आज सुबह से ही ये दो गीत या यों कहें कि एक ही गीत के दो जुदा - जुदा अंदाज बेतरह आ रहे हैं. क्यों याद आ रहे होंगे भला !
सप्ताह भर की छूटी हुई पोस्ट्स पढ़ने बाद लग रहा है कि 'कबाड़खाना' पर विश्वपटल से अनूदित अद्भुत कवितायें पढ़ने और अध्यात्म -ईश्वरादि की बहस - बतकही के बाद अपने तईं उस दुनिया की बात कर ली जाय जो विलुप्ति के कगार पर है. अब जगह - जगह उग रहे मनोरंजन व मौज - मस्ती - मजा के केन्द्रों के बीच अमराई और झूले की बत करना कुछ अटपटा - सा लगता है लेकिन यह भी साफ दिखाई दे रहा है कि हमारी साझी विरासत के यादगार - जीवंत नमूनों के स्थापत्य की मिसाल के रूप में ललित कलायें न हों तो समझ - बूझ - संवेदना का दस्तावेज कहाँ , किस हालत में होता .
खैर .. बहकने को तैयार मन की लगाम को कसते हुए आज सुबह से ही मन और वचन की सतह पर उतरा रहे उन दो गीत को प्रस्तुत कर रहा हूँ जो मेरी पसंद के हैं और यकीनन आपकी पसंद की फेहरिस्त में भी कहीं न कहीं न कहीं अवश्य होंगे .. तो आइए सुनते हैं...
१- झूला किन्नें डाला रे : शाहिदा खान
२- झूला किन्नें डाला रे॥ : नय्यरा नूर
8 comments:
बहुत ही खूबसूरत गीत दो अलग अंदाजों में । वाह दिन बन गया ।
वाह वाह, यहां बारिश हो रही है सुबह से और सावन का समां बंधा हुआ है अलबत्ता जून खोपड़ी पर सवार होने को है.
अभी पहले वाला सुना शाहिदा ख़ान की आवाज़ में. आनन्द आया.
जै हो सिद्धेश्वर बाबा की!
ऑफिस में खाली वक़्त में पढने लिखने का काम भले कर लूँ,पर अमूमन सुनने का काम नहीं ही किया करती...
आज मेरा सौभाग्य था की इस सुन्दर गीत को सुनने का उपक्रम किया....
क्या कहूँ.....पूरे शरीर में रोमांच हो आया...मन प्राण को ऐसे बाँधा इसने की काफी देर तक कोई सुध ही न रही....
आपका कोटिशः आभार,इतने सुरीले गीतों को सुनने का सुअवसर देने केलिए..
भाई, आपने आभारी बना दिया है।
नययरा नूर और शाहिदा दोनों का अंदाज अलग है मगर शब्दों से परे का जो जादू हो सकता है, वह है। क्या अच्छा हो कि आप इनके कुछ और गीत सुनवाएं, सुनवाते चले जाएं।
अभी तो धन्यवाद ले।
कुमार अंबुज
भाई, आपने आभारी बना दिया है।
नययरा नूर और शाहिदा दोनों का अंदाज अलग है मगर शब्दों से परे का जो जादू हो सकता है, वह है। क्या अच्छा हो कि आप इनके कुछ और गीत सुनवाएं, सुनवाते चले जाएं।
अभी तो धन्यवाद ले।
कुमार अंबुज
आज के शोर के बीच ऐसे मधुर गीत बिल्कुल ऐसे ही हैं जैसे तपते सूखे रेगिस्तान में हरा भरा कोई ज़मीनी टुकड़ा या कोई बहता हुआ पानी का झरना. सुनकर पता चला की आषाढ़ का महीना सिर पे है लेकिन झूलों की झूलों की क्या कहें संस्कृति के इस लुप्तकाल में .
Although I prefer the one by Shahida Khan, both are beautiful compositions----very refreshing, very nostalgic. Thanks, Sidheshwer ji.
दादा,
इस प्रस्तुति से मालवा में सावन कुछ पहले आ गया ऐसा लगता है.तर कर दी तबियत आपने.
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