Saturday, June 27, 2009

चंद्रकांत देवताले पर वीरेन डंगवाल की एक अपर्याप्त टिप्पणी - भाग १

आम का वह पेड़ भारी नहीं
उसकी कम घनी शाखों पर
फदकता दीख रहा है
कुछ बेडौल सी आवाज़ में बोलता
पहाड़ों का वह पक्षी।
जिधर से वह आया
उधर ही मेरा घर भी था कभी।
एक नदी थी
दीखने में कृशकाय
मगर खूब भरी पानी से


यह कुछ अशालीनता सी भी लग सकती है - किसी अन्य, और बड़े कवि पर बात की शुरुआत ही अपनी कविता से करना, मगर 'पहाड़ों का पक्षी' शीर्षक उपरोक्त कविता कुछ वर्ष पहले इन पंक्तियों के लेखक ने लिखी ही चंद्रकांत देवताले की याद करते हुए थी। मेरी उनसे व्यक्तिगत और घनिष्ठ मुलाकातें ना के बराबर ही थीं। लिहाज़ा यह याद दरअसल उनकी कविताओं की, उनके प्रभाव की याद थी। मेरे तईं यह हिंदी के इस अनूठे कवि की कुल तस्वीर थी - थोड़ा अलग-थलग, अद्वितीय, और सारपूर्ण। उसमें करुणा का दयहीन पाखंड नहीं है, बल्कि आर्द्रता की एक मज़बूत लचीली डोर उसकी कुल रचनात्मकता को बांध कर रखती है। उसे बार-बार पंद्रह बरस के किसी भावुक किशोर की तरह आंसू छलछला आते हैं पर वह गुस्सा-भिंची मुठ्ठी से उन्हें पोंछता हुआ आंखें सुर्ख़ कर लेता है। थोड़ा फिचकुर फेंकता हुआ भी वह नाटकीय या झूठा नहीं लगता। उसका आवेश दरअसल प्रेम का ही एक बदला हुआ चेहरा है जिसे वह कभी स्त्री, कभी प्रकृति के आईने में देखता है, अक्सर समाज, संबंधों, और राजनीति के। परवर्ती कविताओं में तो देवताले आविष्ट से सुस्थिर-शांत होते हुए दिखने लगे हैं, लेकिन उनकी मूलभूत चिंतायें तथा मूल्यबोध, पूर्ववत और टिकाऊ हैं।

यह बात थोड़ा हैरत और अफसोस से भरने वाली है कि चार दशकों की सतत सक्रियता के बावजूद हिंदी कविता में चंद्रकांत देवताले की उपस्थिति को समुचित सम्मान नहीं मिला। यों तो उनका पहला संचयन 'हडि्डयों में छिपा ज्वर´´ 1973 में कवि-आलोचक अशोक वाजपेयी द्वारा संपादित और बहुचर्चित 'पहचान´ सीरीज़ में छपा था लेकिन वह उसके कहीं पहले से उस दौर की लघु पत्रिकाओं में प्रकाशित होते आ रहे थे और अपने काफी नवेले, आक्रामक और एक आहिस्ता अराजक अंदाज़ से ध्यान भी खींच रहे थे '

मुसीबत के वक्त
खुलने वाले उत्तेजित दिनों
और बंद होने वाली
दहशत भरी रातों में
अकेलापन टूट कर
हर जगह सम्मिलित हो गया था
तब जोड़ों के दर्द
और चमड़ी के खुश्क होकर
दरकने के लिये
एक भी क्षण नहीं था
दगाबाज़ों और काटने वालों को भी
हिफाज़त की घड़ी में
विश्वस्त मानते हुए
उनके कंधों पर फिसलता हाथ
दुश्मनी को भूलकर
कैसे अपनेपन की हवा में
भूला हुआ था
तब दीमक और
चूहों के प्रति बेखबर होते जाना
कितना करुण और स्मृति वंचित
नाटक था ...
यह जानते हुए भी
कि यह हाथ
आग तापने को उठा है
हमने तपाक से उसे
अपने हाथों में
कस लिया था
ओज के परदे पर
हिलती हुई गरदनों के
उस दृश्य में
नमक की बात
कितनी फूहड़ होती


('हडि्डयों में छिपा ज्वर´ शीर्षक कविता से अंश)

देवताले की इस, और ऐसी तमाम दूसरी कविताओं में आप आठवें दशक की ज़मीन को पकते हुए देख सकते हैं - बावजूद उस वैयक्तिक स्वर, उस प्रबल 'मैं तत्व´ के - जो उनके सामाजिक अनुभव की भी कसौटी है और उनकी कविता में हमेशा बहुत मुखर है। इस अंतर्विरोध ने देवताले की रचनात्मकता में कई रंग जोड़े हैं।

(जारी)

21 comments:

Unknown said...

varishth kavi chandrakant devtale par viren dangwal ka yah comment bahut saargarbhit, rachanaatmak & anootha hai. yah bataata hai ki viren bade kavi hi nahin, apratim aalochak bhi hain. yah series jaari rahni chaahiye. yah hamaari uplabdhi hogi-----isliye ki abhi tak gadya likhne mein viren ji ki aastha ka izhaar aksar nahin hi hua hai. lekin
yah comment saabit karta hai ki hindi aalochana ke----samkaaleen kavita ke qhaas sandarbh mein -----praayah vipathit ho jaane ke maujooda daur mein sarvashreshth
aalochana vishnu khare, ashok vaajpeyi, mangalesh dabral, viren dangwal, asad zaidi, devi prasad mishra & vyomesh shukla ne hi likhi
hai ya likh sakte hain. kaisa kaavya-nyaay hai ki behtareen & utkrisht kavita ko hi nahin, uski shreshth aalochana ko bhi ye hi kavi mumkin kar rahe hain ya kuchh defensive hokar kahna ho to kahenge ki bachaa rahe hain.
-----pankaj chaturvedi
kanpur

neeraj pasvan said...

ek jugaaDoo kavi ne likh daalaa. ab dekhanaa akademi aut sansthaan puraskaaron ki hod lagaaengi.
jai ho !!

Rangnath Singh said...

अशोक जी ने बहुत सुंदर शुरूवात की है। यह एक सकारात्मक पहल है। एक बड़े कवि पर कोई बात चले और इसकी शुरूआत दूसरे महत्वपूर्ण कवि के द्वारा हो, इससे बेहतर क्या हो सकता है !!
लेकिन, लेकिन,लेकिन
यहाँ की गई शुरूवाती दो टिप्पणीयों को देखकर निराशा हुई। एक ने देवताले जी कविताओं के बजाय टिप्पणी के माध्यम से नेट वर्किंग करने की कोशिश की है। दूसरे साहब ने पहले साहब की टिप्पणी को निशाना बनाते हुए टिप्पणी की है।
इन टिप्पणीयों ने मन बिदका दिया !!!

Rangnath Singh said...

देवताले जी की कुछ पंक्तियाँ जो मुझे बहुत बहुत पसंद हैं -

ऐसे जिंदा रहने से नफरत है मुझे
जिसमें हर कोई आए और मुझे अच्छा कहे
मैं हर किसी की तारीफ करता भटकता रहुँ
मेरे दुश्मन न हों
और मैं इसे अपने हक में बड़ी बात मानूँ

Rangnath Singh said...

हिन्दी साहित्य के किसी खास संदर्भ के कुछ स्वनामधन्य आलोचक....

कालिदास की याद आ गई !!
अभिज्ञान-शाकुंतलम मे शकुतला से अद्वितिय सुंदरी कोई नहीं थी !!
कुमार-संभवम में पार्वती का रूप अप्रतीम था।
कोई कालिदास से सीखे की हर नायिका का अनूठे ढंग से रूप-वर्णन ,जो निश्चय ही काल्पनिक होगा, कैसे किया जाता है !!
स्वनामधन्य आलोचकों ने जिस तरह के ब्लर्ब लिखे हैं वो हिन्दी आलोचना के संगे-मील ही होंगे !!!
वर्तमान की आँच थोड़ी ठंढी हो तो पता चलेगा कि किन किन आलोचकों ने हिन्दी के विकास में क्या योगदान दिया था। एक दूसरे को महान कह कह कर वर्तमान में पूरा कुनबा भले ही महान बन जाए, लेकिन आने वाली पीढ़ीयों को किसी के सिफारिश या निजी जान पहचान की जरूरत नहीं रहेगी इसलिए वो बड़े ही निर्मम ढंग से भूतपूर्व महान लोग का मूल्यांकन करेगी।
हिन्दी साहित्य की सबसे बड़ी समस्या यह है कि कोई एक क्षेत्र में कुछ महत्वपूर्ण काम कर दे तो उसकी बाकि जिंदगी इसी जिद को बढावा देने में गुजरती है कि वह साहित्य के दूसरे क्षेत्रों में भी महान है। खैर, बड़े लोगों की बड़ी बात।
भाषा सामर्थय हो तो कुकरमुत्ता पर भी एक जबरदस्त चीज कैसे लिखी जा सकती है इसे महाकवि निराला ने साबित ही किया है। गणित की पापी पढ़ाई के दिनों में हमने Hence proved लिखना सीखा था। गणित में कुछ समझ में आता था कि hence proved कैसे होता है । हिन्दी साहित्य में यह कैसे होता है कोई बताए तो हम भी लिखा करेंगे कि
Hence Proved

Rangnath Singh said...

लगता है कि अशोक जी को मुनादी करवा के यह पोस्ट देनी चाहिए थी कि इस पोस्ट के केन्द्र में देवताले जी होंगे न कि वीरेन डंगवाल या किसी खास संदर्भ के दूसरे लोग !!
देवताले जी पर वैसे ही कम चर्चा होती है। अगर कोई उम्मीद की किरण दिखी तो लोगों ने उसकी आड़ में दूसरा ही कारोबार शुरू कर दिया।
देवताले जी की कविताएं गर पढ़ी हैं तो आइए उसी पर बात करें, बाकि बातें तो होती ही रहेंगी। वरिष्ठ लोग देवताले जी की किसी कविता या कविताओं पर बात रखें तो हम सब लोग मिल कर उनकी कविता को समझने-बूझने का प्रयास करें

Rangnath Singh said...
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Rangnath Singh said...

वरिष्ठ कवि चंद्रकांत देवताले पर वीरेन डंगवाल का यह कमेंट बहुत सारगर्भ्ति,रचनात्मक और अनूठा है। यह बताता है की वीरेन बड़े कवि ही नहीं अप्रतीम आलोचक भी हैं, यह सीरीज जारी रहनी चाहिए। यह हमारी उपलब्धी होगी।.......इसलिए कि अभी तक गद्य लिखने में वीरेन जी की आस्था का इजहार अक्सर नहीं ही हुआ है।
लेकिन
यह कमेंट साबित करता है कि हिन्दी आलोचना के खास संदर्भ में...........प्रायः विपथित हो जाने के मौजुदा दौर में सर्वश्रेष्ठ आलोचना विष्णु खरे, अशोक वाजपेयी, मंगलेष डबराल,वीरेन डंगवाल,असद जैदी,देवी प्रसाद मिश्र और व्योमेश शुक्ल ने ही लिखी
है या लिख सकते हैं। कैसा काव्य-न्याय है की बेहतरीन और उत्कृष्ट कविता को ही नहीं , उसकी श्रेष्ठ आलोचना को भी ये ही कवि मुमकिन कर रहे हैं या कुछ डिफेंसिव होकर कहना हो तो कहेंगे की बचा रहे हैं।
---- पंकज चतुर्वेदी
कानपुर
नोट-पाठकों की सुविधा के लिए मैंने पंकज जी के लिखे का हिन्दी लिप्यंतरण कर दिया है। जिससे पंकज जी को भी अपना लिखा पढ़ने में सहूलियत हो और पाठकों को भी।
- रंगनाथ

Rangnath Singh said...

यहाँ पंकज जी की अपने घरेलू ब्लॅाग पर की गई टिप्पणी को पाठकों की सहूलियत के लिए पोस्ट कर रहा हूँ। जिससे लोगों को यह तो समझ आए कि बात किस बात पर हो रही है !!
वरना मेरी टिप्पणी पंकज जी की टिप्पणी की तरह बेसिर-पैर की हो जाएगी। लोगों को पता ही नहीं चलेगा कि भई विक्टर इनफैंटे पर बात करते-करते ये अचानक रंगनाथ सिंह कहाँ टपक पड़े ??
कई लोग तो इसी खोज पर अपना सिर धुनते होंगे कि दूसरा ब्लॅाग क्या बला है जिस पर किसी रंगनाथ ने पंकज जी का हृदय आहत कर दिया ??
मैं उनकी टिप्पिणी के उसी हिस्से को पोस्ट कर रहा हूँ जिसका सारोकार हमारी बात से है। उनकी टिप्पिणी का पहला हिस्सा तो कुछ ज्यादा ही दर्दनाक है !! लेकिन क्योंकि वो मुझसे संबंधित नहीं इसलिए उस पर फिर कभी ......
अब उनकी टिप्पणी पढ़िए
........श्री रंग नाथ सिंह ने एक दूसरे ब्लॉग पर मुझ पर "नेट्वर्किंग" का इल्ज़ाम लगाया है ; क्योंकि मैंने वरिष्ठ कवि
चंद्रकांत देवताले की कविता पर वीरेन डंगवाल सरीखे अनूठे कवि के एक शानदार आलोचनात्मक कमेन्ट की सराहना करते हुए उसके सन्दर्भ में कुछ अन्य महत्त्वपूर्ण कवि-आलोचकों की तारीफ़ करने का गुनाह कर डाला है. अगर चीज़ों को इस तरह देखा जाने लगा है, तो मेरे मन में ये तीन सवाल उठते हैं, जिन्हें मैं आपके समक्ष रखता हूँ--------
१---तो क्या blogging का समूचा कारोबार ही इस ख़ास मानी में "नेट्वर्किंग" नहीं है ; जिस ख़ास मानी में मेरे द्वारा की गयी तारीफ़ का पाठ किया गया है ?
२---क्या हम मानवीय सभ्यता के ऐसे दौर में आ गए हैं, जब बक़ौल युवा कवि हेमंत कुकरेती------'यह ऐसा समय है की अगर तुम किसी से कहो की तुम्हारे बारे में सोचते हुए आज की
रात मैं सो नहीं सका, तो हो सकता है की उसे तुम्हारे जागने पर शक हो !'
३---अगर मेरे द्बारा की गयी तारीफ़ इतनी ही बेबुनियाद, अनुचित और संदर्भहीन है ;
तो क्या रंग नाथ सिंह जी बताएँगे की चंद्रकांत देवताले जी की कविता पर हिंदी में श्री विष्णु खरे से
बेहतर और अधिक श्रेष्ठ, मूल्यधर्मी एवं वस्तुनिष्ठ आलोचनात्मक आलेख आज तक कौन लिख पाया है ?
मेरी विनम्र गुज़ारिश है की इन सवालों के जवाब श्री रंग नाथ सिंह के अलावा कोई न दे; क्योंकि मेरा मक़सद अनावश्यक रायता फैलाना हरगिज़ नहीं है ; मैं तो सिर्फ़ अपनी position को
स्पष्ट और परिभाषित करने की चेष्टा कर रहा हूँ ------अपने इस युवा मित्र की ख़ातिर, जिसकी तरह मैं भी कभी युवा था और जिसकी तरह मैंने भी हमेशा साहस को एक वरेण्य मूल्य माना है ; मगर साथ ही यह भी माना है की इतने उत्कृष्ट मूल्य के बेजा इस्तेमाल से उसकी अवज्ञा ही होती है.
---------पंकज चतुर्वेदी
कानपुर

Rangnath Singh said...
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Rangnath Singh said...
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Rangnath Singh said...

पंकज जी ने मुझसे तीन प्रश्न पूछे हैं। उन तीन प्रश्नों का विस्तृत उत्तर देने से पहले मैं पंकज जी से चार प्रश्न पूछना चाहुँगा
1. क्या यह नैतिक था कि मेरी कबाड़खाना पर की गई टिप्पणी का जवाब वो उस ब्लॅाग पर दें जो उनका अपना और उनके मित्रों का ब्लॅाग है ?
2. क्या यह सही नहीं है कि पंकज जी अपनी पहली टिप्पणी के बाद भी कबाड़खाना पर टिप्पणी करते रहे हैं इसके बावजूद उन्होंने अपना एतराज यहाँ नहीं जताया ?
3. क्या यह सही नहीं है कि पंकज जी अनुनाद पर भी एक अति-महत्वपूर्ण पोस्ट को अपने निजी गम को गलत करने का माध्यम बनाया ?
4. क्या यह सही नहीं है कि मैंने कबाड़खाना पर उनकी टिप्पणी के प्रतिरोध में लिखा और अनुनाद पर उन्हीं की लगाई पोस्ट पर एक अति-सकारात्मक टिप्पणी दी।
पंकज जी ने इस बात का नोटिस भी लिया ? जिससे यह तो जाहिर ही था कि मेरी पंकज जी से कोई निजी रंजिश नहीं थी वरना मैं उनकी पोस्ट पर कोई टिप्पणी नहीं करता।

पंकज जी इन प्रश्नों के उत्तर के उत्तर तैयार करें जिससे हमारी बात आगे बढ़ सके। उनकी सुविधा के लिए उनके उठाए प्रश्नों के उत्तर मैं आग दे रहा हूँ।

Rangnath Singh said...

पंकज जी का प्रिय शब्द है “खास“ । वो हर बात के किसी “खास“ मानी, “खास“ संदर्भ या “खास“ अलाय-बलाय में प्रवेश करके वायवीय शब्दों की सुरंग से स्थापनाओं के ऐसे जंगल में निकलते हैं जहाँ वो खुद को ही गुम पाते हैं। उन्हें खुद ही याद नहीं रहता कि उन्होंने पहली बार किस “खास“ मुहाने से इस सुरंग में प्रवेश किया था और इस बार वो किस “खास“ जंगल में निकले हैं। खैर ऐसा होता है। कुछ “खास“ तरह के वैचारिक कोण से हर परिघटना में झांकने वालों के संग यह होता है। कुछ के संग हमेशा होता है, कुछ के संग कभी-कभार.......

उम्मीद है मेरे उत्तरों को इस “खास“ की खस-खस से बचा कर ही पढ़ा जाएगा !

1. पंकज जी की पहली आपत्ती है कि “खास“ अरथों में ब्लॅागिंग क्या है ?
पंकज जी आप को यह जान कर खुशी होगी कि ब्लॅागिग उस “खास“
मानी में नेटवर्किंग ही है जिस “खास“ मानी में आप इसका प्रयोग करते हैं।
आप को आराम-कुर्सी में बैठे-बैठे ब्लॅागिंग के आम मायने समझने हों तो गूगल में सर्च कीजिए और बांचिए की ब्लागिंग का इतिहास क्या है। आपकी फौरी जानकारी के लिए यह बता दूँ कि इराक युद्ध कि दौरान पत्रकारिता में दो फिनामिइनन् बहुत लोकप्रिय हुए, एक इमबेडेड जर्नलिज्म और दूसरा ब्लॅागिंग । जर्नलिज्म जब इमबेड हुआ तो ब्लॅाग ही तारणहार बना और दुनियाभर में लोकप्रिय हुआ। कम्यूनिकेशन थियरी की भाषा में समझना चाहें तो यह समझ लीजिए कि कोई भी कम्यूनिकेशन फीड बैक के बिना पूरा नहीं होता। संचार के अभी तक उपलब्ध सभी माध्यमों में विचारों पर परोक्ष रूप से नियंत्रण उसके स्वामी को होता था। यहाँ तक कि फीड बैक पर भी। सारे मीडियम व्यू और फीड बैक दोनों को रेगुलेट करके अपने पक्ष में प्रोपगैण्डा कर सकता था। इंटरनेट के माध्यम में फीड बैक पर रेगुलेशन रखना कठिन हो गया। यदि कोई ऐसा करता भी है तो उसकी पाॅलिसी छिपी नहीं रहेगी। कौन ब्लाॅग टिप्पणी माडरेशन करता है और कौन नहीं करता है यह पाठक या टिप्पणी कर्ता तुरंत जान लेता है। यहाँ किसी लेकिन किंतु-परंतु का बहाना नहीं चलता। न ही भारी भरकम संसाधन का जोर चलता है। यहाँ कोई नौसिखुआ भी दस रूपए प्रति घण्टा देकर किसी धन्नासेठ पर अपनी राय जाहिर करता है। ज्यादा लंबा-चैड़ा जाने की जरूरत नहीं है। आप इतना ही सोचिए कि ब्लॅागिग न हो तो क्या हमारा यह संवाद संभव होता ?
क्या देवताले के बहाने चंद लाईनो में वर्तमान हिन्दी आलोचना का इतिहास लिखने का आप को स्वर्णिम मौका मिलता ?

Rangnath Singh said...

हाँ,यह जरूर है कि हिन्दी विभाग और हिन्दी बुद्धिजीवी जिन बिमारियों के लिए कुख्यात हैं उन बिमारियों के जीवाणु वो ब्लॅागिंग जगत में लेकर आए हैं। वर्किंग को नेट-वरकिंग बनाने वालों को अपने खास नजरिए के कारण पूरी दुनिया ही नेटवर्किंग के लिए सजा हुआ मंच लगती है।
पंकज जी आप स्वनाम-धन्य लोगों के ब्लॅाग के अतिरिक्त तमाम दूसरों लोगों के भी ब्लॅाग देखा करें जिससे आपको पता चला कि ब्लाॅग की दुनिया में क्या हो रहा है ?
जिससे आपको पता चले कि तमाम लोगों को ब्लॅाग ने आवाज दी है। तमाम मुद्दे जो सफेदपोश लोगों को नागवार गुजरे बड़े ही मुखर ढ़ग से ब्लॅाग के माध्यम से जाहिर हो रहे हैं।

Rangnath Singh said...
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Rangnath Singh said...

आप को लगता है कि मैंने आप की टिप्पणी का कुपाठ किया है।
अब आप को ऐसा लगता है तो आप हम सब को यह बताए कि जब किसी महत्वपूर्ण कवि के कवि-कर्म पर चर्चा चल रही हो तो उस वक्त किस वजह से आपने आलोचना के एतिहासिक पुरूषों की लंबी और असंगत सूची किन कारणों से पेश की। आपने एक शब्द भी देवताले जी की कविता पर चर्चा नहीं कि, न ही विरेन जी की पोस्ट से कोई सहमति असहमति जताई। आपकी टिप्पणी पढ़ कर ऐसा लगता है कि आपको देवताले जी पर चर्चा शुरू होने से ज्यादा खुशी इस बात से मिली कि आप विरेन जी की प्रशस्ति कर सके। जबकि मुझे पूरी उम्मीद है कि विरेन जी को आपकी इस प्रशस्ति से ज्यादा आपके देवताले जी पर कहे दो शब्द अच्छे लगते।
खैर आपने ऐसा नहीं किया। आपकी मंशा तो कुछ और ही थी।
आपकी टिप्पणी को दो अंशो को एक साथ रख कर पढ़ा जाए तो बात ज्यादा साफ होती है
आपने लिखा है कि गद्य लिखने में वीरेन जी की आस्था का इजहार अक्सर नहीं हुआ है.........आगे जाकर आप ने आधुनिक दौर में सर्वश्रेष्ठ आलोचना देने वालों में वीरेन जी का नाम लिया है। आप को क्या लगता है विरेन जी जैसा कवि और सामान्य पाठक आप के इस स्थापत्य को नहीं समझेगा। ऐसा है तो आप गलतीफहमी में है। दूसरों और मुझमें सिर्फ यही फर्क है कि मैंने मुखर हो कर कहा बाकियों ने मौन रूप से मेरे कहे को समर्थन दिया। यहाँ तक कि आप भी अपनी कमजोरी से भली-भाँति परिचित थे वरना आप अपनी आपत्ति कबाड़खाना पर तुरंत दर्ज कराते, न कि अपने यारों की महफिल में बिना किसी संदर्भ-प्रसंग के उसकी चरचा करते।

Rangnath Singh said...
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Rangnath Singh said...

2. आपने दूसरा प्रश्न गजब का पूछा है ? ऐसा लगा जैसे सुकरात प्लेटो से कोई प्रश्न पूछ रहा हो !! आपके शब्द-समुच्चय का पूरा-पूरा अर्थ बूझ पाता तो हार्दिक प्रसन्नता होती।
एक छोटे से मामूली दिखने वाले प्रश्न में मानवीय सभ्यता के दौरे-दौरां को समेटे हुए इस प्रश्न की दार्शनिक उद्दातता कम लोग ही समझ पाएंगे। मेरा अहो भाग्य कि मैं आपके प्रश्न के शाश्वत महत्व को समझ पाया लेकिन अफसोस उसके गुढ़ार्थ को जरा भी नहीं बूझ पाया !
आपके लिखे वाक्य में से कुछ शब्द मेरे जाने-सुने हैं। उन्हीं के आधार पर आपके प्रश्न के स्थूल-अर्थ के अनुसार ही उत्तर दे रहाँ हूँ। इसलिए मेरे उत्तर में वो दार्शनिक उरूज नहीं मिलेगा जिसकी आपको अपेक्षा होगी।

संेटर फॅार रिलिजन एण्ड सिविलिजेशन में शोध-रत होने के बावजूद मुझे सचमुच नहीं पता कि मानवीय सभ्यता में कौन-कौन से दौर आए-गए। मुझे यह भी नहीं पता कि उन सभी दौर का मुख्य लाक्षणिक प्रवृत्ति क्या थी। आप कह रहें हैं वो भी हेमंत कुकरेती की सहादत के साथ तो जरूर कोई खतरनाक हादसा हुआ होगा सभ्यता के इस दौर में ?! वरना ऐसी खतरनाक बात कत्तई नहीं हुई होती।
आपकी बात को प्रत्यक्षम किम् प्रमाणम् के तर्ज पर साबित करती मेरी टिप्पणी को देखने के बाद किसी को भी इस बात पर शक नहीं रहेगा कि, हाँ अब दौर आ गया जिसका तरफ हेमन्त कुकरेती ने इशारा किया था और जिसके पैरों की आहट को किसी रंगनाथ की टिप्पणी में पहली बार पंकज चतुरवेदी ने सुन लिया था !
अहो भाग्य पंकज जी आपकी वजह से मैं भी इतिहास के इस सफे का एक बिन्दु बन सका !!

खैर मुझे स्थूल रूप में मृत जर्मन कवि की एक कविता याद आ रही है। यह कविता उसी संग्रह से दे रहा हूँ जिसमें छपी एक कविता आपके लिए महानतम है। जाहिर है अनुवाद मोहन थपलियाल का है। संगीत की-बोर्ड का है। बोल लिखे हैं बर्वोल्त ब्रख्त ने। अब पेश है आपकी खिदमत में वो कविता...
मुझे भरोसा नहीं तुम्हारी आँखो पर
तुम्हारे कानों पर भी भरोसा नहीं
तुम जिसे अँधेरा कहते हो
वह शायद रोशनी है।

सभ्यता के इस दौर में ही नहीं पिछले दौर में भी एक मृत कवि ने कहा था

कहाँ मयखाने का दरवाजा गालिब और कहाँ वाइज
पर इतना जानते हैं कल वो जाता था कि हम निकले

खुदा के वास्ते परदा, न काबे से उठा जालिम
कहीं ऐसा न हो, याँ भी वही काफिर सनम निकले

पंकज जी अब आप ही बताइए कि लोगों के दिखावे और उनके असली चेहरे में फर्क कम से कम पीछले दो सदियों से तो है ही वरना ये दोनों मृत कवि ऐसी-ऐसी बातें क्यों लिखते ??

खैर, सभ्यता और उसके दौर के बारें में मैं बिल्कुल नहीं जानता इसलिए अपनी वाणी को यहीं विराम देता हूँ।

Rangnath Singh said...

3. पंकज जी आपका तीसरा प्रश्न तो चकित कर देने वाला हैै। आप विश्वास कीजिए कि आपकी टिप्पणी को प्रथम बार रोमन में पढ़ते हुए, दुबारा हिन्दी में उसे टाइप करते हुए और आपकी प्रश्नावली को देखने के बाद बार-बार पढ़ने के बावजूद भी उसमें यह नहीं दिखा कि आप ने कहीं लिखा हो कि, देवताले जी पर विष्णु खरे ने उल्लेखनीय काम किया है। आप हमें बताए कि अपनी टिप्पणी में आपने यह कहाँ लिखा है कि देवताले जी की कविता को समझने में रूचि रखने वालोें को विष्णु खरे को पढना चाहिए। विष्णु खरे ने उन पर श्रेष्ठ, मूल्यधर्मि और वस्तुनिष्ठ आलोचना कर्म किया है।

अगर आप यह सूचना ही अपनी टिप्पणी के माध्यम से दे दी होती तो हम जैसे हिन्दी-विभागों में हिन्दी की शिक्षा पाने से वंचित रहे हिन्दी प्रेमियों की काफी सहायता होती।
इसके उलट आप ने विष्णु खरे को उस भीड़ में खड़ा कर दिया जिसका हिस्सा होने से वो शायद खुद इंकार कर दें। देवताले जी के संद्रभ में बात हो रही थी फिर भी आप ने विष्णु खरे के काम का अलग से उल्लेख करना जरूरी नहीं समझा। इसके उलट आप ने जलेबी जैसी सीधी रेखा खींच कर परस्पर विपरीत ध्रवों को एक सीध में मिला दिया।

यदि आप यह कहना चाहे कि आपकी पूरी टिप्पणी ही देवताले के संदर्भ में थी (जो कि वह कत्तई नहीं थी !)
तो मैं आपसे पूरी विनम्रता से पूछना चाहुँगा कि आप मुझे और अपने सभी पाठकों को अशोक वाजपेयी,मंगलेश डबराल,असद जैदी,देवी प्रसाद मिश्र और व्योमेश शुक्ल की देवताले जी पर किए महत्वपूर्ण आलोचना कर्म से हम सब को अवगत कराए।
उम्मिद है अब आप अपनी पुरानी तर्क पद्धति से यह नहीं पूछेगे कि भूल-गलती पर अशोक वाजपेयी से अच्दी आलोचना किसने लिखी है। याद रखिएगा हम लोग “खास“ तौर पर देवताले जी की बात कर रहे हैं।

Rangnath Singh said...

कुछ प्रश्न जो महत्वपूर्ण हैं ,हालाँकि परीक्षा में पूछे नहीं जाएंगे

पंकज जी आप हम सब को बताएं कि आपके मन में वो कौन सा भय था जिस वजह से आप ने बार-बार मुझे संबोधित करके प्रश्न पूछने के बावजूद विशेष गुजारिश की कि इन प्रश्नों के उत्तर श्री रंगनाथ जी के अलावा कोई न दे।
जब इतनी बार मेरा नाम लेकर प्रश्न पूछा था तो आप को ऐसा क्यों लगा कि मेरे लिए कोई और आपके प्रश्नों के उत्तर देगा। आप के दिए कारण उचित लगे तो मैं भी ऐसी नोटिस अपनी टिप्पणियों के नीचे लगा दिया करूँगा। जिससे मुझे भी सुविधा रहे। आपकी गुजारिश पढ़ने के पहले तो मुझे तो लगता था कि पढ़े लिखों की दुनिया में जिसे संबोधित करके लिखो वही जवाब देता है बाकि कोई बीच में नहीं पड़ता। खैर,

कुछ तो मजबूरियाँ रहीं होंगी।
यूँ ही कोई बेवफा नहीं होता।।

Rangnath Singh said...

पंकज जी आपको इसी वक्त भविष्य के लिए भी आश्वस्त कर देना जरूरी लगा रहा है। इसलिए कुछ गैर-जरूरी व्यक्तिगत बातें।
आप पूरा विश्वास रखें कि आप के सभी प्रश्नों का यथोचित उत्तर मैं ही दूँगा। जिन लोगों को मुझसे व्यक्गित व्यक्तिगत सहानुभूति हो सकती है उसमें से कोई अपवाद ही होगा जो ब्लॅागिंग में सक्रिय होगा। दिल्ली में जब से आया हूँ कोई ऐसा मिला ही नहीं जो मेरे पक्ष को अपनी पक्ष बना ले। जीवन के उन्नीस साल मैंने बनारस में काटे हैं और छह साल काशी हिन्दु विश्वविद्यालय में। जो था वहीं छूट गया है। दिल्ली शहर में मैं भी अकेला, मेरा हर मोर्चा भी अकेले का मोर्चा।

आपने लिखा है आपने साहस को हमेशा ही वरेण्य मूल्य माना है। निश्चय ही आपकी लिखी तमाम पंक्तियों में मुझे यह सर्वाधिक सुंदर और स्तूत्य लगी। अब आप ही देखें कि मैनंे अपने साहस का कहाँ बेजा इस्तेमाल किया है और कहाँ जायज इस्तेमाल किया है।

आपके प्रति-उत्तर का बेसब्री से इंतजार रहेगा। अपनी त्रुटियों को जानने के लिए मैं हमेशा ही अधीर रहता हूँ। इसलिए अभी भी हूँ।