नोबेल पुरुस्कार विजेता पोलिश कवयित्री विस्वावा शिम्बोर्स्का की एक और कविता पेश है आज:
नफ़रत
देखो कितनी सक्षम है यह अब भी
बनाए हुए अपने आप को चाक-चौबन्द -
हमारी शताब्दी की नफ़रत।
किस आसानी से कूद जाती है यह
सबसे ऊंची बाधाओं के परे।
किस तेज़ी से दबोच कर गिरा देती है हमें।
बाकी भावनाओं जैसी नहीं होती यह।
यह युवा भी है और बुज़ुर्ग भी।
यह उन कारणों को जन्म देती है
जो जीवन देते हैं इसे।
जब यह सोती है, स्थाई कभी नहीं होती इसकी नींद
और अनिद्रा इसे अशक्त नहीं बनाती;
अनिद्रा तो इस का भोजन है।
एक या कोई दूसरा धर्म
इसे तैयार करता है - तैनात।
एक पितृभूमि या दूसरी कोई
इसकी मदद कर सकती है - दौड़ने में!
शुरू में न्याय भी करता है अपना काम
जब तक नफ़रत रफ़्तार नहीं पकड़ लेती।
नफ़रत, नफ़रत
एन्द्रिक आनन्द में खिंचा हुआ इसका चेहरा
और बाकी भावनाएं -कितनी कमज़ोर, किस कदर अक्षम।
क्या भाईचारे के लिए जुटी कभी कोई भीड़?
क्या सहानुभूति जीती कभी किसी दौड़ में?
क्या सन्देह से उपज सकता है भीड़ में असन्तोष?
केवल नफ़रत के पास हैं सारे वांछित गुण -
प्रतिभा, कड़ी मेहनत और धैर्य।
क्या ज़िक्र किया जाए इस के रचे गीतों का?
हमारे इतिहास की किताबों में कितने पन्ने जोड़े हैं इस ने?
तमाम शहरों और फ़ुटबाल मैदानों पर
आदमियों से बने कितने गलीचे बिछाए हैं इस ने?
चलें: सामना किया जाए इस का:
यह जानती है सौन्दर्य को कैसे रचा जाए।
आधी रात के आसमान पर आग की शानदार लपट।
गुलाबी सुबहों को बमों के अद्भुत विस्फ़ोट।
आप नकार नहीं सकते खंडहरों को देखकर
उपजने वाली संवेदना को -
न उस अटपटे हास्य को
जो उनके बीच महफ़ूज़ बचे
किसी मजबूत खंभे को देख कर महसूस होता है।
नफ़रत उस्ताद है विरोधाभासों की -
विस्फ़ोट और मरी हुई चुप्पी
लाल खून और सफ़ेद बर्फ़।
और सब से बड़ी बात - यह थकती नहीं
अपने नित्यकर्म से - धूल से सने शिकार के ऊपर
मंडराती किसी ख़लीफ़ा जल्लाद की तरह
हमेशा तैयार रहती है नई चुनौतियों के लिए।
अगर इसे कुछ देर इंतज़ार करना पड़े तो गुरेज़ नहीं करती
लोग कहते हैं नफ़रत अंधी होती है।
अंधी?
छिपे हुए निशानेबाज़ों जैसी
तेज़ इसकी निगाह - और बगैर पलक झपकाए
यह ताकती रहती है भविष्य को
-क्योंकि ऐसा बस यही कर सकती है।
19 comments:
अशोक जी,शिम्बोर्स्का की यह कविता नफरत के भाव की विश्व स्तर पर आलोचना करती है. यह अनुवाद भी अच्छा है कृपया अनुवादक का नाम भी दें. इस कविता को पढते हुए मुझे राजेश जोशी की कविता 'घृणा यूँ तो कोई बहुत अच्छी चीज़ नही होती/फेफडो का बहुत सारा खून पी जाती है घृणा.."याद आ गई. शिम्बोर्स्का की इस कविता मे लेकिन नफरत के द्वारा अतीत के पृष्ठों पर किये गये घावों से रिसता लहू स्पष्ट दिखाई देता है.
and of the record.कल रामकुमार तिवारी जी यहाँ दुर्ग आये थे आपको याद कर रहे थे
भाई शरद जी
अनुवाद नाचीज़ का है. किताब जाने कौन कब छापेगा.
राजेश जोशी की जो कविता आपने उद्धृत की है कभी उसका पोस्टर बनाया था. आपने संदर्भ दिया तो जाहिर है अच्छा लगना था.
रामकुमार जी ने याद किया भला लगा. बहुत सादा आदमी लगे. मगर जीवन से भरे - भरे.
हां. वे जब आये थे दिन भर के भूसीकरण के उपरान्त मेरा व्हिस्की टाइम हो चुका था (यह भी ऑफ़ द रेकॉर्ड). उन्हें पेशकश की तो मेरा काम न बना.
जय हो!
शब-ब-ख़ैर!
नफरत की भावना का ऐसा चित्रण देखकर "कामायनी" याद आ गयी ..!!
कभी लगने लगता है कि नफरत का साम्राज्य प्रेम से बड़ा है। नहीं, पर ऐसा हो नहीं सकता। वरना दुनिया अब तक बिखर जाती।
भले आदमी,
एक बार आपकी चर्चा सुनी थी, बात बहुत सम्मान और अपनेपन से की जा रही थी। तब ध्यान नहीं गया था। यहां पर कई एक पोस्टों को पढ़ लेने के बाद
जानने की इच्छा है कि चॉकलेट व और किन-किन रचनाओं का अनुवाद लेखन आपने किया है। ब्लाग आपकी रचनाओं के बारे में नहीं बताता या हो सकता है कि देखने का शऊर ही मेरे पास न हो।
कविताओं के अनुवाद छपें जरूर छपें पर कोशिश करें कि बनिये न छापें।
प्रकाशक कोई और हो।
चीयर्सचीयर्स!!
जहाँ प्यार है ,नफरत भी वहीँ -कहीं मिलेगी . नफरत से उबरना चाहोगे और प्यार से चिपके रहोगे तो नफरत तो कभी ख़त्म न होगी .! ये दोनों साथ ही चिपके हैं जैसे अँधेरा और उजाला !दोनों के बीच कोई दीवार तो हो सकती है मगर दोनों वहीँ हैं एक साथ ! नफरत से बचने का एक ही उपाय है प्यार से बचो . मसलन मैं पाकिस्तान से नफरत करता हूँ और अगर मुझे इस भाव से मुक्त होना है , संत पद को प्राप्त करना है तो भारत से प्यार छोड़ना पड़ेगा . कोई अगर कहता मिले की उसे भारत से तो प्यार है मगर पकिस्तान से नफरत नहीं तो उस झूठे का कभी विश्वास न करना .मैं अपनी नफरतों और मोहब्बतों दोनों के साथ जीना चाहता हूँ ,चाह कर भी संत नहीं बन सकता कभी . मुझे अपनी नफरतों से मोहब्बत है !
हाय ! इतनी मेघावी नफरत से भी इतनी नफ़रत !!!
और मुनीश जी !
नफ़रत को कोई नहीं छोड़ना चाहता, सब नफ़रत से प्यार करते हैं, लेकिन अपनी-अपनी नफ़रतों से।
इसलिये मसला नफ़रतों के चुनाव मात्र का है।
कृपया मुझसे नफ़रत न करें मुझमें कोई गुण नहीं है।
हम कहाँ के दाना थे, किस हुनर में यकता थे
बेसबब हुआ गालिब दुश्मन आसमां अपना
हाँ कविता बहुत-बहुत अच्छी है, दिल को छूती और दिमाग को छूती। मुनीश जी ने अपनी ओर खींच लिया था।
इस शानदार रचने को पढ़वाने का शुक्रिया.
-Zakir Ali ‘Rajnish’
{ Secretary-TSALIIM & SBAI }
@ प्रीतिश-"मसला नफ़रतों के चुनाव मात्र का है।"
नफरत के बगैर कोई नहीं जी रहा है यहाँ औ' ये मुमकिन भी नहीं ! फिर भी सब प्यार की दुहाई दिए जा रहे हैं सिनेमा में ,साहित्य में ,धर्म के मंचों से ! प्यार --जिसका कोई वजूद नहीं नफरत के बगैर . आधा-अधूरा पाठ पढ़ा कर लोगों का जीना नर्क कर दिया गया है . जिसने नफरत को नहीं जाना वो प्यार क्या करेगा . जिस दिन देशवासी पूरी शिद्दत से, दिल की असीम गहराइयों से ये ये कहेंगे की हाँ हमें नफरत है पाकिस्तान के वजूद से उस दिन नफरत के जज़्बे को एक पोसिटिव फोकस मिलेगा , उसका आउट लेट शिफ्ट होगा ! धर्म, जाति और ज़ुबानों की तमाम दीवारें ढह जायेंगी और जहां तक दिखेंगे वो बस भारत वासी होंगे ..फिर कोई उनके बीच नफरत की कोई और दीवार खड़ी न कर पायेगा . अभी जो हो रहा है वो ये है की हर तीसरे महीने जुतियाये जा रहे हैं और फिर मोमबत्ती जलाने वाघा बॉर्डर पहुँच जाता है कोई न कोई गुट , कौमी मुशाइरे और ग़ज़ल संध्या से उम्मीदें हरी की जाती हैं और फिर जुतियाये जाते हैं ! शत्रु से नफरत निभाना नहीं जानते जिस मुल्क के लोग उन्हें दुनिया भर में जूते रसीद होते हैं ...हो भी रहे हैं !
नफरत के दौर में बना रहे प्यार !
इसे पढने के दौरान ज़बरदस्त घटता है भीतर, जैसे काफी कुछ ढहाते हुए.
घृणा के अग्नि कुण्ड में बहुत कुछ प्रखरता प्रदान करता है लपटों को जो हमें आज भी मरने मारने को उकसाता है. मसलन धर्म,राष्ट्र, जीतने की लिप्सा.
यहाँ इसे वैयक्तिक नफरत से अलग कर देखना चाहिए.
इससे पहले इन्हीं की कविता यहाँ पढी याद आती है " आतंकवादी देखता है ".
कृपया लेबल दें ताकि ढूँढने में आसानी हो.
शुक्रिया.
मुनीश जी !
कविता का फलक व्यापक है। इसे हम अपनी नफरतों तक सीमित नहीं कर सकते। जिसे हम प्यार करते हैं उसे कोई और नफरत कर सकता है और जिससे हम नफरत करते हैं उससे प्यार।
"कविता का फलक व्यापक है।" There is no doubt about it ,but it is useless to discuss a poem in contexts not related to us .
My comments give vent to my idea of love and hate.
मैंने तो जब कविता पढ़ी काफी देर तक डिस्टर्ब रहा. मैं कविता का आलोचक नहीं और हो सकता है कई बार ऐसी बात से परेशान हो जाता हूँ जो कविता के मर्मग्य के लिए साधारण हो. पर सच यही है मुझे इस कविता ने खंगाल कर रख दिया था और एक तरह से मुझे अपनी पड़ताल कर शर्मिंदा भी होना पड़ा. टिप्पणी इसलिए नहीं की थी कि मुझे नहीं लगा कि एक अच्छी पोस्ट पर अपनी नासमझी प्रर्दशित करनी चाहिए...
बहरहाल मुनीश भाई के कमेन्ट से खासी निराशा हुई. जाने कहाँ से वे अपना फलसफा बयान करते हुए पकिस्तान को घसीट लाए. उन्होंने कहा `कोई अगर कहता मिले की उसे भारत से तो प्यार है मगर पकिस्तान से नफरत नहीं तो उस झूठे का कभी विश्वास न करना.` हाँ बहुत से लोगों की राष्ट्रभक्ति का तरीका यही है. यह बहुत से लोगों के लिए वाकई नफरत aur मोहब्बत kee प्रतिबद्धता kee कसौटी hai. लेकिन इस कसौटी को सब पर क्यों थोप देना चाहते ho? यहाँ तो बाकायदा ऐसी खूनी सांस्कृतिक जमातें हैं जो पकिस्तान और मुसलमान से नफरत को आधार बनाकर ही भारतभक्ति का प्रमाणपत्र बांटती हैं. इन जमातों के प्यार की भारत को कितनी सजा भुगतनी पड़ रही है! फिर नफरत पकिस्तान से, वहां के बाशिंदों से या उस फितरत से जो यहाँ भी नासूर बन चुकी hai aur वहां bhee.?
`राष्ट्रभक्त` ये नहीं कहते कि भारत से प्यार के लिए अमेरिका से नफरत जरूरी है jo हमारे संसाधनों ko हड़पे jaa raha है . लेकिन वही बात कि नफरत अमेरिका के नक्शे से, वहां के लोगों से या उस फितरत से जिसने अमेरिका के लोगों को खुदगर्ज बना दिया है और अमेरिका दुनिया भर को लूट लेने पर आमादा है.
@ज़िद्दी--"जाने कहाँ से वे अपना फलसफा बयान करते हुए पाकिस्तान को घसीट लाए. "
पाकिस्तान को कहीं से घसीट कर लाने की क्या ज़रुरत है मेरे भाई! वो तो हर घड़ी मुटिया रहा है अमरीकी पैसे पे . वो विधवाओं की उदासी में हैं , यतीम बचपन में है , अधूरी ई . एम . आई. में है जो घर का मालिक न भर सका चूंकि बम हादसे की भेंट चढ़ गया , दर-ब-दर ठोकरें खाते उसके परिवार में है और हो सकता है वो तुम्हारी जेब में है .! कल जब तुम जाओगे राशन लेने तो दुकानदार रोशनी की तरफ चमका के देखेगा तुम्हारा नोट के कहीं कराची कैंट के छापेखाने के उन करोडों नकली नोटों में से तो नहीं जो पूरे मुल्क में खपाए जा चुके हैं इस अर्थव्यवस्था को तबाह करने के लिए .! सो पाकिस्तान को कहीं से लाने की कोई ज़रुरत नहीं है !!
यही है शिम्र्बोस्का का जादू. जब पढ़ो तब अंदर तक मथ दे. बहुत दिन हो गये थे उन्हें पढ़े हुए. सुंदर अनुवाद है इसमें कोई शक नहीं. शिम्र्बोस्का को सलाम!
अशोक जी, ऐसी शानदार कविता पर मुनीश `जी` का ही बौद्धिक सुनना हो तो, पांचजन्य पढ़ लें बेहतर हो सकता है. ये बात `जी` के बजाय आपको मुखातिब होकर कहना इसलिए उचित लग रहा है कि उनके तर्क (कु) का उत्तर मेरे पास नहीं है. विश्व के महान साहित्य की परम्परा से जुड़े हैं आप, और शिकायत भी आप से ही हो सकती है.
"दिल के फफोले जल उठे सीने की आग से
इस घर को आग लग गयी घर के चराग से "
देखो यार एक तो आप ये बताओ की आपसे तर्क या कुतर्क का जवाब माँगा किसने है ? .....दूसरे ये के ये कबाड़खाना है या पुलीस थाना है जो आप मेरी एफ. आई. आर . लिखाने बैठ गए ? नफरत की मज़म्मत करती एक मशहूर कविता मैंने पढी और नफरत जो नाम मेरे ज़हन में लाती है उसका मैंने ज़िक्र किया ! अब उसमें ये पाञ्चजन्य -फन्य कहाँ से आ गया . अरे एक ऐसे देश के वासी हो जिसका जहाज़ आये महीने सोमालिया के डाकू पकड के बैठ जाते हैं , स्टूडेंट्स के चाकू घोंपे जाते हैं ,बेइज्ज़त किया जाता है , छोटे से मलेशिया सरीखे मुल्क मखौल उड़ा जाते हैं क्यूं ? चूंकि यहाँ के लोग आपस में ही इतने नफरत के मारे हैं के दिखाई नहीं देता की आये दिन जुतियाये जाने से किस कदर लिजलिजी छवि बन चुकी है उनकी . अब मैं यही तो कह रहा हूँ की नफरत ही करनी है तो मिल कर पाकिस्तान से करो ...मोमबत्ती ब्रिगेड से कुछ नहीं होगा . मैं पाकिस्तान को धरती की छाती पे उगा एक फोड़ा कहता हूँ जिसका मवाद रिस- रिस कर पड़ोस को भी ज़हरीला कर रहा है तो तुम्हें भी इसकी बाबत जो कहना है कहो या फिर गिटार बजाओ , ये क्या पाँचवीं के बालकों की तरेह मानीटर से चुगली खा बैठे !
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