Tuesday, June 23, 2009
हमें करूणा ही बचा सकती है इस भयावह समय में
लगभग संशय के स्वरों में
मुझे
ख़ामोश करती हुई वह बोली
'वह ज़रूर हमारी बातें सुन रहा है
उसके मन में उतरती है एक-एक बात
वह बहुत चालाक है'
मैंने उसे आश्वस्त किया
उससे कुछ मत छिपाओ
वह सब जानता है वहाँ
होगा प्रविष्ट एक दिन
मेरी तरह यह भी
औरत की दुनिया में
पाग़ल होगा
धूप और संगीत के लिए
रोज़ एक नई दुनिया
बनाता हुआ
यह एक ऐसा कवि है जो एक मां के लिए कविताएं लिखते हुए औरत की दुनिया में एक बच्चे के जरिये शामिल होता है। वह जानता है कि सिर्फ औरत ही इस दुनिया को सुंदर और जीने लायक बनाती है। सपने देखने और गीत गाने लायक बनाती है। इस कवि की तरह ही किलकारियां भरता वह बच्चा औरत की दुनिया में शामिल होगा, धूप और संगीत के लिए पागल होता हुआ रोज एक नईदुनिया बनाएगा। वह नईदुनिया जहां खिलते फूल और मुस्कुराते खिलौने होंगे। हरी पन्नी से दिखाई देती हरी दुनिया होगी, हरा आसमान होगा और गुलाबी पन्नी लगाकर दिखाई देती गुलाबी दुनिया होगी। जाहिर है यह दुनिया को देखने का एक भोला और निर्दोष तरीका है और इसमें वह गहरी इच्छा भी शामिल है कि दुनिया को इसी तरह से सुंदर होना चाहिए। ये हैं समकालीन हिंदी कविता के महत्वपूर्ण कवि नरेंद्र जैन जिन्होंने एक बच्चे तीता के लिए कविताएं लिखीं और इसी शीर्षक से उनका संग्रह भी प्रकाशित हुआ था। इसीलिए वे बातचीत में कहते हैं कि यदि मुझे बुद्धिजीवियों और बच्चों में किसी के साथ रहना चुनना पड़े तो मैं बच्चों के साथ रहना पसंद करूंगा। मैं जुनून की हद तक उनकी दुनिया में रहता हूं और मुझे लगता है कि मैं बच्चों पर कविताएं लिखते हुए ही दुनिया-जहान के बारे में लिखता हूं। कहने की जरूरत नहीं कि बच्चे हमारी जिंदगी का अभिन्न हिस्सा हैं। वे श्रीकांत जोशी स्मृति समारोह में अपने एकल काव्य पाठ के सिलसिले में इंदौर आए थे।
वे मानते हैं कि इस भयावह समय में हमें करूणा ही बचा सकती है। और यह करूणा स्त्रियों और बच्चों में अविरल-अकुंठित बहती रहती है।वे कहते हैं इसीलिए मैं इनके जरिये करूणा को कविता में अभिव्यक्त करता हूं। हमारे समय के कई बड़े कवियों ने करूणा को ही तमाम अत्याचार के खिलाफ प्रतिरोध की ताकत में बदला है। आप स्त्रियों और बच्चों पर कविता लिखते हुए भी बड़ी राजनीतिक कविताएं लिख सकते हैं। इन पर लिखी गई कविताओं में बहती करूणा गहरी और सूझबूझ भरी राजनीतिक टिप्पणियां होती हैं। कई बार ये कविताएं किसी भी पोस्टर और नारेबाजी वाली कविता से ज्यादा सार्थक और कारगर होती है। हम यह जानते हैं कि हिंदी में कई कवियों ने कविता को पोस्टरों और नारे में तब्दील कर दिया था। हालांकि एक खास समय में उस कविता की अपनी सार्थक भूमिका भी रही है। धूमिल से लेकर आलोकधन्वा तक ने इस तरह की कविताएं लिखी हैं और वे बहुत महत्वपूर्ण कविताएं हैं लेकिन मैं समझता हूं वे कविताएं ज्यादा गहरी हैं जो अपने अंडर करंट में गहरे राजनीतिक आशयों वाली कविताएं हैं। आप किसी स्वप्न, स्त्री और बच्चे पर कविता लिखते हुए भी बेहतर राजनीतिक कविताएं लिख सकते हैं लेकिन इसके अपने खतरे हैं। यह सब करते हुए कवि सचेत नहीं हुआ तो हो सकता है उसकी कविता गलत दिशा में जाकर अमूर्त हो जाए।
हिंदी कविता से दूर होते पाठकों के सवाल पर वे कहते हैं कि इसका एक बड़ा कारण गद्य कविता है। गद्य कविता के नाम पर कुछ कवियों ने ऐसी कविताएं लिखी हैं कि वे वास्तव में समझ में नहीं आती। सिर्फ एक फैशन या ट्रेंड के नाम पर खूब गद्य कविताएं लिखी गईं जिनमें कम कविताएं अच्छी हैं। कई बार ये इतनी अमूर्त होती हैं कि शिल्प का चमत्कार भर लगती हैं। वे क्या कहना चाहती हैं, यह साफ नहीं हो पाता। मिसाल के तौर पर उदयन वाजपेयी या गगन गिल की कुछ इसी तरह की कविताएं मुझे कतई समझ नहीं आती जबकि इन्होंने दूसरी अच्छी कविताएं लिखी हैं। मंगलेश डबराल ने भी गद्य कविताएं लिखी हैं लेकिन देखिए वे अपनी सादगी और मारकता में कितनी संप्रेषणीय हैं। विष्णु खरे की क्रिकेट पर लिखी कविताएं मुझे अच्छी नहीं लगी थीं। यह कतई जरूरी नहीं कि नए विषयों पर लिखी गई कविताएं अच्छी ही हों। विष्णुजी की क्रिकेट पर लिखी गई कविताओं पर तो मैंने लिखा भी था। यह बात उन्हें इतनी चुभ गई और याद रह गई कि जब मुझे और उनको रघुवीर सहाय पुरस्कार साथ-साथ दिया गया तो मंच पर ही उन्होंने मेरी उस आलोचना का उल्लेख करते हुए कहा था कि आप क्रिकेट का जादू नहीं जानते लेकिन मैं अब भी अपनी राय पर कायम हूं। दूसरे छोर पर ऐसे भी कवि भी हैं जिन्होंने ढेर सारी खराब छंदबद्ध कविताएं लिखीं जो सुनने में तो अच्छी लगती हैं मगर उसका कंटेंट बहुत ही कमजोर होता है। इस तरह की कविता ने भी पाठकों को दूर किया है और अच्छी कविता का नुकसान। अच्छी कविता अपने रूप और कथ्य के जरिये ही पाठकों को प्रभावित कर सकती है। मुझे मंगलेश डबराल, असद जैदी, मनमोहन और सौमित्र मोहन की कविताएं बहुत अच्छी लगती हैं। इधर सौमित्र मोहन तो बेहतरीन फोटोग्राफी कर रहे हैं और एक फोटोग्राफर के रूप में भी जाने-पहचाने जाते हैं।
नाम लिए बिना नए कवियों पर टिप्पणी करते हुए वे कहते हैं कि पहली नजर में तो उनकी कविताएं फ्रैश और शॉर्प दिखाई देती हैं लेकिन इसे वे बरकरार रख पाएंगे, इसमें संदेह है। मेरी कई नए कवियों से बात होती है। वे पुराने लेखकों को पढ़ते ही नहीं। मैंने एक युवा कवि से पूछा कि आपने काफ्का या नीत्शे को पढ़ा है तो उनका कहना था- नहीं। कुछ नए कवि तो मानते हैं कि इन्हें पढ़ने की वे जरूरत ही नहीं महसूस करते। यह तो छोड़िए, उनकी अच्छे संगीत, अच्छी चित्रकला और अच्छे सिनेमा में भी खास दिलचस्पी नहीं है। मैं मानता हूं कि अच्छी कविता-कहानी या उपन्यास लिखने के लिए अच्छी चित्रकारी, अच्छा संगीत और अच्छा सिनेमा देखना-सुनना भी जरूरी है। ये कहीं ने कहीं आपको समृद्ध ही करते हैं।
अपने अनुवाद कर्म के बारे में वे कहते हैं कि मैं विश्व कविता से अनुवाद के लिए उन कवियों की कविताओं को चुनता हूं जो हिंदी में या तो नहीं पढ़े गए हैं या कम पढ़े गए हैं। इसीलिए मैंने डेनिस ब्रूट्स (जिम्बाब्वे), कोबस मूलमैन (दक्षिण अफ्रीका), डेविड श्मेट (दक्षिण अफ्रीका ), फालूदी जॉर्ज (हंगरी) और शेल सिल्वरस्टिन (अमेरिका) जैसे कवियों के अनुवाद किए हैं। उनके ये सारे अनुवाद हाल ही में मासिक पत्रिका रचना समय में प्रकाशित हुए हैं। उन्होंने इन कवियों के अलावा बर्तोल्ट ब्रेख्त (जर्मनी), नाजिम हिकमत (तुर्की), पाब्लो नेरूदा (चिली), आक्तोवियो पाज (मैक्सिको) और गैब्रिएला मिस्त्राल (चिली) की कविताओं के अनुवाद भी किए हैं। उन्हें रघुवीर सहाय स्मृति पुरस्कार, गिरिरजाकुमार माथुर पुरस्कार, विजयदेव नारायण साही पुरस्कार, अश्क सम्मान, शमशेर सम्मान, वागीश्वरी पुरस्कार मिल चुके हैं। उनके रेखांकनों की एक प्रदर्शनी भी लग चुकी है।
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नरेन्द्र जैन
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6 comments:
नरेन्द्र जैन जी के बारे में जानकर और उनका साहित्य के प्रति समर्पण देखकर प्रसन्नता हुई।
-Zakir Ali ‘Rajnish’
{ Secretary-TSALIIM & SBAI }
नरेन्द्र जैन जी के बारे में जानकर और उनका साहित्य के प्रति समर्पण देखकर प्रसन्नता हुई।
-Zakir Ali ‘Rajnish’
{ Secretary-TSALIIM & SBAI }
रवींद्र भाई, नरेन्द्र जैन अक्सर बोलते दिखाई नहीं देते लेकिन बोले तो बेहद बेबाकी के साथ. जहाँ तक स्त्रियों और बच्चों पर कविता लिखने का सवाल है, तो ये सबसे मुश्किल काम है. स्त्रियों पर तो खूब कवितायेँ लिखी जाती हैं और अक्सर बेहद खराब होती हैं. स्त्री लेखन की कई बड़ी चेम्पियन bhee रद्दी कवितायें likhne walon men shaamil hain. स्त्री और बच्चे दोनों पर लिखने के लिए लगभग ek जैसी ईमानदार संवेदना की जरुरत होती hai. शुभा ने स्त्री कविताओं का एक संकलन संपादित किया था जिसमें मंगलेश डबराल की `बच्चों के नाम चिट्ठी` ko शामिल kiya था.
---बेशक क्रांति के नाम पर बेहद उथली कवितायेँ एक फार्मूले के तहत लिखी गईं. इनमें एक तेज उफान होता है जो झाग की तरह बैठ jaata है. ये कवितायेँ किसी तार्किकता की जरुरत नहीं समझती हैं. आठवें दशक में ही इस बारे में तीखी बहसें ho चुकी hain.
-युवा लेखकों को अक्सर तारीफ के अलवा कुछ और जल्दी पसंद नहीं aata. पर उन्हें, khaaskar खुद को जनवादी परम्परा से जोड़ने वाले कवियों को तो निश्चय ही हर मोर्चे पर मजबूत होना चाहिए.
नरेन्द्र जैन जी के बारे मे जानकारी के लिये धन्य्वाद बधाई
एक बड़े कवि के ऊपर एक बड़ी पोस्ट रवीन्द्र भाई.
उनके सरोकार देखने हों तो इसी पोस्ट की इन पंक्तियों को देखा जाए दोबारा से:
"मेरी कई नए कवियों से बात होती है। वे पुराने लेखकों को पढ़ते ही नहीं। मैंने एक युवा कवि से पूछा कि आपने काफ्का या नीत्शे को पढ़ा है तो उनका कहना था- नहीं। कुछ नए कवि तो मानते हैं कि इन्हें पढ़ने की वे जरूरत ही नहीं महसूस करते। यह तो छोड़िए, उनकी अच्छे संगीत, अच्छी चित्रकला और अच्छे सिनेमा में भी खास दिलचस्पी नहीं है। मैं मानता हूं कि अच्छी कविता-कहानी या उपन्यास लिखने के लिए अच्छी चित्रकारी, अच्छा संगीत और अच्छा सिनेमा देखना-सुनना भी जरूरी है। ये कहीं ने कहीं आपको समृद्ध ही करते हैं।"
धीरेश की बात से भी सहमति है पूरी!
नरेन्द्र जी के विचार जानकर आश्चर्य हुआ ! एक कवि इतने सरलीकृत ढंग से क्यों कर सोचने लगता है इसका समाजशास्त्रीय पाठ करना होगा। मैं ज्यादा पढ़ा लिखा तो नहीं लेकिन बाकि कबाड़ियों से पूछना चाहुँगा कि बीस साल के पाब्लो नेरूदा ने कविता लिखने के लिए कौन सी पेंटिग,सिनेमा या संगीत देखा-सुना होगा ? धुमिल को इनमें से किन-किन हव्यास को पालने का मौका मिला था या नहीं इस पर सीनियर लोग ही रौशनी डाल सकते है। इसी तर्ज पर देश और विदेश के कई कवियों की लिस्ट तैयार की जा सकती है।
ठीक है, पेंटिग,सिनेमा या संगीत से फायदा तो होता होगा लेकिन इनके अभाव को अयोग्यता की तरह पेश करना अति-सरलिकरण है। नरेन्द्र जी ही बताए कि इस देश के कितने युवाओं को बेथवोन,मोजार्ट,वान गाॅघ,रफाल,तारकोवस्की,बर्गमैन को जानने सुनने का अवसर मिलता है। इस टिप्पणीकार को भी इन लोगों के नाम किताबों से पढ़ कर पता चलें हैं। ये तो अखबार और किताबें हैं जो हिन्दी पट्टी वालों को बताती हैं मोजार्ट जीनियस था या मोनालिसा एक जादुई पेंटिग है। जो रत्तीभर का ज्ञान हुआ वो भी दिल्ली आने के बाद हुआ।
बनारस के स्वनामधन्य संगीतकार भी बनारस में कम और बाहर ज्यादा रहतें हैं। बनारस में रहें तों भी कुद खास राय कृष्ण दासों को ही उनकी संगत की आदत होती हैं। अब नरेन्द्र जी ही बताए कि ऐसा भी कहीं होता है कि आप कवि प्रतिभा लेकर भी पैदा हों और अनिवार्य रूप से पेरिस में भी पैदा हों !! क्योंकि अगर आप बनारस के देहात में पैदा होंगे तो आप को सिनेमा,पेंटिग या अभिजात्य संगीत जैसी चिड़ियाओं का नाम भी नहीं सुना होगा। फिर कविता कैसे होगी !!
नरेन्द्र जी शायद सहमत होंगे कि नए कवि के लिए संगीत,चित्र,सिनेमा से ज्यादा जरूरी होगी दो टाइम के राशन-पानी, सामाजिक अपमान से बचाव, कविता लिख कर भी जीवन को सामान्य स्तर पर जीया जा सकता है इस बात की सुरक्षा, इत्यादि-इत्यादि। जिस लाइन पर नरेन्द्र जी को युवाओं से शिकायत है उसी लाइन पर युवाओं को भी अपने अग्रजों से शिकायत हो सकती है।
नरेन्द्र जी सहित तमाम लोग इस चिंता में दुबले हुए जाते हैं कि आप कल बहुत कुड़ा लिखा जा रहा है। मैं पूछता हूँ कि कौन सा समय था जब हर रचना सौ टका खरी उतरती थी। मैं ये भी पूछता हूँ कि पीरियड को छोड़िए किसी एक ऐसे कवि को नाम बताएं जिसने हर रचना सौ टका खरी उतरी हो। नरेन्द्र जी अपनी ही कविताओं के बारे में क्या विचार रखते हैं ?
इस तरह के भाषणों को सुनकर लगता है कि हमारे अग्रज हमारी पीढ़ी की समस्याओं को समझना ही नहीं चाहते। वो नहीं मानना चाहते कि आप की पीढ़ी उनसे कठिन समय में जी रही है। नरेंन्द्र जी को तकलीफ है कि युवा लोग काफ्का या नित्से को नहीं पढ़ रहे हैं !
मैं कहता हूँ कि आप के समय में उत्तर भारत में कौन सा युवा इतना स्वंतत्र जो इन महाशयों को पढ़ना अफोर्ड कर सके। ऐसा वो तभी कर सकता है जब उसे इनसे कोई लाभ मिलता हो। और भी दुख हैं जमाने में मोहब्बत के सिवा !! जो नहीं पढ़ते उनकी छोड़िए जो पढ़ना चाहते हैं उनका क्या ? अब ये तो संभव नहीं है कि कोई नीत्से का जबरदस्त पाठक हो और चमचा भी बना रहे !! नीत्से को पढ़ने के बाद इतना साहस तो युवक में आ ही जाएगा कि वह कह सके कि गुरूजी मैं आप से अहमत हूँैं !! ऐसा कहने के बाद उसका क्या होगा ये हर कबाड़ी को पता होगा !! नियुक्ति के समय नित्से, मार्क्स ,रूसो सभी से सीखी क्रांतिकारिता हवा हो जाती है। और जब इन को पढ़ कर भी गोबर गणेश या कागजी शेर ही बने रहना है तो इससे अच्छा है कि पढ़ा ही ना हो। कम से कम अपने अंदर ही अंदर अपमान से झुलसना तो नहीं पड़ेगा।
खैर आज की पीढ़ी तो इनको नहीं पढती लेकिन जिस पीढ़ी ने इन्हें पढ़ा उसने इनके अनुवाद से पैसा बनाने के सिवा क्या किया ? मुझे हिन्दी साहित्य की ज्यादा जानकारी नहीं है इसलिए मुझे जरूर बताएं कि हिन्दी साहित्य में ओरिजनल थिकिंग वाला आखिरी निबंध कौन सा था। पश्चिमी और अमरीकी साहित्य तक भारतीय जनता की पहुँच नहीं थी इसलिए कई लोग बड़े विचारक बने फिरते थे। ये लोग अनेवादक की बजाय अपना नाम लेखक की जगह देते थे फिर भी महान विचारक समझे जाते थे। बात को समेटते हुए अंत में यही कहुँगा कि नरेन्द्र जी नई पीढ़ी के प्रति सीनिकल एट्टीट्युड रखते हैं।
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