Sunday, March 8, 2009
ले तो आए गांधी का कटोरा, भरोगे क्या..?
देश ने राहत की सांस ली। जीवन भर शराब के खिलाफ उपदेश देने वाले बापू की निजी चीजें एक शराब कारोबारी के जरिये देश को वापस मिल रही हैं। उनका चश्मा, उनकी घड़ी, चप्पल और थाली-कटोरा देश में वापस आ जाएंगे। ये अलग बात है कि किसी को ठीक-ठाक पता नहीं कि ये चीजें देश से बाहर कब गईं और कैसे गईं। ऐसी तमाम चीजें भारत के संग्रहालयों में पहले से हैं, और उनसे देश या देशवासी कैसे प्रेरणा ले रहे हैं, ये शोध का विषय है।
फिर इतना हो-हल्ला क्यों मचा। क्या गांधी के चश्मे से दुनिया देखने की कोई ललक है। क्या उनकी चप्पल में पांव डालकर कोई राजनेता गांव-गांव घूमना चाहता है। या उनकी ठहरी हुई घड़ी में किसी को चाबी भरने की बेकरारी है..या उनके खाली कटोरे को देखकर किसी को ये याद आ गया है कि देश में करोड़ो लोग आज भी दो जून की रोटी से मोहताज हैं। जाहिर है, ऐसा कुछ भी नहीं है। सच्चाई ये है कि आजाद भारत ने अगर सबसे ज्यादा किसी को दगा दिया है तो वो मोहनदास कर्मचंद गांधी हैं। जिन्हें राष्ट्रपिता तो घोषित किया गया पर आजादी मिलते ही उन्हें दरकिनार कर दिया गया। उनकी हत्या के बाद उन्हें एक भारतीय ब्रैंड बतौर अंतरराष्ट्रीय स्तर पर स्थापित करने के चाहे जितने प्रयास हुए हों, उनके रास्ते पर चलने की कोशिश एक दिन भी नहीं की गई।
देश का शायद ही कोई शहर हो जहां महात्मा गांधी के नाम पर सड़क न हो लेकिन उन पर चलकर कोई गांधी तक नहीं पहुंच सकता। उनके नाम पर स्कूल हैं पर वहां गांधी का पाठ नहीं होता और गांधी नामधारी तमाम संस्थाओं की रुचि हरे-हरे नोटों पर मुस्कराते गांधी की तस्वीरों में कहीं ज्यादा है। गांधी की पूरी शख्सियत 2 अक्टूबर के इर्द-गिर्द समेट दी गई। इस दिन राजघाट पर रामधुन बजाकर और चौराहों पर खड़ी प्रतिमाओं पर माला चढ़ाकर पूरा देश गांधी से छुट्टी पा लेता है।
दरअसल, गांधी पिछले दो हजार साल में पैदा होने वाले एकमात्र भारतीय हैं जिन्होंने अपने अजब-गजब विचारों से पूरी दुनिया को प्रभावित किया। महायुद्धों के बीच फंसी दुनिया में गांधी जी ने आजादी के लिए जो अंहिसक सत्याग्रह छेड़ा था, उसने बड़े-बड़े विचारकों को चौंका दिया था। गांधी के रास्ते का मजाक उड़ाने वालों ने भी देखा कि करोड़ों भारतवासी, जो सिर उठाकर चलना भी भूल गए थे, उन्होंने गांधी के एक इशारे पर सरकार और उसकी ताकत के हर प्रतीक को बेमानी बना दिया तो अगले ही पल आंदोलन वापस लेकर चरखा कातने में जुट गए। गांधी जी ने बड़ी लकीर खींचकर जाति, धर्म, संप्रदाय के फर्क को काफी हद तक धुंधला कर दिया।
गांधी जी के विचारों और तरीकों को लेकर तमाम मतभेद हो सकते हैं, लेकिन इसमें शक नहीं कि वे एक ज्यादा सभ्य दुनिया चाहते थे। इसलिए वे बार-बार कहते थे कि वे बहुजन नहीं सर्वजन का हित चाहते हैं ताकि लोकतंत्र के नाम पर 51 फीसदी लोग 49 फीसदी लोगों की इच्छा का गला न घोंट सकें। उन्होंने चेतावनी दी थी कि धरती पर हर मनुष्य की जरूरतों को पूरा करने की शक्ति है लेकिन किसी एक का भी लालच वो पूरा नहीं कर सकती। और हकीकत सामने है। लालच और हवस को तरक्की का मंत्र बताने वाली सभ्यता ने धरती तो छोड़िये, हवा- पानी को भी इस कदर जहरीला बना दिया है कि इस खूबसूरत ग्रह के भविष्य को लेकर शंका होती है।
गांधी जी का मंत्र बड़ा सादा था। उन्होंने भारत के भावी रचनाकारों के सामने बस एक कसौटी रखी थी। कहा था कि कोई भी फैसला करते वक्त सिर्फ ये सोचो कि इसका समाज के सबसे अंतिम आदमी पर क्या असर पड़ेगा। देखने में ये एक सरल बात लगती है लेकिन दरअसल इसके लिए जिस साहस और दृष्टि की जरूरत थी वो ना पं.नेहरू के जमाने में मौजूद थी और न अब है, जब बागडोर सरदार मनमोहन सिंह के हाथ है। नेहरू ने अगर गांधी के ग्राम स्वराज की अवधारणा को अव्यवहारिक मानते हुए भारी उद्योगों, बड़े बांधों और महानगरीय जीवन को महत्व दिया तो मनमोहन सिंह के नेतृत्व में पिछले बीस सालों में विकसित अर्थशास्त्र ने 'संतोष' त्यागकर 'लिप्सा' अपनाने को तरक्की का मूलाधार घोषित किया। यानी औकात से ज्यादा खर्च करो, कमाना सीख जाओगे। इस प्रक्रिया में मनुष्य, मनुष्य न रहे तो क्या!
गांधी जी की विरासत की नीलीमी को लेकर जो लोग राष्ट्रीय शर्म की चीज बता रहे थे, जरा उन्हें बापू की आखिरी वसीयत भी पढ़नी चाहिए। इसमें उन्होंने अपने सपनों के भारत के बारे में लिखा था-" मेरे सपनों का स्वराज्य तो गरीबों का स्वराज्य होगा। जीवन की जिन आवश्यकताओं का उपभोग राजा और अमीर लोग करते हैं, वही उन्हें भी सुलभ होनी चाहिए, इसमें फर्क के लिए स्थान नहीं हो सकता। वह स्वराज्य सबके लिए, सबके कल्याण के लिए होगा। सबकी गिनती में किसान तो आते ही हैं, लूले, लंगड़े, अंधे और भूख से मरने वाले लाखों-करोड़ों मेहनतकश भी अवश्य आते हैं। "
इस वसीयत की रोशनी में जरा कुछ तथ्यों पर गौर फरमाइए। भारत सरकार की आधिकारिक रिपोर्ट के मुताबिक देश की 78 फीसदी आबादी रोजाना 20 रुपये पर गुजर करती है। और स्विस बैंकिंग एसोसिएशन की 2006 की रिपोर्ट के मुताबिक स्विस बैंकों में भारतीयों का 1456 अरब डालर जमा है। करीब 25 हजार ऐसे भारतीय हैं जो इसी लेन-देन के मकसद से नियमित स्विटरलैंड जाते हैं। उधर, ट्रांसपरेंसी इंटरनेशनल की रिपोर्ट है कि 2007 में गरीबी रेखा से नीचे रहने वाले भारतीयों को 900 करोड़ रुपये सरकारी तंत्र को बतौर घूस देना पड़ा। और भ्रष्टाचार के मामले में जारी 180 देशों की सूची में भारत 74वें स्थान पर है। तो ये है वो स्वराज की तस्वीर जो नेहरू से लेकर मनमोहन सिंह के दौर तक बनाई गई।
ऐसे में गांधी जी के सामान की नीलामी पर हल्ला मचाना दोगलेपन के अलावा कुछ नहीं। सच्चाई ये है कि गांधी से किसी को कोई लेना देना नहीं। न समाज को न सरकार को। आखिर समाज गांधी जी को मजबूरी का दूसरा नाम बताता है और उपभोक्तावाद को अर्थतंत्र का ईंधन बताने वाले मनमोहन सिंह (या भारत में बनने वाली किसी भी रंग की सरकार) को गांधी जी के ग्राम स्वराज की अवधारणा से कोई लेना देना नहीं। ये संयोग नहीं कि आक्सफोर्ड युनिवर्सिटी जाकर मनमोहन सिंह अंग्रेजों को इस बात का धन्यवाद भी दे आए कि उन्होंने भारतीयों को अंग्रेजी सिखाई। वे भूल गए कि अंग्रेजी साम्राज्यवाद के खिलाफ अलख जगाते गुजराती भाषी गांधी ने हिंदी को राष्ट्रीय चेतना का महत्वपूर्ण हथियार माना था। बाद में तो यहां तक तक एलान कर दिया था- दुनिया को कह दो कि गांधी को अंग्रेजी नहीं आती। लेकिन साम्राज्यवाद से लड़ने के बजाय सटने में भलाई समझने वाले नए भारत के नियंताओं गांधी की ये बात कैसे याद रहेगी।
इस सबके बीच, आजकल टी.वी स्क्रीन पर छाए एक मोबाइल कंपनी के विज्ञापन पर नजर डालिए जिसमें एक गुंडे से परेशान लड़की मोबाइल एसएमएस के जरिए सर्वे कराती है। सवाल है-गांधी या कमांडो? समाज सर्वसम्मति से तय करता है-कमांडो। इस विज्ञापन को बनाने वालों की साफगोई को सलाम करना चाहिए। उसने समाज के उस भाव को स्वर दिया है जिसके लिए गांधी बेकार हो चुके हैं। जो हर क्षण, हर तरफ कमांडो देखकर ही सुरक्षित महसूस करता है और गाहे-बगाहे लोकतंत्र की जगह सैनिक शासन की वकालत करता है।
पर भारत सरकार इतनी साफगो कहां। वो गांधी की तस्वीर, उनकी चीजों, उनके नाम को राष्ट्रीय प्रतिष्ठा से जोड़ती है लेकिन उनके रास्ते पर चलने को मूर्खता समझती है। यही वजह है कि गांधी जी की चीजों को देश वापस लाने के लिए वो सरकारी खजाने से साढ़े दस करोड़ रुपये खर्च करने को भी तैयार नहीं हुई। ये महान काम किया सुंदरियों से सजे अपने सालाना कैलेंडरों के लिए मशहूर शराब निर्माता विजय माल्या ने। पूरा भारत उनकी देशभक्ति पर निहाल है। वे सच्चे गांधीभक्त निकले। गांधीवादी और उनके नाम पर सजी संस्थाएँ माल्या की जय बोल रही हैं। देश उनकी ये अहसान कभी नहीं उतार पाएगा। सरकार को उन्हें भारतरत्न देने पर विचार करना चाहिए....व्हाट एन आइडिया सर जी!
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11 comments:
कटोरे में भरेंगे
निश्चिंत रहें शराब
नहीं भरेंगे
सिर्फ बीयर भरेंगे
जनाब।
भारत रत्न या फिर पिता की पुरानी चीजें लाने वाला राष्ट्र चाचा! व्हाट एन आइडिया सर जी!
"गांधी जी के सामान की नीलामी पर हल्ला मचाना दोगलेपन के अलावा कुछ नहीं। "
दोगलापन तो अब भारत का चरित्र ही हो गया है। हम दुश्मन से भी प्रेम करने की बात कहते है, LOVE THY NEIGHBOUR का पाठ पढाते है जब कि पडोसी एक आंख नहीं भाता....अनगिनत उदाहरण है हमारे दोगलेपन के!!
विजय माल्या के पास बहुत कुछ है उसमें भरने के लिए।
Absoutely on mark Anshu ! He has so much to fill in that katora which no other 'mai ka laal' could reclaim than him.
Mallya deserves to be nominated the next President of this largest democracy where govt. version says "Hum Mallya ji ke zariye barabar ghatnakram par nazar rakhe rahe".
Mallya ,poularly known as 'Liquor Baron' is not a pseudo at least ! He publicly hugs the choicest beauties of bollywood, splurges money on race-course and openly admits to have bought the Rajya Sabha membership. He shows what he is and is 100 times better than so called Janta ke sevak.Earlier , he brought back the sword of Tipu Sultan. He is one of real "Bharat ma ke laals"!
And to express my gratitude to him , i have decided to drink only UB group produced spirits and fly KINGFISHER only .
जय हो! जय हो!
सिलम के कुत्तों को उनकी औकात बताने वाले हर किसी माई के लाल/नीले/पीले/हरे/तिरंगे/रंगबिरंगे की जय हो. भारत माता की जय हो.
मुनीश भाई, हम तो पहले भी कहते आ रहे थे किंगफ़िशर को राष्ट्रपेय बनाया जाय. अब यह महास्वप्न भी वास्तविकता में जल्द बदलता नज़र आ रहा है.
"दारु तुं नारायणी सब गुणों की खान ।
किन्गफ़िशर कि सुधाकर से मेरा भारत महान ॥
इज्ज्त बचायी बापु की किया हम पर अह्सान।
इक दिन तुं ही दे देगी रोटी कपड़ा ओर मकान ॥"
READ FULL ARTICLE ON MY BLOG www.sharegenius.blogspot.com
Thats how life goes on Asok bhai . No body has ever won against wine ,not even Gandhi ji ! His katora and and all the blah-blah attached to it amply shows that it needs a Mallya to save "items of national pride" from the hammer of an auctioneer!!
Lets not blame Gandhivaadis alone . Do u know everybody busy espousing the cause of Lenin&Marx also gets a kick from lovely spirits brewed in very very Capitalist brewaries. Lets raise a toast to the health of this brave sapoot of ma Bharti .I can not raise toast to his wealth bhai ji choonki log kahenge ke maine us se commission liya hai !
उन्होंने चीज़ें वापस लाकर भारत सरकार को सहारा दे दिया ......वरना सोचो किसी और देश जाती तब क्या क्या बातें होती
देश की हवा में घुली गांधी की प्रायः न महसूस की जाने वाली खुशबू, आंच या भय जैसी कोई चीज साठ साल बाद अब भी सांडों को दो अक्तूबर को चरखा-कातू नौंटकी के लिए, तीस जनवरी को हाथ-पैर सिकोड़ कर राजघाट पर बैठने के लिए, मद्य निषेध विभाग चलाने वाली सरकार और एक रसिक कलवार को एक साथ अपनी चप्पल खरीदने के लिए बाध्य करती है। कुछ को अपनी दुकान जमाने के लिए शैतान की औलाद वगैरा कहने को उकसाती है।......इससे कुछ और नहीं मौलिकता और साहस का जलवा ही साबित होता है।
किसी फिलिम में कवि मितवा-मितवा के बीच में कह गया है...संत कहें, साधू कहें.. सच और साहस होगा जिसमें अंत में जीत उसी की।
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