Monday, March 2, 2009

माफिया को कौन जिताता है



गाजीपुर की उसरी चट्टी पर मोख्तार और ब्रजेश सिंह गिरोहों के बीच भिड़ंत हो चुकी थी जिसके बाद मोख्तार ने झूठा दावा किया था कि बिरजेसवा के मार देहलीं। और ब्रजेश सिंह झारखंड या कहीं और अपनी रंगदारी, ठेकेदारी का काम बदस्तूर जारी रखे हुए था।

इस घटना के थोड़े दिन बाद २००२ में विधानसभा का चुनाव आया जिसे बहैसियत बनारस, हिंदुस्तान के घुमंतू संवाददाता मैने कवर किया था।

मऊ में रामकृष्ण भारद्वाज नाम का एक अर्ध पत्रकार, अर्ध फिल्म निर्माता, अर्ध ट्रैवेल एजेंसी संचालक मुझे एक सुबह लेकर मोख्तार के चुनाव कार्यालय गया। कई सुरक्षा चक्रों को पार करने के बाद मोख्तार के दर्शन हुए जो एक गोल्डन कलर की माऊजर गोद में रखे हुए फर्श पर बिछे हुए गद्दे पर बैठे हुए थे। उसे (उन्हें कहने में भी कोई हर्ज नहीं) घेरे हुए समाजवादी पार्टी के कई तपे-तपाए सेकुलर नेता और दूसरी पार्टियों के अगल-बगल जिलों के उम्मीदवार बैठे हुए थे। उनकी मोख्तार भाई से एक ही विनती थी- आप आपन सात सौ छियासी लंबर वाली गड़िया बस एक दिन हमरे कंस्टुएन्सिया में घुमवा देतीं त बस हमार समझी की चुनाव निकल जाइत। मोख्तार भाई थे कि किसी को लाईन देने को ही तैयार नहीं, वे उन तपे-तपाए शाकाहारी आदर्शवादियों को याद दिला रहे थे कि कब किसने मौका पर पिछाड़ी दिखा दी थी।

सात सौ छियासी लंबर वाली गाड़ी में ऐसा क्या है, जिसे देखकर इन नेताओं के लेखे मुसलमान वोट पक्का हो जाता है। सहज सवाल मेरे मन को परेशान करने लगा।

संक्षिप्त बतकही के बाद मोख्तार चुनाव प्रचार के लिए बाहर निकले। गेट के ठीक बाहर कोई तीन सौ किशोर और जवान, टेक वही मोख्तार अंसारी जिन्नाबाद। मोख्तार भाई को जैसे पता था कि यह जिन्नाबाद किसका है। उन्होंने अपनी जैकेट पंख की तरह खोल दी जिसके आगे बेल्ट में माऊजर खुंसी हुई थी, कोई नौ-ग्यारह नौजवान उनकी बांहों में आ गए। उस दिन के लिए बस इतना काफी था और काफिला आगे बढ़ गया, सेकुलर नेता और प्रत्याशी पता नहीं किस दरवाजे से बाहर निकले और अपने चुनाव क्षेत्रों की ओर चले गए।

वह चुनाव भी मोख्तार जीते लेकिन उस रात हुआ यह था कि भाजपा के भाड़े पोस्टर साटने वालों ने एक रेलवे क्रासिंग पर मोख्तार के एक पोस्टर पर अपना पोस्टर साट दिया था और जो लड़के सुबह माऊजर का स्पर्श कर आए थे, उन्होंने उन्हें जमकर कूटा था।

इससे पहले की रात मोख्तार के घर गाजीपुर के बड़का फाटक में अफजाल अंसारी से मिलकर लौटते हुए रास्ते में राम पदारथ मिले। पोरसा भर (साढे छह फीट) का लऊर (लाठी) किसी तरह संभाले मरियल पदारथ भाई गाड़ी के आगे आ गए, अब और पैदल नहीं चलने की शक्ति बची थी। वे भी वहीं से आ रहे थे। बात चली तो बताया कि शाम को गोड़ऊर गांव ( भाजपा विधायक कृष्णानंद राय के घऱ जिनकी हत्या के आरोप में मोख्तार इन दिनों जेल में बंद हैं। ) गए थे वहां अपना दुखडा रोया। दोनों जगहों से तीन सौ और पांच सौ रूपये मिले हैं चुनाव तक की बहार है फिर कौन कहां मिलेगा। वोट किसे देंगे बताया कि आप भी कैसे बुरबक है, यह भी किसी को बताया जाता है। वे आदर्श मतदाता थे।

पंकज की पोस्ट पर अतिशय कम कमेंट देखकर यह लिख रहा हूं। अगर वह इसकी जगह अपने किसी गाने को आई-पाडायमान कर देता या कोई अमूर्त किस्म की किवां साहित्यिक-किवां इन्टेक्लुक्चेलुआना लनतरानी लगा देता तो अब तक हवाहवाहवाह हो रही होती। ब्लाग देखना वाला आदमी मिडिलक्लासाना आदमी ऐसी चीजों से स्विचओवर कर आमतौर पर दिनढूढताहैफिरवहीफुर्सतकेरातदिन के नगमें को गुलजार करने लगता है। माफिया क्यों चुनाव जीतता है, मैं चाहता हूं कबाड़खाने में इस पर बहस चले यही अभीष्ट है। इस पर कबाड़ी अपनी राय नहीं देंगे तो कौन देगा अंततः एक दिन हर माफिया को कबाड़ होकर यहीं आना है। कीमत चाहे जो हो।

पुनश्चः अभी इन्हें अखबार,चैनल माफिया परिवर्तित राजनेता लिख, कह रहे हैं। क्या पता कल यह भी लिख, कह पाना कठिन हो जाए।

6 comments:

Ashok Pande said...

पंकज की पोस्ट पर जिस तरह का रेस्पांस आया वह वाकई अवाक कर देने वाला था. आपका क्षोभ भी उचित है. बहस की तो मैं नहीं जानता लेकिन इस बारे में कुछ अन्य कबाड़ी अपने विचार रखें तो अच्छा रहेगा.

Ek ziddi dhun said...

mafiya nahi hardil ajeej....
ab apna pichhwada pitwane wali public bhi kahti hai ji dabang neta hee kaam kara sakta hai. kai galiyan man mein hain....

Unknown said...

थके-हारे लोगों को सबसे अधिक जरूरत मनोरंजन की है। यह फिर एक बार तय हुआ। मैं अब ब्लाग पर मनोरंजन ही किया करूंगा। खुद से वादा। कां है लिटरेचर की बुढिया अनार कली सलीम कलिकथावायापास पर खड़ा परंमानंद श्रीवास्तव के कन्चों किवां गोलियों से खेल रहा है।

एस. बी. सिंह said...

अनिल भाई ऐसा नहीं की जान बूझ कर सब माफिया उम्मीदवारों को चुनते हैं। जहाँ एक और जाति, धर्म, क्षेत्र और भाई भतीजा, अशिक्षा, गरीबी वोट को प्रभावित करते हैं वहीं एक स्थायी प्रकार की निराशा भी इसको बहुत दूर तक प्रभावित करती है- जीहाँ केवल अनपढों में नहीं हम पढ़े लिखों में भी है यह निराशा और भ्रमभंग। ऐसा नहीं है की देश और जनता को सिर्फ़ माफिया ही लूट रहे हैं। माफिया के लिए तो सिर्फ़ यह परिवर्तन हुआ है की पहले वे परदे के पीछे रहकर सहायक कलाकार की भुमिका निभाते थे अब मुख्या भुमिका में आ गए हैं। देश की लूट में तो गांधीवादी, समाजवादी, साम्यवादी, मंडलवादी, कमंडलवादी और अवसरवादियों की बराबर और बढ़ चढ़ कर भूमिका रही है। तथाकथित महाबुद्धिमान सिविल सेवक और टेक्नोक्रेट ने भी इस लूट के नए प्रतिमान बनाने में महती भूमिका निभायी है। पिछले साथ से अधिक सालों में जनता ने सब को खूब करीब से देखा है। उसी का नतीजा है यह भ्रमभंग।

हम और जनता भी कोई दूध के धुले नहीं हैं बात बस इतनी है की मौका नहीं मिला है। जमीनी हकीकत प्रधानों के चुनाव में दिख जाती है। और सोचिये तो भला अभी भी हर माँ-बाप का सपना बेटे को आई ए एस बनाने का क्यों रहता है- देश और जनता की सेवा वाला जवाब कम्पटीशन मैगजींस में से रटा जाता है वैसे ही जैसे हर विश्व-सुंदरी गरीबों, अनाथों, बीमारों और अन्याय के विरुद्ध कार्य करने का धिसा पिटा उत्तर दोहराती है। वरना सबकी नज़र खजाने की लूट पर ही होती है। सही बात यह है की हम जिसके योग्य हैं वह हमें मिल रहा है।जैसा समाज हमने रचा है वैसे राजनेता पैदा हो रहे हैं। नेता बदलने के लिए जनता को और राजनीति बदलने के लिए समाज को स्वयं को बदलना होगा। रही बात पंकज भाई की पोस्ट पर टिप्पडी न करने की तो भाई दुखते फोडे को और मसलने से क्या फायदा।

मुनीश ( munish ) said...

very unfortunate scenario indeed! march-march to Vodka chal hi sakti hai.

मुनीश ( munish ) said...

very unfortunate scenario indeed! march-march to Vodka chal hi sakti hai.