
हज़रत अमीर ख़ुसरो की सम्भवतः सबसे ज़्यादा लोकप्रिय रचना है 'छाप तिलक सब छीनी रे'. रंगे-सुख़न पर जनाब एस. बी सिंह, कर्मनाशा और इसी कबाड़ख़ाने पर सिद्धेश्वर बाबू द्वारा और कई अड्डों पर अलग अलग मित्र-साथियों द्वारा यह रचना अलग अलग आवाज़ों में सुनवाई गई हैं.
कल एक साहब मेरे वास्ते बहाउद्दीन क़ुतुबुद्दीन क़व्वाल एण्ड पार्टी का दुर्लभ कलेक्शन 'फ़्लाइट ऑव द सोल' कहीं से जुगाड़ लाए. इन क़व्वाल-बन्धुओं से मेरा परिचय फ़क़त एक ही (लेकिन क्या शानदार) क़व्वाली से था. कल रात भर इस अल्बम को कई मर्तबा सुना गया. आज लगा थोड़ा ज़्यादा सम्पन्न समृद्ध हुआ हूं. यह महज़ इत्तफ़ा़क़ है कि इस से ठीक पहले बाबा नुसरत विराजमान हैं और वे भी इसे गा चुके हैं.
सुनिये, लुत्फ़ लीजिये और हैरत कीजिये कि एक ही रचना कितनी कितनी बार कितने कितने तरीकों से गाई जा सकती है.
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7 comments:
bilkul sahi kaha aapne!
बाबूजी , आप एक अंतराल के बाद आए किन्तु अपने साथ एक से एक उम्दा चीज लाए. यह 'छाप तिलक' म्कितने -कितने लोगों ने गाया है यह हिसाब रखना रिसर्च का काम है. संगीत और कव्वाली की परंपरा अपने स्थान पर है मगर मैं तो इसे हिन्दी-उर्दू भाषा के विकासक्रम के एक शानदार पड़ाव के रूप में देखता हूं.
बहुत उम्दा.बल्ले -बल्ले!!
वाह! सुबह-सुबह मस्ती आ गयी। शुक्रिया...।
जे ही बात मैं भी कै रिया था एक बार कि कित्ते लोग गा गए इसकू.
वाह क्या संयोग है, कल शाम मैं इसी कव्वाली को जाफर हुसैन बदायूनी की आवाज़ में सुन रहा था की यह पोस्ट। बहुत उम्दा अशोक जी। सचमुच हैरत में हूँ।
wah ashok bhai! mza aa gya. maine bhi 4 bar suna.
वाह वाह वाह!!
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