प्रस्तावना :
आज से कई बरस पहले एक अदद पी-एच० डी० की डिग्री हासिल करने की तैयारी के सिलसिले में बी.एच.यू. के केन्द्रीय पुस्तकालय की खाक छानते - छानते १९६० -६५ के दौर के 'ज्ञानोदय' में छपी एक कविता पसंद आई थी जिसे डायरी में उतार लिया था. वक्त की मार से मुकाबला करने की जद्दोजहद में वह डायरी भी कहीं खो गई लेकिन उस कविता की शुरूआती पंक्तियाँ अब भी याद हैं -
रात कहने लगे मेरी बाँह पकड़ कर सैयाँ
तेरे जूड़े का किरनफूल बहुत सुंदर है .
ऐ सखी लाज से में मैं मर - मर गई
मेरा जूड़ा तो मुआ घास का इक जंगल है।
रात कहने लगे मेरी बाँह पकड़ कर सैयाँ
तेरे जूड़े का किरनफूल बहुत सुंदर है .
ऐ सखी लाज से में मैं मर - मर गई
मेरा जूड़ा तो मुआ घास का इक जंगल है।
विषय प्रवेश :
इस नज्म को किसने लिखा है कुछ पता नहीं पर इसकी बहर बहुत अच्छी लगी थी. बाद में अपने शहर आकर इसी बहर की कापी करते हुए तब यार -दोस्तों के शुद्ध मनोरंजन के वास्ते एक नज्म लिखी थी - 'सखी संवाद'. मित्रों को शिकायत रहती थी कि मेरी कवितायें बहुत 'कैड़ी' होती है वाल मैगजीन पर लगने वाली कवितायें अधिकांश लोगों के सर के ऊपर से निकल जाती हैं. सो एक फरमाइशी कविता ने जन्म लिया और अपने व्यक्तित्व से गंभीरता की केंचुल कुछ उतरी. बात दरअसल यह थी कि विद्यार्थी समुदाय में भावी डाक्साब लोग, खासकर कला संकाय के शोधार्थी कुछ करते - धरते हुए दिखते नहीं थे . छात्रावास, विभाग , पुस्तकालय, कैंटीन और अंतत: चचा की चाय की दुकान पर ठलुआगीरी करते हुए दुनिया - जहान को बदल देने के मंसूबे बाँधते हुए भीतर हीतर कुछ पुष्पगंधी - प्रेमिल तंतुओं को लपेट -समेटकर शाम कर दे्ना और फिर मालरोड पर मटरगश्ती कर छात्रावास के घोंसले में वास , भोजन -पानी, खाना-पीना... कुछ गप्प - कुछ शप्प , कुछ पढ़ाई...नींद..सपने..सपनों में सजना.....जिन लोगों को झील, बादल , बारिश, धुंध वाले शहर नैनीताल की रूमानियत की याद हो और जिसने अपने कालेज - यूनिवर्सिटी में अपनी पढ़ाई के दिनों में पढ़ना - लिखना छोड़कर बाकी सारे करम किए हों उन्हें शायद इस नज्म के बहाने अपना विद्यार्थी जीवन याद आ जाए तो क्या कहने ! तो आइए देखे हैं वह नज्म जिसका शीर्षक था -'सखी संवाद' :
प्रथम सखी उवाच :
ऐ सखी वो जो मुझे कालेज के गलियारे में
ध्यान से देखकर कैंटीन में घुस जाता है.
अपने होस्टल की तरफ अक्सर निगाहें कर के
चाय पीते हुए सिगरेट भी पीता जाता है.
देखती हूं कि वो लाईब्रेरी में रोजाना सखी
किताबों- थीसिसों में कैद नजर आता है.
लेकिन जब सामने पड़ जाती हूँ तो जाने क्यों
प्यार से देखता है आहिस्ते से मुस्काता है.
सोचती हूँ कि कभी उससे कोई बात करूँ.
उसकी तन्हाई से तन्हा हो मुलाकात करूँ.
अन्य सखी उवाच :
ऐ सखी तू अभी कमसिन भी है नादान भी है
जमाने की हवा में बह गई तो क्या होगा !
मैंने देखा है इस कैंपस का हर इक मंजर
सीख ले इससे शायद तेरा ही भला होगा !
राह चलते हुए यहाँ सैकड़ों मिल जाते हैं
देखकर तितलियों को प्यार लुटाने वाले.
आहें भरने वाले - बातें बनाने वाले
सीधी नजरों के तिरछे तीर चलाने वाले.
तेरा वो भी मुझे कुछ ऐसा ही - सा लगता है
सँभल - सँभल के कदम अपने बढ़ाना प्यारी
अगर वो रिसर्च स्कालर है तो और भी चौकन्नी रह
उनका तो काम है बस दिल ही लगाना प्यारी !
उपसंहार :
( दोस्तों , तब मुहब्बत नामक एक शै हुआ करती थी. कोई बताओ तो-
१. आज वह कहाँ है ?
२.कैसी है ?
३. किधर है ?
*** क्या आपको कुछ खबर है ? )
प्रथम सखी उवाच :
ऐ सखी वो जो मुझे कालेज के गलियारे में
ध्यान से देखकर कैंटीन में घुस जाता है.
अपने होस्टल की तरफ अक्सर निगाहें कर के
चाय पीते हुए सिगरेट भी पीता जाता है.
देखती हूं कि वो लाईब्रेरी में रोजाना सखी
किताबों- थीसिसों में कैद नजर आता है.
लेकिन जब सामने पड़ जाती हूँ तो जाने क्यों
प्यार से देखता है आहिस्ते से मुस्काता है.
सोचती हूँ कि कभी उससे कोई बात करूँ.
उसकी तन्हाई से तन्हा हो मुलाकात करूँ.
अन्य सखी उवाच :
ऐ सखी तू अभी कमसिन भी है नादान भी है
जमाने की हवा में बह गई तो क्या होगा !
मैंने देखा है इस कैंपस का हर इक मंजर
सीख ले इससे शायद तेरा ही भला होगा !
राह चलते हुए यहाँ सैकड़ों मिल जाते हैं
देखकर तितलियों को प्यार लुटाने वाले.
आहें भरने वाले - बातें बनाने वाले
सीधी नजरों के तिरछे तीर चलाने वाले.
तेरा वो भी मुझे कुछ ऐसा ही - सा लगता है
सँभल - सँभल के कदम अपने बढ़ाना प्यारी
अगर वो रिसर्च स्कालर है तो और भी चौकन्नी रह
उनका तो काम है बस दिल ही लगाना प्यारी !
उपसंहार :
( दोस्तों , तब मुहब्बत नामक एक शै हुआ करती थी. कोई बताओ तो-
१. आज वह कहाँ है ?
२.कैसी है ?
३. किधर है ?
*** क्या आपको कुछ खबर है ? )
16 comments:
फ़िज़िक्स वाले चौधरी साहब तो ना थे बो रिचर्स सखालर!
कृपया खुलासा करें चचा!
सिद्धेश्वर बाबू! पूरानी गर्द क्यो झाड़ रहे हो प्यारे. कई-कई खून हो जायेंगे. नैनीताल की आबो-हवा यहाँ के पत्थरों को भी रूमानी बना देती है. किशोर वय में हिमांशु जोशी के उपन्यास 'तुम्हारे लिए' को पढ़ने के बाद जब मैं पहली बार नैनीताल आया तो घूम-घूम कर उन सारी जगहों को श्रद्धांजलि देना नहीं भूला, जहाँ-जहाँ इस कहानी के किस्से दफन थे. गांवों से ताल्लुक रखने वाले 'विद्या-अर्थियों' को वैसे भी नैनीताल कुछ ज्यादा ही सताता है. हमारे-आपके एक परम मित्र को तो नैनीताल ने ऐसा डसा, कि जहर आज तक नहीं उतर सका. वो फर्जी 'प्रेमपत्र' जो उद्दंड ब्रुक हिल हॉस्टल से उन्हें भेजे जाते थे और उन्हें वह शायद आज भी 'सच्चा' समझते हों. नैनीताल का हमारा लंबा प्रवास जाने कितनों की बर्बादी का गवाह है. करीब आधी उम्र भटकते रहने के बाद में कह सकता हूँ कि नैनीताल जैसा जादू और कहीं नहीं.
भाई अशोक व भाई आशुतोष-
ग़ालिब तिरा अह्वाल सुना देंगे हम उन को,
वह सुन के बुला लें यह इजारा नहीं करते !
आह! भाई आप तो आज कल न जाने किन किन ज़ख्मों को कुरेदने में लगे हैं.........
...मुहब्बत करने वाले कम न होंगे,
तेरी महफ़िल में लेकिन हम न होंगे।
बहुत अच्छे चचा !
बहुत अच्छे चचा !
After two decades, I spoke to Dr. Tejendra Gill yesterday, my former professor from Zoology Department.
Well Nainital is a city of nostalgia for everybody. Thanks for reminding.
Looks like this "sakhi-upaach" is designed by some sakha, otherwise it might have had a different tone altogether.
इस सखी संवाद के बहाने खूब याद दिलायी उन बीते रीते और मीते दिनों की; आशुतोष की प्रेम प्रसंग वाली टिप्पणी से याद आया गैब्रियल गासिैया मार्खेज के उपन्यास love in the time of cholera का युवा नायक जो एक मामूली सी बात पर खटपट हो जाने के कारण अपनी प्रेमिका से शादी नहीं कर पाता लेकिन उसे रोजा़ना एक की दर पर प्रेम पत्र लिखता है। 70 बरस की उम्र तक लिखता रहता है। लेकिन बीच के दौर में दूसरे प्रेमियों के लिए प्रेम पत्र लिख कर देता है। मुश्किल तो तब आती है जब उन प्रेम पत्रों को पाने वाली लड़कियां भी उसी के पास आती हैं और उन प्रेम पत्रों के उत्तर उससे लिखवाती हैं। यानी सवाल हमारे और जवाब भी हमारे। कई जोड़े तो इसी प्रेम पत्रों से आगे बढ़ कर विवाह भी कर लेते हैं।
क्या तो हसींन होते हैं वे दिन
अब तो याद ही कीजिये और पुरानी डायरियों से अंश उतार कर शेयर कीजिये
सही है शायद पता लग ही जाये. शुभकामनाऐं तो दे ही दें. :)
ओ सनम सुनते हैं तेरी भी कमर है
कहां है, किस तरफ है ऒ किधर है
thanks for reminding about
"love in the time of cholera" too,.
While reading that book, long time ago, my trouble was with "egg plant" which the doctor used to cook for his lovely wife every now and then. I was not sure at that time what it is?
Now every now and then I remember this book whenever I eat egg plant!!!!
something lost in between the translations.
जो हो गया सो हो गया। आप से एक ही निवेदन है कि इस 'विस्मृत विधा' को पुनर्जीवित करें और ऐसी और रचनाओं की प्रसादी प्रदान करें।
हम वहाँ हैं जहाँ से हमको भी
ख़ुद हमारी ख़बर नहीं आती.
Sidheshwar bhai, bas kariye. hamaare bhi dil mein kuchh-kuchh hota hai.
सिद्धेश्वर भैजी, बस करिए. हमारे भी दिल मेँ कुछ होता है.
अशोक भाई, देखिये तो ज़रा हिन्दी मेँ!!!
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