Tuesday, June 9, 2009
चोप्ता का मौसम, बंबई का फैशन
एक चिड़िया है, जिसे मैं नहीं देख पाया। सुबह से शाम तक लगातार कोमल सुर में मुझी से कहती है- तुई...तुइतुइ...तुई....तुइतुइ। इतना अंतरंग बोलती थी कि किसी अपरिचित से नाम पूछने का मन नहीं हुआ।
फिर ठिठुरती चांदनी में केदार के ऊपर सूनी सफेदी याद आती है और अदहन के उबाल खाने के पहले की सनसनाहट जो हर दोपहर ढलने के साथ कनपटी पर महसूस होती थी....यानि अब बारिश होने वाली है। ...और जंगल जहां अब भी तनों पर लाइकेन का मखमल बचा हुआ है। हरा अंधेरा है जिसके निर्जनपन में भय और शांति एक दूसरे के कंधों पर हाथ डाले हर दिन लकड़ी बीनने या घास काटने के लिए जाते हैं।
सेत्ताराम...अगड़धत्त भोले ने बुलाया है। ढेरों साधु थे, किसिम-किसिम के जो बताते थे बेरोजगारी और पारिवारिक कलह समकालीन अध्यात्म की दो सबसे बड़ी मल्टीनेशनल फैक्ट्रियां है। किसी वरदान की आशा में उन्हें बूटी का पता बताते इंटर पास नौजवान थे जो एक सिगरेट की साझेदारी के तुरंत बाद यह पूछ कर असहाय कर देते थे कि सर उधर नीचे मुझे कोई जॉब मिल सकता है क्या?
उनकी ज्यादातर बातें भैणचो के कसैलेपन या अविश्वास के खूंट में बंधी मां कसम से शुरू या खत्म होती थीं...वे बुग्यालों में कुदरत के नखरों पर ध्यान दिए बगैर अपनी गाय, भैंसों के पीछे कोई पचास मीटर ऊपर चढ़ते थे और सुस्ताने के लिए लद्द से ढह पड़ते थे। नीचे सड़क पर दिल्ली, पंजाब, हरियाणा, जयपुर, अहमदाबाद के नंबर प्लेटों वाली प्राइवेट गाड़ियां थीं जिनसे निकले देसी टूरिस्ट बाबू अपने अकड़े पैरों को सीधा करते हुए कांखते थे- वाऊ यहां क्या लाइफ है।
मैं पिछले दस दिन वहीं था। चोप्ता घाटी के दुगलभिट्टा की एक कोठरी में। लिमड़े की सब्जी जिंदगी में पहली बार खाई। देखने में चौलाई और भिंडी जैसा स्वाद। चूल्हे की राख का भभूत पोते मड़ुए की रोटी कोई पंद्रह साल बाद।
मैं अब भी वहीं हूं। जहां मक्कू और ताला के लड़के लड़कियां हाइस्कूल में थर्ड डिवीजन पास होने की खुशी में बधाई देने पर थैंक खू कह कर शरमाए जा रहे हैं। कुछ और देर वहीं रहना चाहता था लेकिन कबाड़खाने के संचालक अशोक ने आज शाम काफी खतरनाक अंदाज में धमकाया इसलिए यह सब लिखना पड़ रहा है।
हां, पूरे दिन में एक बार धारी माता की विनती करती एक बस आती जिस पर लिखा होता था न्यूनतम किराया- पांच रूपए और आपका व्यवहार ही आपका परिचय है। उसमें एक गाना बजता था जिसमें दिल्ली में नई सरकार के गठन का रहस्य छिपा हुआ था-
हाथ न पिलाइ हुसुकि, फूल न पिलाइ रम।
हाथ प्याग निर्दली दिदौन, कच्ची में टरकाया हम।
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16 comments:
टरका तो हमें रहे हो बाबू ...माना के स्कॉच के साथ . मगर ये एक पैग में क्या होगा अनिल भाई? एक ट्रेलर सा दिखला दिया और बस जै राम जी ! ये नहीं चलेगा जनाबे आला ....अशोक भाई से गुज़ारिश की जाती है कि इन्हें लाइन पे लावें , वाइन पिल्वावें और ज़रा और लिख्वावें .
बहुत जबरदस्त ओपनिंग है अनिल भाई! मेरी बात का मान रखने का शुक्रिया.
यह इतना अविस्मरणीय संस्मरण बनने जा रहा है ... मुझे पता है.
आराम आराम से लिखें ... पर नियमितता के साथ. बहुत सारे पाठकों की तरफ़ से आपसे अपील की जाती है कि इसका हश्र रुद्रप्रयाग वाले अधूरे ट्रैवेलॉग का सा न करें.
शानदार ट्रेलर दिया आपने. थैंक खू!
और हां, लिखना भूल गया पिछले कमेन्ट में. सदा की तरह कातिल गद्य!
bahut achha !
umda !
badhaai..............
दुगलबिड्डा, चोप्ता, तुंगनाथ, देवरिया ताल, सीता गाँव, बाँज के जंगलों से होकर गुज़रती लगभग निर्जन सड़क. ये सभी मेरी स्मृतियों में भी पूरी आर्द्रता के साथ मौजूद हैं. अनिल यादव, आपसे परिचय तो नहीं है लेकिन आपका वृत्तांत पढ़कर उस्ताज़ों के शे'र याद आ गए. लिखे गए मीर तक़ी मीर के बारे में लेकिन यहाँ पूरी तरह हस्ब-ए-हाल हैं:
न हुआ पर न हुआ मीर का अंदाज़ नसीब,
ज़ौक यारों ने बहुत ज़ोर ग़ज़ल मे मारा.
और
अपना भी ये अक़ीदा है बक़ौल-ए-नासिख़,
आप बे-बेहरा है, जो मोतक़िद-ए-मीर नहीं.
हसरत साहब को भी जलन सी हुई थी:
शे'र मेरे भी हैं पुरदर्द, वलेकिन हसरत
मीर का शेवा-ए-गुफ़्तार कहाँ से लाऊँ !
ऐसी ही जलन मुझे भी हुई है. कई बरसों बाद हिंदी में कुछ ऐसा पढ़ा जो चमत्कार पैदा करने के लिए नहीं लिखा गया है.
परिचय क्या पूरी मुलाकात है राजेश भाई। यूपी के राजभवन के बरामदे में। आप दिल्ली से शायद आउटलुक के लिए जगदंबिका पाल के अठारह घंटे का मुख्यमंत्री बनने का एडवेंचर कवर करने आए थे। हमने एक-एक सिगरेट फूंकी थी।
हौसला अफजाई के लिए शुक्रिया।
waa kya baat hai
आगे की कहानी का इंतजार है।
बहुतै बढ़िया बाबूजी , चौचक !
this word-collage occupied my mind-space throughout day and i have come to enjoy it again. power-packed prose sans all nonsense . itz brilliant.
अद्भूत ।
थैंक खू
आई हेट टियर्स पुष्पा।
बेअंदाज कर देने वाली तारीफ है। बाइक के हैंडिल में फुंदने लटकाने का बखत आन पहुंचा है।
थैंक खू। बहुत दिन बाद लगा कि तुम्हें देखना आता है।
यहां मेरे कमेंट नहीं स्वीकार किए जाते थे। आज पता नहीं कैसे लग गया। हुर्रा...।
brilliant narration of society alogwith the hillstation
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