Saturday, February 28, 2009
लम्बूद्वीप का श्वानयुग उर्फ़ स्वभूसीकरण की परम्परा
(पता नहीं कहां से ... पर जारी हैगा)
कालान्तर में जब नकली बघीरे की आवाज़ निकालने वाला बघीरा वास्तविक से लगने वाले बघीरे में तब्दील होकर दिल्ली स्थित चौर्य केन्द्र का सदस्य तक बन आया, नागरजन आशा और घोर आजिज़ी से भर उठे. नकली बघीरे को जिन कार्यों को पूर्ण करने का आधिकारिक अनुज्ञापी बनाया गया था, वे कार्य कलाकोठरी में आजीवन कारावास भोगने को अभिशप्त बुढ़ाते हुए असली व्याघ्रों के सिपुर्द कर दिया गया था. कैद में पड़े व्याघ्रों को अपनी दुमों के ऐन नीचे छपे गोबर को छुपाने तक के सामान मुहैय्या न थे सो वे शर्म के मारे 'जहां है जैसा है' के राजकीय अधिनियम के दायरे से बंधे रहने को विवश हुए.
हे सम्मानित नागरो! उसके पश्चात लम्बूद्वीप में मूलकर्म, कलाकर्म और स्वयंभूसीकरण आपस में पर्यायवाची मान लिए गए और इन कर्मों को सलीके से प्रचारित किए जाने हेतु नकली बघीरे की आवाज़ निकालने का प्रशिक्षण देने वाली एक अन्तर्राष्ट्रीय संस्था को ठेका प्रदत्त किया जाना तय हुआ.
यह बघीरा काव्य के उत्थान का एवम पुराकाव्य के अवसान का युग था.
बाबा कबीर को "छैयां छैय़ां" और वात्स्यायन को "चलो रे मन स्याम जी की ठौर" गाते तक सुना जा सकता था. यानी परिस्थितियां इतनी विलोम हो चुकी थीं (इस ओवरस्टेटमेन्ट के लिए क्षमा किया जा सकेगा, इस आशा के साथ आगे लिखने की हिमाकत की जा रही है).
पुनः कालान्तर में नकली बघीरे को एक संकटपूर्ण स्थिति में कुछ अरब-खरब-नील-पद्म इत्यादि मात्रा में पणों की आवश्यकता हुई. कूड़कलाकर्म को प्रश्रय देने में सक्षम व तत्पर एक श्वानसमूह लम्बूद्वीप का उद्धारक बन सामने आया.
कथा लम्बी न खिंचे इस प्रयत्न में लीन इस नगण्यकणा धिकात्मा को एक दिवस समाचार प्राप्त हुआ कि लम्बूद्वीप के श्वानों को अब से आधिकारिक रूप से श्वान ही नहीं बल्कि अरब-खरब-नील-पद्म इत्यादि प्राप्त श्वान कहा जाएगा.
स्वभूसीकरण की परम्परा है कि ऐसी घोषणा होने पर समस्त नागरिक प्रसन्न होवें, भांगड़ा प्राप्त करें एवम एवम प्रकार से अपने चित्त को प्रमुदित रक्खें!
सियाबर रामचन्नर जी की जैहो!
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3 comments:
इतना ही कि 'मजेदार'।
(पता नहीं कहाँ से.... पर जारी हैगा)
शानदार!
जै हो!
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