Sunday, March 8, 2009

सफ़रनामा पूना से मारुति ८०० कार बागेश्वर पहुंचाने का: दूसरा हिस्सा

पूना से मारुति ८०० कार बागेश्वर पहुंचाने का: दूसरा हिस्सा

-शम्भू राणा

मथुरा के स्टेशन पर सिगरेट सुलगाने की हमारी झिझक को पुलिस वाले की तज़र्बेकार आंखों ने पकड़ लिया. नतीज़तन दो रुपल्ली की गोल्ड फ़्लेक सौ या दो सौ की पड़ गई. पैसा सिपाही जी की जेब में गया. पेड़ानगरी में कड़वाहट!

शाम हुई, खाना खाया और सो गए. रज्जन बाबू और मैं एक बर्थ पर एक दूसरे की ओर पांव करके बल्कि यूं कहना ज़्यादा अच्छा लगेगा कि एक दूसरे के चरणों में सर रख कर सो गए. फ़ौजी भाई जो थे वे भी पता नहीं कैसे बिना बर्थ के सफ़र कर रहे थे. केशव ने उनसे बहुत इसरार किया कि आइये मेरे साथ सो जाइए. पर वो माने नहीं, फ़र्श पर चादर बिछाकर लेट गए. रज्जन बाबू का मोबाइल जेब से निकल गया जो इ उन्होंने सम्हाल रखा था. इसकी एवज़ मैंने सुबह उन्हें कंधा हिलाकर जगाया और चाय पेश की.

याद नहीं आ रहा है कि जब सुबह हुई थी तो रेक किस जगह से गुज़र रही थी. खिड़की का शीशा उठाकर बाहर झांकना शुरू किया. बीच-बीच में रेल बस्तियों के पास से गुज़र रही थी तो देखा कि नर-नारी हवा की ओट में बैठे एक स्वाभाविक और अपरिहार्य कर्म से निबट रहे थे. जिन लोगों की सुबह ऐसी वीभत्स हो, उनका बाक़ी दिन कैसा होता होगा. बहुत देर तक ख़याल आता रहा कि क्या ये वही लोग हैं जो मन्दिर-मस्ज़िद जैसी फ़ालतू और फ़ुरसत की चीज़ों के लिए भेड़-बकरियों की तरह कट मरते हैं जबकि इनके अपने पास एक अपरिहार्य आड़ तक नहीं. सोच का यह कौन सा स्तर है कि अपनी कोख का जाया कुपोषण से मर जाता है पर बेजान मूर्तियों को दूध से नहलाने पर अपराधबोध नहीं होता. हमारे अन्दर जड़ के लिए क्यों इतनी आस्था है जबकि चेतन आस्था के अभाव में अचेत पड़ा है. तमाम होहल्ले और शाइनिंग के बावजूद सोच के इस स्तर को बनाए रखने में जिन लोगों का हाथ है, वो कब तक इतने निर्दयी बने रहेंगे. अपना स्वार्थ साधते रहेंगे. यह लावा आख़िर फूटता क्यों नहीं! ताकि धरती नए सिरे से उर्वरा हो, नए अंकुर फूटें, फूल खिलें जिनमें न छल हो न बनावट. जहां ऐसा न हो कि जो फूलों को उगाएं, उन्हें सींचें मगर उनके रंगो-बू और उनके निकलने वाले मधु में उनका हिस्सा न हो.

ऐसे ही बे-गोर-ओ-कफ़न लोगों की ओर इशारा करते हुए बहुत पहले कवि ने कहा था - पहले इन के लिए एक इमारत गढ़ लूं फिर तेरी मांग सितारों से भर जाएगी. प्रेयसी ने अगर कवि की बात का भरोसा किया होगा तो उसकी जवानी सर्द रातों को चांदनी की तरह बेकार गई हो्गी. कवि या कविता शब्द सुनते ही ढेला लेकर मारने दौड़ती होगी.

सफ़र में हमें चौबीस घन्टे हुआ चाहते थे. अपने सहयात्रियों से ज़्यादा बातचीत तो नहीं हो पाई पर इतना तो घुलमिल गए ही थे कि एक दूसरे की हवाई चप्प्लें बिना पूछे ही इस्तेमाल करने लगे थे.

धीरे-धीरे पूना क़रीब आता जा रहा था. रज्जन बाबू और मैंने कपड़े बदले और जूते पहन लिए. पूना से कुछ पहले एक साहब रेल में चढ़े, उनके पास ओशो की किताबें, सीडी औए कैसेट थे. बातों-बातों में वे यह भी पता कर लेते थे कि आपको पूना में रहने की कोई परेशानी तो नहीं. उनके पास लॉज और होटलों के पते थे. हमें कोई परेशानी नहीं थी. केशव ने उनसे दो सीडी, एक ओशो टाइम्स खरीदी. ट्रेन की रफ़्तार धीमी होने लगी. पूना आ गया था. ट्रेन खड़ी हो गई. हमने ऑटो लिया और विश्रांतवाणी पहुंच गए - चौबे जी की ससुराल.

चौबे जी के ससुराल वाले मूल रूप से बागेश्वर के रहने वाले हैं और पूना में बस गए हैं. परिवार का अपना अच्छा कारोबार है. सीधे-सरल, खाते-पीते सम्पन्न लोग. मां-बाप, बेटा-बहू और पोता-पोती और एक्वेरियम में छप-छप करता एक कछुआ -कुल सात प्राणी. हमारी ख़ूब ख़ातिर-तवाज़ो हुई. चाय-पानी पीने के बाद नीचे उतर कर पार्किंग में उस गाड़ी के दर्शन किए जिसे हमने लिवा ले जाना था. केशव ने गाड़ी को पार्किंग से निकाला और सड़क पर थोड़ा चला कर देखा. सब ठीक था. इतने लम्बे सफ़र को ध्यान में रखकर हाल ही में गाड़ी की सर्विसिंग कराई गई थी. बस ज़रा इंडिकेटर ठीक नहीं था. एकाध कोई और पुर्ज़ा लगाना था. शाम हो चुकी थी. तय हुआ कि कल चलने से पहले इस काम को करवा लेंगे.
हमारे मेज़बानों को महंगी-महंगी गाड़ियां ख़रीदकर पार्किंग में जमा करने का शौक था (अभी भी होगा). उस समय उनकी पार्किंग में दो या तीन चौपहिया अलग-अलग मॉडल और कम्पनी की गाड़ियां खड़ी थीं जो कि न के बराबर चली थीं. एक और गाड़ी शोरूम में तैयार खड़ी थी घर आने को. वह गाड़ी दशहरे के दिन आनी थी. दुपहिया भी थे. इतने सीधे और सरल परिवार का ऐसा सनक मिश्रित शौक देखकर हम बेहद हैरान हुए.

सुबह नाश्ते के वक़्त रज्जन बाबू ने कहा कि मेरे बहनोई आर्मी की मेडिकल कोर में हैं और आजकल रिफ़्रेशमेन्ट कोर्स के लिए यहीं हैं. बहन-बहनोई से मिले बग़ैर चला गया तो बाद में पता चलने पर बुरा मानेंगे. ख़ुद मुझे भी अजीब सा लगेगा. तय हुआ कि पहले उन्हीं से मिला जाए. हम चारों जने उसी गाड़ी में घर से रवाना हुए. चौबे के ससुर जी हमारे गाइड बने. गेट से निकलते ही केशव ने कहा - "पेट्रोल पम्प बताइयेगा, तेल बिल्कुल नहीं है." बाबूजी ने दो-तीन पम्प यह कहकर छोड़ दिए कि नहीं यहां ठीक नहीं. बाकी पम्पों से तेल इसलिए नहीं ले पाए कि बाबूजी ने उनकी सिफ़ारिश तब की जब वे पीछे छूट गए. वन वे ट्रैफ़िक में पीछे नहीं लौट सकते थे. ऐन चौराहे पर गाड़ी ठप्प हो गई. कुछ मिनटों के लिए ट्रैफ़िक का रिद्म टूटा रहा. संयोग से पास ही एक पम्प था, पचास-सौ मीटर गाड़ी धकेलनी पड़ी.

(अगली किस्त में जारी है)

पहली किस्त का लिंक

5 comments:

विजय गौड़ said...

hindi sahitya ki us vipannata ke beech, jo kavita, kahani ya alochana tak aane ke baad aage jate hue hanfne lagti hai, shambhu rana ji ka yah sundar yatra vritant sukhad anubhuti de raha hai. meri aur se dheron badhai lekhak ko aur apka aabhar isko prastut karne ke liye. sch ashok da yadi blog par kahani kavitaon se itar dusri vidhaon ko kendrit kiya ja sake to hindi bhasha ki swakariyta ke liye ek shubh shuruaat ho sakti hai, esa mujhe lagata hai.

sanjay vyas said...

main bhi saath saath chal rahaa hun.

मुनीश ( munish ) said...

mast mahol ! jaari karen agli bhi!!

Arun Arora said...

मजेदार सफ़र बधाई हो धक्का देने के लिये तीन लोग साथ थे :)

mamta said...

रोचक !
पेट्रोल पम्प बाबूजी की पसंद का था या नही । :)