आज सुबह अभिनव कुमार ने फ़ोन पर वरिष्ठ आई पी एस अधिकारी श्री तजेन्द्र लूथरा की लिखी एक कविता पढ़कर सुनाई. अक्सर हाशिये पर डाल दिए जाने वाले दृष्टिकोण को सामने लाने वाली यह कविता बम्बई में हुए हालिया बम धमाकों की पृष्ठभूमि में बहुत ध्यान से पढ़े जाने की दरकार रखती है. अभिनव कुमार मेरे अच्छे मित्रों में हैं और उनका बड़प्पन इस बात में भी है कि जब भी कोई अच्छी पढ़ने-गुनने लायक चीज़ उनकी निगाह में आती है तो उसे शेयर करने में ज़रा भी देर नहीं करते. हाल ही में उनका एक विचारोत्तेजक लेख आउटलुक में छपा है. समय मिले तो निगाह डालियेगा.
मैं आभारी हूं आपका
मैं आभारी हूं आपका
कि आपने मुझे शहीद मानकर
एक सुन्दर पत्थर पर
मेरा बारीक नाम मेरे साथियों के साथ
लिखवा दिया है.
पर मुझे सैल्यूट कर
नम आंखों से मेरा बारीक धुंधला नाम पढ़कर
मुझे शर्मिन्दा न करें
उसे साफ़ पढ़ने की कोशिश
आपकी आंखों में कई परेशान सवाल खड़े कर देगी
और उनके जवाबों में
पसीना, अचकचाहट, लरज़ती ज़बान.
और झांकती बगलों के सिवा कुछ नहीं
आप नाहक परेशान परेशान न हो.
मेरे सवाल
मेरा मकान, मेरी पेंशन
और मेरे बच्चों की पढ़ाई नहीं हैं
मैं इनके जवाब तो वैसे भी उम्र भर नहीं ढूंढ पाया था
पर इनसे बेख़ौफ़ आंखें मिलाकर
मैंने जी हल्का कर लिया था.
मेरे पास कुछ और सवाल हैं
जो मेरे सहमे हुए बच्चों से भी
ज़्यादा मासूम हैं
कि जैसे कौन तय करता है कि मरेगा कौन
और किस क़ीमत पर
कौन तय करता है कि बचेगा कौन
और उसकी बोली कैसे लगती है
किसके हाथ में है कि
बचे हुओं को रोज़ तिल तिल मारा जाए
कौन है जो किसी का मरना और किसी का मारना
बस दूरबीन लगाकर देखता रहता है
किसने दिया उसे ये किरदार
और देकर चुप क्यूं नहीं
जीते जी मैं इनको भाता क्यूं नहीं
मैं सचमुच अपना भाग्य विधाता क्यूं नहीं.
आपके जुलूस आपके उबाल
आपकी मोमबत्ती और आपका लिखवाया
मेरा मेरा बारीक नाम
मैं शतशत आभारी हूं आपका
पर मुझे चाहिए ये सब जवाब.
और भी हैं लेकिन
मैं ज़्यादा सवाल पूछकर
आपको शर्मिन्दा नहीं करना चाहता.
(तजेन्द्र लूथरा की फ़ोटो ट्रिब्यून से साभार)
8 comments:
बढ़िया कविता !
अभिनव जी पहले भी सार्थक हस्तक्षेप करते रहे हैं। अशोक दा कोशिश करना कि ये पोस्ट कम से कम 1दिन टिके!
दूसरी पोस्ट इसे ओवरलैप न कर दे।
जबरदस्त |
विचारों की घंटियाँ बज गयीं |
धन्यवाद |
जबरदस्त
यह कविता से बढ़कर कुछ और है। यह कविता हमें दर्पण दिखाती है। जो दिख रहा है वह शायद हम सबकी सामूहिक लज्जा है। और लज्जा से भी बढ़कर कुछ और है। सामूहिक अमानविकता ! सामूहिक गहरी खाई में गिरना ? सामूहिक impotence?
कृपया इसे लम्बे समय तक यहाँ बने रहने दीजिए। शायद हममें अब भी कुछ लज्जा शेष हो।
घुघूती बासूती
हमारे देश के नेताओ को शर्म नही आयेगी पर मुझे ज़रुर शर्मिंदगी महसूस हो रही है।सच्ची कविता। सलाम तेजेंद्र साब को और आपको भी अच्छी कविता पढने का मौका देने के लिये।
मन में बहुत गहरे तोड़फोड़ करती है यह कविता. जरूरी सवाल भी खड़े करती है. है कोई जो जवाब दे?
bahut he acchi kavita....dil ko chu gayi....
kehte hain ek aam insaan ko jeene ke liye use apne aapko hazaar baar maarna padta hai....
ek sipaahi ki shaadat ko hum nahi samaj paayenge....kuch aashu baha lene se kuch nahi hota hai....
is kavita ke ek ek baat sach hai....
कि जैसे कौन तय करता है कि मरेगा कौन
और किस क़ीमत पर
कौन तय करता है कि बचेगा कौन
और उसकी बोली कैसे लगती है।
बहुत संवेदनशील और उद्द्वेलित करती कविता। धन्यवाद
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