Monday, March 2, 2009

लंपो...........अरे ओ लम्प्पो...।


लंबो.......ओ लंबो............।

एक आवाज है जो लंबू द लपड़झप्प का पीछा करती है। यह उस दोस्त की आवाज है तो अकाल मौत मारा गया था। उसे लपड़झप्प से बहुत प्यार किया लेकिन लंबू उसका भी नहीं हुआ। कारण यह कि वह नकीले बघीरे की आवाज को असली समझ बैठा था और बघीरे को कुत्ता और कुत्ते को आदमी और आदमी को कुत्ता समझता था।

अनंत से छिटका, किस्से का मेरा वाला हिस्सा प्रयाग के एक सिनेमा हाल से शुरू हुआ था। बिलू फिल्मों की चिप्पी लगाते और पुलिस वालों को हफ्ता देने के बावजूद मुफ्त दिखाते बोर हो चुके उस सिनेमा हाल मालिक के गोदाम में फिर एक बार जनता की बेहद मांग पर, घटी दरों पर रोजाना चार शो शोले चल रही थी। गब्बर ने सांभा एंड कंपनी से पूछा, कितने आदमी थे। किसने भेजा था।

अगली सीट पर से कई आवाजें आई, भैगुना के, भैगुना ने, भतेरे।

उसी दिन तय हो गया था तकि लपड़झप्प चौर्यस्थल को जाएगा। गया भी।

जाड़े के दिन थे। दिल्ली जाकर पहला काम उसने यह किया कि शाल को अपने दोस्त की नकल में (जो विवेकानंद की अमरीका भाषण वाली फोटो की नकल में ऐसा करता था) एक बांह के नीचे से ओढ़ने लगा। यह इस बात का पक्का सबूत था कि वह जन्मजात चमचा है और नकली बघीरे की आवाज को असली समझ बैठा है और हर दिन किसी खास अभिनय शैली के तहत निवृत्त होना उसका शगल हो चुका है।

इसको उसने बाद में कई अवसरों पर या कहना चाहिए कि हर दिन साबित किया। कभी वह अपने पिता की नकल में कनगू निकाल कर संगीतमय गोलियां बनाता, कभी नकली बघीरे की आवाज में फूंक मार कर अमीर लोगों की शादियों के पेट्रोमैक्स जलाता, कभी हड़ीली पसलियों को किसी कृत्रिम डकार में समायोजित कर हाजमोले की गोलियों का विज्ञापन करने लगता था। उसे हर बात के लिए पैसे चइए थे बस। कई लोगों ने समझाया कि लोग तुम्हारी बघीरापंथी को कभी स्वभूसीकरण योजना के तहत काफी चाहते थे इसलिए अब तुम्हें एक बूढ़े बघीरे की गरिमा के साथ अपनी मूंछों वगैरा पर मोम लगाकर शांत घर में रहना चाहिए लेकिन नहीं उसे पुराने नोटों पर रखने के लिए नए नोट चाहिए थे। उसे पता नहीं था कि वह पैसों का क्या करेगा बस हर दिन बघीरे की आवाज निकाल कर पुरानी गड्डी पर नई गड्डी रख देता था। जब नई लद्द से गिरती थी तो वह पुरानी के भद्द रिस्पांस को देख मुदित होता था।

लंबो............ओ लंबो.......। तूने मुझे धोखा क्यों दिया। पैसे की तो मेरे पास भी कमीं नहीं थी। जैसे तेरे बाप मेरे नाना से लिया करते थे तू भी तो ले सकता था। आत्मा पूछती है।

लपड़झप्प ऐसे असुविधाजनक समय में अपना सिर एक खुर वाले पक्षी की तरह नोटों के भूसे में गाड़ दिया करता था और लंबूद्वीप के नागरिकों को स्वभूसीकरण योजना के तहत अभी तक किसी ने नहीं बताया था कि वे, भूसे के बाहर, सबसे प्रमुखता से दिख रहे उसके शरीर के हिस्से का क्या करें।

(जारी कहते हुए मैं पूरी तरह अशोक के अधीन हूं )

5 comments:

मुंहफट said...

झपाझप्प
लपालप्प
लखनवी गपागप्प
क्या खूब
वाह-वाह
यादव जी का
लपड़झप्प!!

जाम सूतो सपासप्प,
काम कूतो हप्प-हप्प,
राम दूतो बाबरी
चुनाव मूतो ठपाठप्प,
क्या खूब
वाह-वाह
यादव जी का
लपड़झप्प!!!
वही तेवर, वही ताजगी जो आखिरी कश तक मजा दे. बधाई.

Ashok Pande said...

भौत स्यानदार बाऊसाब! जमाए रखें! आमीन!!

Ashok Pande said...
This comment has been removed by the author.
अनिल कान्त said...

बहुत ही जानदार और शानदार

मुनीश ( munish ) said...

marmik hai ! at d same time very bitter as well !! only a disillusioned ex-fan of Amit ji could have written it ! Sure Amit ji shouldn't have done all this!