मिर्ज़ा ग़ालिब से जुड़ा कोई तारीखी वाक़या जब भी पेश आता है अच्छे लोग दरपेश हो जाया करते हैं. इससे साबित होता है कि दुनिया भर में ग़ालिब के प्रशंसकों की तादाद में दिनों दिन इजाफ़ा हो रहा है. पिछले दिनों ग़ालिब की पुण्यतिथि के आसपास 'कबाड़खाना' और कुल मिलाकर ब्लॉगजगत में भी आपने इसका सबूत पाया है. चाहनेवाले ग़ालिब को तरह- तरह से याद किया करते हैं. उनका मर्सिया भी अक्सर पढ़ा जाता है. आज पढ़िए ख़ुद मिर्ज़ा ग़ालिब का लिक्खा अपने भानजे (ज़ैनुल आबदीन जो ईसवी सन १८५२ में महज ३६ वर्ष की अल्पायु में खुदा को प्यारे हो गए थे. इन्हें ग़ालिब ने गोद ले लिया था.) का मर्सिया-
लाजिम था कि देखो मिरा रस्ता; कोई दिन और
तन्हा गए क्यों अब रहो तन्हा कोई दिन और
मिट जाएगा सर, गर तिरा पत्थर न घिसेगा
हूँ दर प तिरे नासिय: फ़रसा कोई दिन और
आए हो कल और आज ही कहते हो कि जाऊं
माना, कि हमेशा: नहीं अच्छा, कोई दिन और
जाते हुए कहते हो, क़यामत को मिलेंगे
क्या ख़ूब, क़यामत का है गोया कोई दिन और
हाँ आय फ़लक-ए-पीर, जवाँ था अभी 'आरिफ़
क्या तेरा बिगड़ता, जो न मरता कोई दिन और
तुम माहे-ए-शब-ए-चारदहुम थे, मिरे घर के
फ़िर क्यों न रहा घर का वह नक्शा कोई दिन और
6 comments:
ग़ालिब पर जो भी मिल जाय सलाम है.
तुम कौन से थे ऐसे खरे, दाद-ओ-सितद के
करता मलकुल मौत तक़ाज़ा कोई दिन और
गुज़री न बहरहाल ये मुद्दत ख़ुश-ओ-नाख़ुश
करना था, जवाँमर्ग, गुज़ारा कोई दिन और
ग़ालिब के शेर और शायरी ही निराले है जिनको पढ़कर तबियत खुश हो जाती है .
बहुत बढ़िया .
तुम कौन से थे ऐसे खरे, दाद-ओ-सितद के
करता मलकुल मौत तक़ाज़ा कोई दिन और
गुज़री न बहरहाल ये मुद्दत ख़ुश-ओ-नाख़ुश
करना था, जवाँमर्ग, गुज़ारा कोई दिन और
बहुत अच्छा किया मीत भाई जो उस ग़ज़ल के ये छूट गए अशआर आपने टिप्पणी की जगह दे दिए. क्या शोक है इन मिसरों में कि आरिफ़ (यह ग़ालिब के भानजे का उपनाम था) तुम आदान-प्रदान अथवा लेन-देन (दाद-ओ-सितद) में ऐसे कितने सच्चे थे कि ख़ुद को दे दिया. यमराज (मलकुल मौत) को कुछ दिन और तक़ाज़ा करने दिया होता! ज़िंदगी भले ही सख्त थी लेकिन ऐ युवा-मृतक! तुझे हर हाल में गुज़ारा करना चाहिए था. इतनी जल्दी दुनिया नहीं छोड़नी थी.
चतुर्वेदी जी आपको और मीत जी को भी शुक्रिया यह ग़ज़ल पढ़वाने के लिए.
असोक जिंदाबाद।
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