८ सितम्बर १९६९ को देहरादून में जन्मे हमारे प्रिय मित्र शम्भू राणा से इस नए साल में आप को बहुत बार मिलवाया जाएगा. जनाब पत्रकार हैं, लेखक हैं घुमक्कड़ हैं और सबसे ऊपर उम्दा इन्सान हैं. नैनीताल से कोई तीस सालों से लगातार निकलने वाले 'नैनीताल समाचार' नामक जनपक्षधर और सचेत पाक्षिक अखबार का मुझे इधर चस्का लगवाने का श्रेय शम्भू जी को जाता है. पिछले कई सालों में और ख़ासतौर पर पिछले एकाध साल में उन्होंने एक से एक चीज़ें लिखी हैं. उनकी शैली और कथ्य को बहुत करीब से पढ़ने समझने वाला पाठक यह भी जान जाता है वे बहुत पढ़े-लिखे आदमी हैं. इस साल उनके लेखों की एक पुस्तक किसी ठीकठाक जगह से ला पाना मेरा स्वप्न है क्योंकि यह शानदार लेखक इस वक्त हमारे देश में लिख रहे भले-भले लेखकों से सौ गुना बेहतर है और उसे ज़्यादा से ज़्यादा लोगों को पढ़ाया जाना चाहिये. नए साल पर लिखा उनका एक पीस पेश है.
सभी को पता है फिर भी बताना ठीक रहता है कि नया साल आ गया। अपना मकसद नये साल की बधाई देना नहीं है। अपनी ज़बान में कुछ ऐसी तासीर है कि जिसे नया साल मुबारक कहा, उनमें से ज्यादातर की जेब साल की शुरूआत में ही कट गयी। इसी तरह लोगों की दुआ भी अपने लिये दुआ ही रही दवा नहीं बन पायी।
दरअसल मैं कुछ और कह रहा था, शुरूआत में ही भटक गया। कहना चाह रहा था कि दिसम्बर महीने का अंत और जनवरी की शुरूआत कैलेण्डरों के लिये पतझड़ भी है और मौसमे-बहार भी। पुराने कैलेण्डर उतर जाते हैं, उनकी जगह नये दीवारों में टाँक दिये जाते हैं। यह कैलेण्डर और डायरियाँ बटोरने का सीजन होता है। चाहे जहाँ से, जितने मिल जायें, न कहने का रिवाज नहीं है। कोई चाहे एक करोड़ कैलेण्डर छाप ले, शर्तिया कम पड़ेंगे और कई लोग नाराज मिलेंगे- भाई साहब हमें आपका कैलेण्डर नहीं मिला। हम आपको ऐसा नहीं समझते थे। आदमी कुछ इस अदा से शिकायत करता है जैसे कैलेन्डर रूपी पासपोर्ट के बिना उसे नये साल में दाखिल होने से रोक दिया गया हो। बेचारे की आपने जिंदगी तबाह कर दी। एक जरा सी कागज के टुकड़े के लिये। हद है कमीनेपन की भी।
कोई आदमी कैलेण्डर लेकर जा रहा हो तो, जरा देखूँ कैसा है कह कर भाग जाने की भी परम्परा है। लुटा हुआ आदमी भी कुछ खास बुरा नहीं मानता, लुटेरे को दो-चार गालियाँ देकर बात भूल जाता है।
जिस तरह कुछ लोगों को पानी भरने का खब्त होता है, वैसे ही कुछों को कैलेण्डर बटोरने का रोग होता है। जगह के अभाव में भले ही एक के ऊपर दूसरा-तीसरा टाँक देंगे पर कैलेण्डर के लिये खुशामद, सिफारिश और छीन-झपट से भी परहेज नहीं करेंगे।
यह सब एक प्रकार का सोद्देश्य कर्मयोग है, जो कैलेन्डर रूपी फल की इच्छा से किया जाता है। इसकी शिक्षा गीता नहीं देती। उसका कारण है। श्रीकृष्ण के जमाने में कैलेण्डर नहीं होते थे। अगर होते तो महाभारत का युद्ध जनता की भारी माँग पर 19 दिन चलता और गीता 18+1 अध्याय की होती। कृष्ण ने अर्जुन से अवश्य यह कहा होता कि हे अर्जुन, सुन जरा ध्यान से और वेदव्यास, तू भी सुन इस अध्याय को जरा बड़े फोंट में लिखना। प्रूफ की गलती तो हरगिज मत करना। तो अर्जुन चाहे जो हो, तू दिसम्बर के महीने में न तो आखेट को जाना, न युद्ध करना और न ही किसी सुंदरी के अपहरण का प्लान बनाना। आउट ऑफ स्टेशन मत होना, शहर में ही रहना और हर लाले-बनिये, बैंक एल.आइ.सी. से कैलेण्डर और डायरी प्राप्त करने का जी तोड़ प्रयत्न करना। प्यार से माँगना, खुशामद करने में मत शर्माना। इस पर भी न मिले तो खड्ग दिखाना। फिर भी न मिले कैलेण्डर तो अपमान का घूँट पी जाना। थोड़ा धैर्य रखना। मार्च में होलियों से निपट कर कैलेण्डर न देने वाले के खिलाफ युद्ध छेड़ देना। धर्म और नीति यही कहती है। हे पार्थ, जो मनुष्य अपने इस कर्म से विमुख होता है उसकी आत्मा उसे बाकी के तीन सौ पैंसठ दिन कचोटती रहती है। मृत्यु के बाद ऐसे व्यक्ति के लिये द्वारपाल बावजूद सुविधाशुल्क के नरक के दरवाजे नहीं खोलते। हे महाबाहो, तू इस पाप का भागी मत बनना।
साधारण से कैलेण्डरों के लिये जब इतनी मारामारी है तो विजय माल्या के कैलेण्डर पाने के लिये कोई किसी का कत्ल कर दे या सरकार अल्पमत में आ जाये तो कम से कम अपने को कोई हैरानी नहीं होगी।
कैलेण्डरों की लोकप्रियता पर किसी को कोई संदेह नहीं होना चाहिये। जो चीज लोकप्रिय होती है उसका अगर कोई रचनात्मक और लोक कल्याणकारी इस्तेमाल किया जाये तो क्या बुरा है। धंधे को प्रभावित किये बिना अगर थोड़ी समाज सेवा भी हो जाये तो किसे एतराज होगा। मसलन, मेरे दिमाग में एक आइडिया है जिसे जनहित में प्रकाशित करवाना चाहता हूँ। इससे लोगों का समय बचेगा और स्वास्थ्य भी उत्तम रहेगा। आइडिया कुछ यूँ है- शेर की दहाड़ती हुई सजीव तस्वीर वाला कैलेण्डर छापा जाये। किसी फिल्म स्टार से ऐसे कैलेण्डर का प्रचार करवाया जाये कि इसे कमरे में नहीं, पाखाने में अपने बैठने के ऐन सामने टाँकें। फिल्म स्टार से कहलवाया जाय कि जब से मैंने इस कैलेण्डर को इसके उचित स्थान पर टाँका तब से मैं शूटिंग में समय से पहुँचता हूँ। मेरी रूठी हुई गर्ल फ्रैंड भी लौट आयी, मेरे कैरियर में टर्निंग प्वाइंट आया वगैरा-वगैरा...
यह तो एक मिसाल थी। ऐसे और भी बहुत से विचार हो सकते हैं, जिनसे कैलेण्डरों को और ज्यादा सार्थक और उपयोगी बनाया जा सकता है। कृपया सब मिल कर सोचें।
10 comments:
बहुत ही उम्दा लिखा है.....
शंभू राणा जी से परिचय के लिए शुक्रिया। उम्मीद है उनकी रचनाओं से जल्द ही हम सभी रूबरू होंगे।
शंभू राणा जी से परिचय करवाने के लिए धन्यवाद....बहुत अच्छा लिखा है।
हमेशा की तरह शंभू इस बार भी भिगो गए. मेरी नज़र में उनकी तरह के लेखक दुर्लभ होते हैं. उन्हें करीब से जाने वाले इस बात को बेहतर समझ सकते हैं. अपने पिता पर 'नैनीताल समाचार' में छपा उनका संस्मरणात्मक आलेख लेखकीय तटस्थता का बेजोड़ नमूना है. काश उसे भी आप ब्लॉग पर ले आते. इस वर्ष अगर उनकी किताब आती है तो यह हिन्दी साहित्य के लिए एक सुखदाई घटना होगी. उनके लिए भरपूर रचनात्मक सक्रियता की शुभकामनाएं.
नए कैलेंडर को कुकर में डालें। पांच सीटी तक उबालें तारीखों के अंक धुंधले पड़ने लगें तो उतार लें। किनारे की डंडियां निकाल कर फेंक दें। काली मिर्च, नमक और धनिया के चित्र के साथ मेहमानों के साथ खाएं। सेंस आफ अकेजन की गिजा है। राणा जी को अच्छे लिखे की मुकाबरबाद।
अशोक दा!
किताब रामनगर के मित्रों के सहयोग से अनुनाद छाप रहा है। टाइपिंग-कम्पोजिंग का काम पूरा हो चुका है। कबाड़खाने पर इस आदमी को पाकर अच्छा लगा।
va bhaiya samboo!khoob mile maikhane me.han,ashutosh jinka zikra kar raha hai vo rachnayen bhi zaroor yahan lekar ao pyare.intezar rahega,goki unme anek mai parh chuka.tum ek durlabh gadyakar aur sachhe lekhak ho mitra.
aur shirish tumhara sankalan chap raha hai ye to aur achha hai.
haan, Sambhu Pyare ko kabaarkhaane mein lakar apne bauht sunder kaam kiya Ashok Bhai. Sambhu naam ke gazab kism ke khanti objective aadami ke anek prashanshako mein ek mein bhi hoo. " maaf karna he pita" to avshya hi padne layak hai. aur Panchtantra ki kahaniyon ka jo punarlekhan unhone kiya hai woh bejod hai.
unka sankalan zaroor nikaliye.
Post a Comment