Friday, April 10, 2009

भाजपा का 'भय हो' और हमारे-आपके लल्लू मामा

कांग्रेस ने ख़रीदा ऑस्कर विजेता 'जय हो' तो भाजपा ने रिकॉर्ड करवा लिया 'भय हो'. जय हो पर दिल्ली की मुख्यमंत्री शीला दीक्षित से लेकर कांग्रेसी कार्यकर्ता तक टीवी पर नाचते दिख रहे हैं. लेकिन भाजपा ने अपने भय हो को इतना दयनीय बना दिया है कि अगर यह गाना टीवी के विज्ञापनों और चुनावी सभाओं में बजता रहा तो ख़ुद लोग उसका मज़ाक उड़ाने लगेंगे

जय हो ऑस्कर विजेता एआर रहमान का ऑस्कर विजेता गाना है. सुना है कांग्रेस ने इसकी बड़ी ऊंची बोली लगाई. लेकिन भाजपा ने भय हो कुछ बच्चों को लोकल ट्रेन में भीख मांगता दिखाकर फिल्मा लिया. खर्च तो इसमें भी आया होगा लेकिन अपनी-अपनी सोच की बात है.

भय हो जिन बच्चों पर फिल्माया गया है वे कहीं से भिखारी नहीं लगते. क्या भाजपा वालों ने कभी भिखारी नहीं देखे! हो सकता है जिन लोगों ने ये फिल्मांकन किया है उन्होंने भिखारी न देखे हों. लेकिन क्या कास्टिंग करने वालों ने भी लोकल के भिखारी नहीं देखे! या भाजपा के प्रचार संचालकों ने भिखारी नहीं देखे? सच है, ऐसी हवा में उड़ने वाली राजनीतिक पार्टियों का जनता से वास्ता ही क्या रह गया है. ये अति पर जाते हैं. एक तरफ 'इंडिया शायनिंग' तो दूसरी तरफ 'इंडिया डिक्लायानिंग.'

आइये देखते हैं गाने के बोल. भय हो दरअसल जय हो की पैरोडी है. लेकिन इस पैरोडी को सुनकर माथा पीटने को जी करता है. फिल्मी पैरोडियों का तो यह पासंग भी नहीं है. भाजपा का यह 'भय हो' सुनकर तो मैं सचमुच भयभीत हो गया. आखिर यह पार्टी मतदाताओं से कहना क्या चाहती है? गाना ख़ुद कहता है कि भय हो मंदी हो, भूख हो वगैरह वगैरह...गाना कहीं से पैरोडी नहीं लगता बल्कि एक धमकी लगता है. गाना धमकाता है कि डरो, गाना जैसे यही मनाता है कि मंदी हो, भय हो, भूख हो! व्यंग्य इस पैरोडी को छू तक नहीं गया.

इस पैरोडी को लिखने वाले से तो अधिक प्रतिभावान थे हमारे लल्लू मामा. वह पंचायत के चुनाव से लेकर संसद के चुनाव तक ऐसी पैरोडियाँ लिखते थे कि बस सुनते रहिये. सरपंची के चुनाव में विरोधी का नाम ले-ले कर उसकी चाल, चरित्र और चेहरे की पैरोडियाँ लिखवाने के लिए उनके घर के सामने लाइन लगती थी. फीस होती थी महकौवा जरदे वाला पान. लल्लू मामा अब नहीं रहे. अगर ज़िंदा होते तो भय हो सुनते और पान की बह आयी पीक 'पिच्च' से थूकते हुए कहते- 'इससे अच्छा तो बड़े भाई अपन बना सकते थे.'

मुझे यकीन है कि आप सुधी पाठक अपने-अपने इलाकों के लल्लू मामाओं को अवश्य याद करेंगे.

6 comments:

मुनीश ( munish ) said...
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Ravi Singh said...

अजी आज का सारा का सारा मीडिया लल्लू मामा हो गया है, लेकिन इनकी फीस महकौवा जरदे वाला पान नहीं है, करारे करारे नोट है!
पैसे फैंको और इनसे कुछ भी लिखवा लो

श्यामल सुमन said...

आनेवाला जय खोलेगा निश्चित भय का द्वार।
हो सरकार किसी की जनता हारेगी एकबार।।

सादर
श्यामल सुमन
09955373288
मुश्किलों से भागने की अपनी फितरत है नहीं।
कोशिशें गर दिल से हो तो जल उठेगी खुद शमां।।
www.manoramsuman.blogspot.com
shyamalsuman@gmail.com

अनुनाद सिंह said...

शुक्र है आपसे नहीं लिखवाया नहीं तो उसकी चर्चा भी करना समय की बर्बादी लगती।

एक और बात ! क्या भिखारियों पर कामरेडों का एकाधिकार या पैटेन्ट है?

Unknown said...

भाई,
इसी बहाने एक बात और। यह रहमान कूड़ा है बस काग्रेस ने हार के भय के कारण इसे इतना मंहगा खरीदा। थोड़ा पहले हुए होते रहमान लक्ष्मी-प्यारे या शंकर-जयकिशन वगैरा के पान ही लाते रहते। धुन ऐसी जैसे सेना युद्ध में जा रही हो लेकिन है ये प्रेम गीत। इस विरोधाभास पर ध्यान दिया है। एनसीसी के लौंडो का गाना है।

विजयशंकर चतुर्वेदी said...

अनिल भाई, सहमत. मैंने कहीं नहीं कहा कि वह कोई अद्वितीय धुन है. हालांकि रहमान इतना बुरा संगीतकार भी नहीं है.