था "मीर" के बारे में ..... लेकिन इजाज़त हो तो "ग़ालिब" की ही कोई ग़ज़ल पोस्ट करूं शाम तक.

"फ़लक़ को देख के करता हूँ उस को याद असद
जफ़ा में उसकी है अंदाज़ कारफ़र्मा का"

सुशील छौक्कर said...

बहुत खूब। सच दिल खुश हो गया।
'ग़ालिब' बुरा न: मान जो वाइज बुरा कहें
ऐसा भी कोई है के सब अच्छा कहें जिसे

विजयशंकर चतुर्वेदी said...

शुरुआत में ही गलती से मिस्टिक टाइप हो गया है-

शेर यूँ है-

मैं चमन में क्या गया, गोया दबिस्ताँ खुल गया,
बुलबुलें सुनकर मेरे नाले ग़ज़लख़्वाँ हो गईं.

बाकी चचा ग़ालिब जिंदाबाद! इतवार बना दिया आपने!

siddheshwar singh said...

मीत भाई,
आपकी पोस्ट का इंतजार है. चले आवो भैया रंगीले मैं वारी रे !
****
भाई चतुर्वेदी जी,
'क्या'दो बार हो गया है जबकि दूसरी बार 'गया' होना चाहिए था. गलती पकड़ में भी गई थी परंतु एडिट न की जा सकी. आपने याद दिलाया तो अच्छा लगा.बाकी सब ठीक है.
***
खास दोनों भय्यन के वास्ते चचा का जे 'सेर'पेस कर रिया हूँ-
तुम जानो तुमको ग़ैर से जो रस्मो - राह हो,
मुझको भी पूछते रहो तो क्या गुनाह हो !