Monday, January 19, 2009

ग़ालिब बरास्ता रामनाथ सुमन-2

जैसा कि पहली पोस्ट में कहा कि यह व्याख्याएं श्री रामनाथ सुमन की हैं। आज से पचास साल पहले उन्होंने ग़ालिब को समझने और दूसरों को समझाने की अपनी तरह की पहली और अकेली कोशिश की थी। उनके समझाए पर बहस हो सकती है यह भाई विजयशंकर चतुर्वेदी की पोस्ट से साबित हुआ। विजय ने जिसे ग़ालिब की कमज़ोरी कहा, आज का शेर फिर उसी तरह का है। उम्मीद है मज़ा आएगा। और हां, अशोक दा और आदरणीय अनूप जी ने सुमन जी के बेटे का नाम इंगितों में बताया- अभिधात्मक खुलासा अभी बाक़ी है।

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तेरे वादे पर जिए हम, तो यह जान, झूट जाना !
कि खुशी से मर न जाते, अगर एतबार होता !!

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सुमन - उर्दू काव्य में माशूक़ के वादे पर न जाने कितने शेर लिखे गए होंगे पर मिर्ज़ा ने अपने कहने के ढंग से उसमें एक जद्दत पैदा कर दी है। और लोग उसके वादे पर जीते हैं परन्तु ग़ालिब इसलिए जीते हैं कि उसके वादे को झूटा समझते हैं।
कहते हैं - " तेरे वादे पर जो हम जीते रहे तो समझ कि ऐसा नहीं है, मैंने उसे झूटा ही समझा था। अगर तेरे वादे पर विश्वास होता तो मारे खुशी के मर न जाते?" माशूक़ के वादों पर कैसा तीखा व्यंग्य है।
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भाई बोधिसत्व ने रामनाथ सुमन की किताब को पहला और अनोखा प्रयास बताने पर आपत्ति की है। उन्होंने फोन पर मुझे उन किताबों के बारे में बताया जो सुमन से पहले छपीं और स्तर में उससे कहीं आगे हैं। उन्होंने अपनी आपत्ति के साथ किताबों की सूची देने का वादा भी किया है। मुझे अच्छा लग रहा है कि ये बहस सही दिशा में जा रही है और ग़ालिब के बारे में और उन्हें लेकर हिंदी में हुए पुस्तकीय प्रयासों के बारे में हमारी जानकारी बढ़ रही है। अब मैं उस सूची के लिखित रूप में प्राप्त होने का इंतज़ार कर रहा हूं, ताकि उसे भी कबाड़खाने पर लगाया जा सके।
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9 comments:

विजयशंकर चतुर्वेदी said...

खुशी से मर जाने का ऐसा विलक्षण इस्तेमाल और कौन कर सकता है! यह अदब के दिल्ली स्कूल का खाँटी अंदाज़ है. अद्भुत!

व्यंग्य करने के साथ-साथ ग़ालिब माशूक़ का अहसानमंद भी है कि उसने बचा लिया. वादा भले कभी निभना नहीं था लेकिन आस तो थी ही. इसलिए ऐतबार न करके वादा पूरा होने की उम्मीद के सहारे ज़िंदगी बसर कर ली. वरना कब के दुनिया-ए-फ़ानी से कूच कर गए होते!

Ashok Pande said...

यह एक विकट इत्तेफ़ाक़ है कि मुझे दो रोज़ पहले कहीं से गुलज़ार का बनाया 'मिर्ज़ा ग़ालिब' सीरियल पूरा का पूरा छः सीडीज़ की शक्ल में मिला. जाहिर है नसीरुद्दीन शाह की एक्टिंग के चलते मुझे यह पूरा दो दफ़ा देखना पड़ा. एक बार मां-पिताजी ने भी देखा. अलावा इसके यह सीरियल हम में से बहुतों के लिए उस नोस्टैल्जिया का कारण भी है जब टीवी में एक से एक आलीशान सीरियल्स आया करते थे. हां तब सिर्फ़ एक दूरदर्शन ही था.

मेरा सारा घर ग़ालिबमय हुआ पड़ा है इन दिनों और कबाड़ का अड्डा भी.

एक ठो शेर हमारी तरफ़ से हो जाए चचा का शिरीष और विजय भाई की सेवा में:

दर्द की कोई लै नहीं है
नालः पाबन्द-ए-नै नहीं है.

विजयशंकर चतुर्वेदी said...

अशोक भाई, मुआ'फ़ कीजिएगा! हमने तो पढ़ा है-

'फ़रियाद की कोई लै नहीं है'

अमिताभ मीत said...

जारी रहे मालिक.

तमाशा-ए-गुलशन, तमन्ना-ए-चीदन
बहार आफ़रीना, गुनहगार हैं हम

Ashok Pande said...

विजय भाई

आप सही कह रहे हैं. ग़लती हो गई जुनूं में. सही करने का शुक्रिया!

एस. बी. सिंह said...

भाई वाह ! जब जब झूठे वादे का ये हाल है तो सच होने पर जरूर मर ही जाते।

दिनेशराय द्विवेदी said...

ये कमाल ही तो गालिब को गालिब बनाता है।

बोधिसत्व said...

शिरीष भाई
यह गालिब को समझने की पहली और अकेली कोशिश क्या है....जरा रोशनी डालें...कृपा होगी

महेन said...

अभी कुछ दिन पहले ही ग़ालिब चचा पैदा हुए हैं और उनका ज़िक्र खूब चल रहा है. यहाँ सब लोग बहस में मुब्तिला हैं और उधर चचा बोल गए थे:

"बाज़ीचा-ऐ-अत्फ़ाल है दुनिया मेरे आगे
होता है शब-ओ-रोज़ तमाशा मेरे आगे"