Wednesday, March 4, 2009

गेरुआ मौसम उड़ते हैं अंगार

कल सुबह से बहुत खिन्न रहा. अनिल यादव की पोस्ट से तबाह भी रहा. जिस काम को हाथ लगाया वह गटरुद्दीन अली का घूरा बन गया. आख़िरकार बहुत देर रात, तमाम ज़रूरी, ग़ैरज़रूरी करतूतों के बाद बाबा गजानन की किताब थामी. 'अंधेरे में' को एक बार और आद्योपान्त पढ़ा. अब सुबह उम्दा लग रही है, निगाह थोड़ा ज़्यादा साफ़ ...



'अंधेरे में' से एक अंश : गजानन माधव मुक्तिबोध

... सब चुप, साहित्यिक चुप और कविजन निर्वाक्
चिन्तक, शिल्पकार, नर्तक चुप हैं
उनके ख़याल से यह सब गप है
मात्र किंवदन्ती.
रक्तपायी वर्ग से नाभिनाल-बद्ध ये सब लोग
नपुंसक भोग-शिरा-जालों में उलझे.
प्रश्न की उथली-सी पहचान
राह से अनजान
वाक् रुदन्ती.
चढ़ गया उर पर कहीं कोई निर्दयी,
कहीं आग लग गई, कहीं गोली चल गई.

भव्याकार भवनों के विवरों में छिप गये
समाचारपत्रों के पतियों के मुख स्थल.
गढ़े जाते संवाद,
गढ़ी जाती समीक्षा,
गढ़ी जाती टिप्पणी जन-मन-उर-शूर.
बौद्धिक वर्ग है क्रीतदास,
किराये के विचारों का उद्भास.
बड़े-बड़े चेहरों पर स्याहियाँ पुत गयीं.
नपुंसक श्रद्धा
सड़क के नीचे की गटर में छिप गयी,
कहीं आग लग गयी, कहीं गोली चल गयी.
धुएँ के ज़हरीले मेघों के नीचे ही हर बार
द्रुत निज-विश्लेष-गतियाँ,
एक स्पिलट सेकेण्ड में शत साक्षात्कार.
टूटते हैं धोखों से भरे हुए सपने.
रक्त में बहती हैं शान की किरनें
विश्व की मूर्ति में आत्मा ही ढल गयी,
कहीं आग लग गयी, कहीं गोली चल गयी.

राह के पत्थर-ढोकों के अन्दर
पहाड़ों के झरने
तड़पने लग गये.
मिट्टी के लोंदे के भीतर
भक्ति की अग्नि का उद्रेक
भड़कने लग गया.
धूल के कण में
अनहद नाद का कम्पन
ख़तरनाक !!
मकानों के छत से
गाडर कूद पड़े धम से.
घूम उठे खम्भे
भयानक वेग से चल पड़े हवा में.
दादा का सोंटा भी करता दाँव-पेंच
नाचता है हवा में
गगन में नाच रही कक्का की लाठी.
यहाँ तक कि बच्चे की पेंपें भी उड़तीं,
तेज़ी से लहराती घूमती हैं हवा में
सलेट पट्टी.
एक-एक वस्तु या एक-एक प्राणाग्नि-बम है,
ये परमास्त्र हैं, प्रक्षेपास्त्र हैं, यम हैं.
शून्याकाश में से होते हुए वे
अरे, अरि पर ही टूट पड़े अनिवार.
यह कथा नहीं है, यह सब सच है, भई !!
कहीं आग लग गयी, कहीं गोली चल गयी !!

किसी एक बलवान् तन-श्याम लुहार ने बनाया
कण्डों का वर्तुल ज्वलन्त मण्डल.
स्वर्णिम कमलों की पाँखुरी-जैसी ही
ज्वालाएँ उठती हैं उससे,
और उस गोल-गोल ज्वलन्त रेखा में रक्खा
लोहे का चक्का
चिनगियाँ स्वर्णिम नीली व लाल
फूलों-सी खिलतीं।कुछ बलवान् जन साँवले मुख के
चढ़ा रहे लकड़ी के चक्के पर जबरन
लाल-लाल लोहे की गोल-गोल पट्टी
घन मार घन मार,
उसी प्रकार अब
आत्मा के चक्के पर चढ़ाया जा रहा
संकल्प शक्ति के लोहे का मज़बूत
ज्वलन्त टायर !!
अब युग बदल गया है वाक़ई,
कहीं आग लग गयी, कहीं गोली चल गयी.

गेरुआ मौसम उड़ते हैं अंगार,
जंगल जल रहे ज़िन्दगी के अब
जिनके कि ज्वलन्त-प्रकाशित भीषण
फूलों में बहतीं वेदना नदियाँ
जिनके कि जल में
सचेत होकर सैकड़ों सदियाँ, ज्वलन्त अपने
बिम्ब फेंकतीं‍‍ !!
वेदना नदियाँ
जिनमें कि डूबे हैं युगानुयुग से
मानो कि आँसू
पिताओं की चिन्ता का उद्विग्न रंग भी,
विवेक-पीड़ा की गहराई बेचैन,
डूबा है जिनमें श्रमिक का सन्ताप.
वह जल पीकर
मेरे युवकों में होता जाता व्यक्तित्वान्तर,
विभिन्न क्षेत्रों में कई तरह से करते हैं संगर,
मानो कि ज्वाला-पँखरियों से घिरे हुए वे सब
अग्नि के शत-दल-कोष में बैठे !!
द्रुत-वेग बहती हैं शक्तियाँ निश्चयी.
कहीं आग लग गयी, कहीं गोली चल गयी.

...

5 comments:

नीरज गोस्वामी said...

अद्भुत...अब गजानंद जी की कविता के बारे में कोई और क्या कह सकता है...आभार उसे प्रस्तुत करने का...

नीरज

Anshu Mali Rastogi said...

मुक्तिबोध की सर्वश्रेष्ठ कविता।

Unknown said...

आपका का बहुत बहुत धन्यवाद । इस कविता को प्रस्तुत किया ।

मुनीश ( munish ) said...

abhaar.

अरुण अवध said...

मुक्तिबोध को पढ़कर मैंने कविता पढने की तमीज,
(जितनी भी मुझ में है) ,पाई है ! यह उनकी सर्वश्रेष्ठ
कालजयी रचना है !