(दू्सरी जुगलबन्दी पोस्ट. पहली का लिंक ये रहा)
अशोक पाण्डे: बेग़म की मार खा चुकने के उपरान्त चन्द रोज़ अपने दीवानख़ाने में तन्हाई की सज़ा काट चुका बादशाह बाहर आया तो क्या देखता है कि महल की सारी बुर्जियों पर कव्वे, कवाब और रूमाली रोटियों की दावत-ए-परिन्दानां को निबटाने में लगे हैं.
बादशाह ने कव्वों के सरदार से पूछा : "क्यूं बे कव्वे, मैंने तुस्से कई थी कि मुझे अपने महल में एक भी परिन्दा ना चइये!"
"मालिक अभी तो सारे कव्वे खाना निबटाने में मुब्तिला हैं ... मार्कीट मद्दा चल्लिया दिक्खे!"
"अबे कलुवे, जे सब तो तब कई गई थी जब तुमैं खाना ना मिलै"
"पैं ... " कहकर वह कव्वा उड़ा तो सारे कव्वे भी उस पीछे उड़ चले। सरदार के गले में रूमाली रोटी का छ्ल्ला पड़ा था जिसमें प्याज के तिरछे, बांके कतरे झूल रहे थे।
अनिल यादव: अपनी गिनती के एतबार नौ दिन- आठ रात मुसलसल पंख हिलाने के बाद कव्वे जंबू द्वीप के ऊपर पहुंचे तो पाया कि हवा में एक दो गाना तैर रहा है- "उड़ जा काले कांवां जा रे खंड बिच पांवा मिठियां।" भूख लग आई और उसके खिंचाव से कव्वे नीचे उतर आए।
एक गृहस्थ अपनी स्त्री और तीन साल के बच्चे के साथ गदर नामक चित्र देख कर निकला था और तेज कदमों से घर की राह चला जाता था। अचानक सामने कव्वों के सरदार को पाकर दंपति के हाथ जुड़ गए और बच्चे ने जब पालागन करनी चाही तो सरदार ने पंजे सिकोड़ लिए। रोटी के छल्ले से लटके प्याज के कतरे गिर गए। वहां आज एक प्रसिद्ध तीर्थ है।
खैर उस वक्त, गृहस्थ ने हाथ बांधे कहा, "आप के एक ही आंख है फिर भी सबकुछ देख लेते हो। आप की चोंच वहां पहुंची है जहां कवि-शायर भी नहीं पहुंच पाते। आप हमारा नेतृत्व करें।"
"पैं..."कव्वे के मुंह से आदतन निकला तो गृहस्थ की आंखों में आंसू आ गए।
झुंड की कव्वियों ने जरा अलग ले जाकर सरदार से कहा, बाजीचएअतफलाना हरकत तो करे मती, हां कर दे। और कितना उड़ें, अब हरम में जाकर जाकूजी गुसल का वक्त आन पहुंचा है।
कुछ सोच कर, अपने सयानेपन के साफ्टवेयर पर क्लिक करने बाद कौवे ने गृहस्थ से कहा, "अच्छा तुम लोग अपने ठीए पे जाओ। चुनाव में मुलाकात होगी।"
बस निर्वाचन आयोग तारीखों की घोषणा कर दे। वे आपके घर भी आएंगे। उन्हें प्लीज खंड बिच मिठियां यानि अपना वोट देना न भूलिएगा।
3 comments:
अब पता चला गुरु कि कौए हमारा नेतृत्व कर रहे हैं।
काफी रोचक पोस्ट है। अब मेरी तो गृहस्थी है नहीं कि आपकी सब बातें समझ लूं - अभी तो पढ़ाई के दिन हैं। पर सचमुच बहुत अच्छी लगी ये पोस्ट। कुछ अलग और अनोखी। साथ ही एक छुपा हुआ तीखा राजनीतिक व्यंग्य - मजा आ गया।
पहले सोच रही थी कौवे की तस्कीर रंगीन क्यों चस्पा कर दी है, ये तो अपना कौवा नहीं, पर अब सही है। सचमुच मज़ा आ गया।
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