Sunday, June 28, 2009

चंद्रकांत देवताले पर वीरेन डंगवाल की एक अपर्याप्त टिप्पणी - भाग २

(पिछली कड़ी से आगे)

एक मायने में देवताले परिधि के कवि हैं - हाशिये के नहीं, परिधि के। निम्न मध्यम वर्गीय जीवन, रोज़मर्रापन का सौंदर्य, वंचना का प्रतिरोध और सत्ता केंद्रों से भौतिक और आत्मिक दूरी, इन सबके कारण प्रचुर और वैविध्यपूर्ण रचनात्मकता के बावजूद, आलोचना के केंद्रमुखी समुदाय ने परिधि के इस कवि को खास तवज्जो नहीं दी। लगभत समवर्ती धूमिल, और तत्काल अग्रज रघुवीर सहाय की तुलना में देवताले की यह उपेक्षा इसलिये भी थोड़ी अटपटी है क्योंकि उनकी कविता भी स्वातंत्र्योत्तर भारतीय नागरिक और उसके समाज के जीवन की विडंबनाओं का बखान है। इस नागरिक के बाहरी और भीतरी, निजी और सार्वजनिक दोनों ही संसार - एक ही डाल के 'दो सुपर्णों´ की तरह देवताले की कविता में अपने पंख फड़फड़ाते हैं- कभी अलग-अलग, और कभी एक साथ; जैसे यहां 'राहत´ शीर्ष उनकी इस कविता के अंश में

तुम अपनी खड़खड़िया सायकिल पर जाते हो
सोचते हुए आज बसन्त पंचमी है
और केरियर पर रखे कनस्तर में गेहूं उछलते हैं
जब तुम यह सोचते हो- देखो गेहूं के दाने
खनक रहे हैं, तभी तुम पुलिया में घुसने के पहले
देखते हो बांई की तरफ जाती मालगाड़ी
और उसी वक्त पेट्रोल भरी बड़ी गाड़ी से बचते
पुलिया के भीतर दैत्याकार आवाज़ों के बावजूद
अनजानी सी सुरक्षा की सांस लेकर
तुम पाते हो अकस्मात सड़क के बीचोंबीच बैठी दो बच्चियां
गंदे कागज़ों के चिन्दों को खोलकर तहाने में बेखबर
और तुम ट्रक के हार्न और टेम्पो-स्कूटरों की रफ़्तार के बीच
फिर से उन बच्चियों के साथ
बहुत सी चीज़ों की असुरक्षा से घिरने लगते हो...


बम्बई ने अभी मम्बई बनकर अपना लिंग परिवर्तन नहीं कराया है। सायकिल एक शानदार सवारी है। गेहूं पिसाने को केरियर से बंधे कनस्तर में दाने उछल कर खनकते हैं और एक लदी हुई मालगाड़ी महानगर की तरफ़ जा रही है। दिन वसंत पंचमी का है।

और इससे आगे हैं फिर ये पंक्तियां
तभी तुम्हें याद आती है हंसती हुई भद्र महिला
जो गैस के लिए नंबर लगाने वाली लाइन में
ठीक तुम्हारे आगे खड़ी थी और अपने साथ आई लड़की से
पूछ रही थी - तेरी मम्मी ने क्या पकाया आज वसंत पंचमी के दिन


कैसा विलक्षण वृतांत है! इस घरेलू लगती तफसील से आप जैसे ही फारिग होते हैं, चक्की में पिसता हुआ गेहूं एक दूसरी ही मालगाड़ी पर लादकर आपको कहीं और पहुंचा देता है

और चक्की गेहूं को आटे में तब्दील करते हुए
तुम्हें कहीं दूर पहुंचा देती है
जहां तुम सोचते हो कोई अदृश्य और विराट चक्की
तुम्हारे साथ भी ऐसा ही सलूक कर रही है
पर 'शब्दों से रोटी जैसी महक´ सोचते हुए
तुम उसी आवाज़ में अपने ही भीतर कुछ सुनने लगते हो
मित्रवत् जिससे तुम्हारे चेहरे पर आत्मीयता झलकने लगती है


तो यह है चंद्रकांत देवताले का तरीका - वसंत पंचमी के दिन, सायकिल पर गेहूं की चक्की के रास्ते, उस दूसरी अदृश्य चक्की तक ले जाना जो अनवरत हम सबका कचूमर निकालने के काम में लगी है, और इस जाने के क्रम में ही विराट दरिद्रता, मानवीय प्रेम और मैत्री का संधान भी कर लेना। इस नागरिक का प्रेम, उल्लास, क्रोध, आवेश, उसकी उग्र आदिवासियों जैसी प्रतिरोध रत चीख पुकार और बुखार भरी बर्राहटें, उसके आंसू - ये सब देवताले की कविता में स्पंदित होते हैं। यह कविता एक साथ बहिर्मुखी और अंतर्मुखी, सपाट और जटिल है। गो कि उसके पास मुक्तिबोध का नक्शा, उसकी भविष्य दृष्टि और निर्भ्रान्त विचारधारात्मक ज़मीन नहीं है पर यह कविता दौड़ती काफी आगे तक मुक्तिबोध की ही राह पर है क्योंकि वह अपने आंतरिक वर्गगत विवेक से मनुष्यता के शत्रुओं को पहचानती है। यह बात जरूर है कि कवि कई बार भाषा का 'ओवरयूज़´ करता लगता है - मसलन 'भूखंड तप रहा है´ शीर्षक लंबी और महत्वाकांक्षी कविता में , या 'आग हर चीज में बताई गई थी´ में संकलित 'हाइ पावर नंगे बस्तर को कपड़े पहनाएगा´ और 'सबसे जरूरी काम´ शीर्षक कविताओं में। कई जगह पूरी कविता ही 'क्लीशे´ तथा सामान्यीकरणों पर टिकी रहती है। 'थोड़े से बच्चे और बाकी बच्चे´ या 'प्राथमिक स्कूल´ सरीखी लोकप्रिय कवितायें, या 'एक नीबू के पीछे´ जैसी अभी तक असंकलित परवर्ती कविता इसके सटीक उदाहरण हैं। मगर यह गौरतलब है कि कवि की आवाज़ का सच्चापन भाषिक अतिरेक अथवा विषय की फार्मूलाबद्धता को भी ऊपर उठा लेता है। जैसा कि सुधी कवि और आलोचक विष्णु खरे भी जोर देकर कहते आए हैं, इस रूप में देवताले एक प्रतिबद्ध और राजनैतिक कवि हैं। यहां यह उल्लेख वाजिब रहेगा कि आलोचक समुदाय की विचित्र चुप्पी के बरक्स, पिछले कई दशकों से विष्णु खरे अपने इस कवि-मित्र की रचनात्मकता को रेखांकित करने में लगे रहे हैं। आखिर अब जाकर उनकी कोशिशें रंग लाती दिखाई दे रही हैं।

-वीरेन डंगवाल

(अगली कड़ी में समाप्य)

3 comments:

Rangnath Singh said...

देवताले जी का प्रतिनिधी संग्रह(संवाद प्रकाशन) की समीक्षा करते वक्त पहली बार इस कवि को लेकर एक समग्र दृष्टि बनाने का मौका मिला। कवि की कविताओं ने मुझ पर वैसा ही असर किया जैसा कि आम तौर पर किसी बड़े कवि की कविताएं करती हैं। मैंने अपने कई मित्रों को उनको पढ़ने की सलाह दी। कुछ ने उन्हें पढ़कर अपनी प्रतिक्रिया दी। प्रतिक्रियाएं मेरी अपेक्षा के अनुरूप नहीं रहीं। जाहिर है कि मेरी अपेक्षाएं बहुत ऊँची थीं। मुझे पूरा विश्वास था कि देवताले एक बड़े कवि हैं। हिन्दी जगत उन्हें इसी रूप में जानता भी है। फिर भी क्या कारण है कि उन्हें रघुवीर सहाय या धूमिल जितनी लोकप्रियता नहीं मिली। मामला सिर्फ आलोचकीय देखी-अनदेखी का हो ऐसा भी नहीं लगा। इस संदर्भ में ऐतिहासिक तथ्य क्या हैं यह तो उस पीढ़ी में सक्रिय रहे लेखक ही बता सकते है। जिन बातों से साहित्य या किसी अन्य विषय की वस्तुस्थिति तय होती हैं उन्हें हिन्दी साहित्य के इतिहास या दूसरे या तीसरे इतिहास में जगह नहीं मिलती। सो उसके बारे में अगली पीढ़ी अनभिज्ञ ही रहती है। अपनी इन सीमाओं को देखते हुए देवताले जी के कम-चर्चित होने के लिए जिम्मेदारों,साहित्य की भीतरी राजनीति के इतर, कारणों पर विचार करने की कोशिश की।
मुझे लगा कि किसी कवि की कविता में गेयता का उसके पाठकीय आस्वाद पर गहरा असर पड़ता है। निश्चय ही रधुवीर और धुमिल में बौद्धिक गुढ़ार्थों के अतिरिक्त पद्य की गेयता अपने अन्य समकालिनों की तुलना में ज्यादा है। आलोचकों को भी ऐसे कवि ज्यादा पसंद आते हैं जो अर्थ उदघाटन की संभावनाओं के साथ ही लोकप्रिय होने के लिए आवश्यक गेयता भी रखते हों। हालाँकि इन कवियों को अपनी लोकप्रियता इन आलोचकों की मोहताज नहीं होती। लेकिन इन कवियों पर लिखे लेखों से उन आलोचकों को पर्याप्त लोकप्रियता मिलती है। इन आलोचकों को मध्यम मार्ग ही सुहाता है। बच्चन,नीरज,शंभुनाथ सिंह के बरक्स ये कवि ज्यादा अर्थवान ठहरते हैं। अन्य दूसरे अर्थवान कवियों की तुलना में धुमिल,रघुवीर इत्यादि की पठनीयता बीस ठहरती है। मुक्तिबोध के भी वही काव्यांश ज्यादा चर्चित हैं जिनमें पर्याप्त पठनीयता है। धूमिल ता निश्चय ही आने काव्य-गुण के बनिस्बत अपने साहस के लिए लोकप्रिय है। उनकी कविताओं का सपाटपन काला को काला और सफेद को सफेद कहने के उनके औदात्यपूर्ण साहस के आलोक में सहनीय बन जाता है। धूमिल पर किसी घटना-परिघटना की तीव्र प्रतिक्रिया होती है। उस प्रतिक्रिया को कविता में ढलते देर नहीं लगती, “बाबूजी मेरी नजर में हर आदमी एक जोड़ी जुता है !“
वहीं देवताले में हर घटना-परिघटना एक अनुभव हो कर उतरती है। देवताले के कविता में वह फौरी प्रतिक्रिया से उपजा ओज नहीं दिखता बल्कि उसके बरक्स लिए गए ठोस निर्णय की स्वर उभरता है, “मेरे हक में यही अच्छा रहा कि/ गुस्से और आग ने कभी मेरा साथ नहीं छोड़ा !“
गुस्सा दोनों कवियों में है लेकिन एक में बहिर्मुखी है तो दूसरे में अन्तर्मुखी। मुखरता स्थाईत्व के बरक्स ज्यादा लोकप्रिय होती है यह बात कहने की नहीं है। देवताले को पढ़ने के लिए और बूझने के लिए औसत से ज्यादा पाठकीय सब्र की जरूरत होती है। जिसका आम पाठक और पाठक केन्द्रित आलोचकों में अभाव होता है। देवताले को कविता रसिकों में जो महत्व मिलेगा वह महत्व आम पाठकों में मिले महत्च से बहुत ज्यादा होगा। पाब्लो नेरूदा ने जिंदगी भर कविताएं लिखीं लेकिन जो महत्व उनकी पहले कविता संग्रह को मिला वह महत्व बाद की किताबों को नहीं मिला। इसी कारण उनकी चर्चा भी सबसे ज्यादा होती है।
देवताले की कूड़ा बीनते बाकी बच्चे,बालम ककड़ी बेचने वाली लड़कियाँ,लकड़बघ्घा हँस रहा है जैसी तमाम कविताओं अपने कवित्व और अर्थ-संभावनाओं से देवताले को बड़े कवि के रूप में स्थापित करती हैं। स्त्री को लेकर लिखी उनकी कविताएं अपनेे तई इतनी मौलिक हैं कि उनके मुकाबले की कविताएं कम ही आईं हैं। उनकी कविताओं की स्त्री की सबसे बड़ी खूबी है कि वो वास्तविक है न कि किसी कवि-कल्पना और उन्मुक्त-चिंतन के एकांत क्षणों की संकर कन्या !!
जब से डंगवाल जी की पहली पोस्ट पढ़ी है तब से देवताले जी को कविता संग्रह किसने उड़ा लिया यह सोचते सोचते थक गया हूँ। मेरी फ्रैक्चर्ड मेमोरी में पूरी-पूरी कविताएं याद नहीं रहती इसलिए ज्यादा विस्तार से बात करना संभव नहीं हो पाएगा। वह किताब मिली ओर अवसर आया तो एक बार फिर देवताले जी पर कुछ लिखने की कोशिश की जाएगी।

Rangnath Singh said...

विनम्रतापूर्वक कहना चाहुँगा कि देवताले जी जैसे कवि की कविताओं पर आलोचना लिखते वक्त आलोचक भूल जाते हैं कि वो हिन्दी साहित्य के लिए लिख रहे है न कि अर्थशास्त्र के लिए। जिन कविताओं को सरल व्याख्याओं से खोला जा सकता है उनके लिए वाग्जाल बुनकर पाठकों के मन में अपने पांडित्य का प्रभाव छोड़ना छोड़ ढंग से कुछ लिखें तो कवि को उचित स्नेह और सम्मान मिलेगा। गणित के सूत्रों जैसे जटिल संरचना वाले वाक्य-विन्यास में लिखी आलोचना मच्छर भगाने की मशीन सरीखी हैं जो पाठकों के बिदकाने में काम में आती हैं। आलोचना कोई थियरी आॅफ रिलेटीविटी तो है नहीं है कि जिसे लिखने वाले के अतिरिक्त दुनिया में सिर्फ आठ लोग समझे और फिर भी लिखने वाला महान माना जाए !!
भौतिकी और मानविकी में कुछ अंतर बना रहे तो ही अच्छा .........

शरद कोकास said...

रंगनाथ सिन्ह का गुस्सा जायज है. देवताले जी की बहुत सारी कविताओं की तो चर्चा ही नहीं हुई.जैसे उनकी लम्बी कविता भूखंड तप रहा है .मेरी लम्बी कविता पुरातत्ववेत्ता पर चर्चा करते हुए एक बार उन्होने इसका जिक्र किया था. लेकिन देवताले जी इस तरह की आलोचना को लेकर बिलकुल भी चिंतित नहीं हैं. वे जिस तरह से रचना कर्म में लगे है और हर बार नये पाठ की तलाश में हैं उससे यह तो तय है कि वे अत्यंत सरल विषयों पर और अपने परिचित परिवेश पर अत्यंत धीर गम्भीर होकर रचना कर रहे है. लोकप्रियता के अलग मापदंड है. उनके साथ 2-3 बार कविता पाठ का अवसर मिला है . पहल सम्मान कोल्काता मे उन्होने नीबू वाली कविता का पाठ किया था जिन्हे लगता है कि वे लोकप्रिय नही हैं वे यदि उस समय का दृश्य देखते तो अवाक होकर देखते रहते .स्त्री और प्रेम पर लिखी उनकी कवितायें अद्भुत हैं .मैने इस पर अलग से एक लेख लिखा है.बहर हल अभी इतना ही अगली किश्त के बाद कुछ और बात करेंगे.