Thursday, July 2, 2009

हर पत्‍थर एक नींद है और हर रूह है एक पत्‍थर


सुशोभित सक्‍तावत इस ब्लॉग से जुड़े सबसे नए कबाड़ी हैं. उनकी इन कविताओं को यहां लगाता हुआ मैं एक दुर्लभ क़िस्म की ख़ुशी का अनुभव कर रहा हूं.

ये एक बेचैन आदमी की कविताएं हैं. एक बेचैन आदमी जो अपनी निद्रारहित रातों की पहरेदारी करता हुआ उस रहस्य का अनुसंधान करता सा लगता है जो कि नींद है, रात है और मनुष्य का आदिमतम भय और उसकी रचनात्मकता का अजस्र स्रोत भी. सुशोभित के पास रंगों, स्पर्शों और खुशबुओं की शानदार समझ है जो उनकी सबसे बड़ी ताकत है.

सुशोभित की एकाध कविताएं कल भी लगाई जाएंगी.

बाहर...बाहर, बेख़ुदी के बाहर...

(नींद सबसे पवित्र दैवीय चीज़ है... जो अपराधी हैं, उन्‍हें नींद नहीं आया करती - फ्रांज़ काफ़्का)

नींद एक ठंडी आंच है
बहुत पीछे, परदों के भीतर, पकती कहीं
जैसे हल्‍का-सा रुदन
जैसे समुद्र के भीतर
सांरगी बजती हो
एक करुण राग
जो करुणतर होता जाता है
तो मिटता जाता है
मध्‍य से विलंबित में
धुलते-पुंछते

वो पानी और पत्‍थरों से उनकी काया छीनकर परछाइयों को सौंपती है
और किसी रूमाल की बेहद सफ़ेद तह में
छुपाकर रख देती है
बेचेहरा आवाज़ें
दिन के साये बुझते
पारे की सर्द परतों में...
नींद में होना अनेकानेक आइनों से घिरे होना है
जबके अंधेरे के कंधों से
भिड़तीं हों कुहनियां
शक्‍़लें पिघले शीशे की रौ में बेहती मिलें

नींद एक प्रार्थना है, एक पश्‍चाताप
अपराधियों को नींद नहीं आती
या जो सो नहीं पाते, वे गुनहगार हैं
गुनाहे-आदम के साझेदार
बाहवास, चौकन्‍ने-
गरचे हुशियार बहुत
बहुत-बहुत ख़ूब

उनींदेपन में धुंआ है
उचटेपन में रोशनी के नश्‍तर
होशमंदी ज्‍़यादती हुए जाती है अकसर
ख़ूब सारी होशमंदी, ख़ूब सारी हुशियारी
ख़ूब हिसाबो-हरकत
जबके हर हुशियारी के पीछे से
झांकते हैं तरेरी-सी नज़रों वाले मुंह-अंधेरे के प्रेत
जो रात के कुंए से पानी भरते हैं
जो पानी के परदों पर काढ़ते हैं मूंगों के क़शीदे
हरे को और गाढ़ा करते, बैंजनी को और पनीला
नींद के ख़ामोश-ख़फ़ीफ़ दरिया के भीतर

हर पत्‍थर एक नींद है
और हर रूह है एक पत्‍थर
जब तक के उसे फेंक न दिया जाए अतल में
हर सुबह, अतल के दूधिया दरवाज़ों से उठता है आलम
और बुलाता है ख़ुद को बाहवास
बेआवाज़ बारिशों के उन सायों से
जो न रुदन थे, न ठंडी आंच
बहरहाल, बहरसूरत
एक शै थी महज़,
सरकती हुई, हरवक्‍़त
बाहर...बाहर, बेख़ुदी के बाहर...

दो कोष्‍ठकों के बीच

जिधर लौटना होता है-
जिधर से उग जाता हूं हर बार
नाख़ूनों, दीवार पर सीलन के नक्‍़शों,
आवाज़ के हलक़ में अटकी आवाज़ों
या बीते बसंत के पेट में बजती
बारिश की तरह

दो कोष्‍ठकों के बीच-
जबकि दो कोष्‍ठक दो धब्‍बे हैं नींद के इर्द-गिर्द पसरे हुए
मेरी तरफ़ अपनी उगी जीभें हिलाते हैं अंधेरे के बीज
पटरियों से नापे जा रहे वक्‍़त में
चौहद्दे में अर्धनग्‍न-
खिड़की में रुके दौड़ते दृश्‍य में
ख़ुद को देखकर पहचानता हूँ,
शतरंज के खानों की आड़ी चाल में
और गुम जाता हूँ भूख और रफ़्तार की
निगलती हुई परतों के भीतर

जिधर जिंदगी की खोल है-
लीकें हैं अपनी जानी-पहचानी
और अपने घाव हैं

जिधर लौटना होता है-
चीज़ों की नींद में जागते हुए
संगीत और पत्‍थरों की स्‍मृति के साथ
तरतीबों से तय करते शर्तें या मुहलतें
उधेड़बुनों और ऊंघते हुए इलहामों की तरफ़
चश्‍मा पोंछते बार-बार ऊब की आरामकुर्सी में धंसते
या फीतों की नापजोख के दौरान ठहरते-बुदबुदाते
रेस्‍तरां की रोटियों की गंध के बीच

जिधर से उग जाता हूँ हर बार-
शहर की आंतों में रेंगता हुआ
शहर की सड़कों पर टाइप करता अपनी पदचाप
एक वापसी से दूसरी वापसी तक
ख़ामोश, स्थिर और आखिरकार संतुष्‍ट
रूमाल की तहें जमाता शिक़नें दुरूस्‍त करता
बाहर होता किसी आवाज़ की छांह से
नीले और लाल रंग के बाहर होता हुआ...

बारिश पर लिखता हूं विदा

बारिश और बसंत के बीच स्‍थगित
एक अधूरे चुंबन और अस्‍फुट कराह को
रेलवे प्‍लेटफ़ॉर्म की चिकनी सतह पर
भारी लगेज के नीचे कुचलाते सुनता हूं
और देखता हूं ख़ुद को एक खुलते चौराहे पर
हाथ हिलाते हवा के पारदर्शी ग़ुम्‍बद में

मैं तैरता हूं सफ़ेद झाग वाली धूप में
डूबती-उतराती इच्‍छाओं के शंख, सीपियां और घोंघे बीनते
समुद्र को चीरते चाक़ू की चमक में दाखि़ल होता हूं
एक सुरंग के भीतर भूमिगत नदी और
जुगनुओं की भिनभिनाती छतरी के ऐन नीचे
अलविदा कहता हूं तुम्‍हारी गंध तक को
एक पत्‍थर पर लिखता हूं विदा और
उछाल देता हूँ बारिश से धुले स्‍याही के धब्‍बों
जैसी चाह के नामालूम दर्रे में

भूरी नदी की देह में गड़ते पानी और
पिछले पतझर के गीले पत्‍तों-सी
कच्‍ची ईंटों वाली गंध के बीच
सुनते हुए प्‍यार की अंतिम प्रत्‍याशा
मैं तहस-नहस करता हूँ चंद्रमा की
घंटियों की खनकती ध्‍वनि
नींद में देखता हूँ बिना तारों वाला
एक तानपूरा बजता और तुम्‍हारी आँखों की सुरंग में
बंद होता एक पूरे का पूरा समुद्र

बारिश पर लिखता हूँ विदा और
बिखेर देता हूँ अधूरे चुंबन वाले चौराहे के
अधखुले आकाश में...

(चित्र: पॉल क्ली की पेन्टिंग 'अराउन्ड द फ़िश')

7 comments:

Anil Pusadkar said...

स्वागत है नये कबाड़ी का।

MANVINDER BHIMBER said...

मन की गहराइयों से निकली हुए होती है आपकी हर रचना....... लाजवाब

PD said...

ye kya kayamat likh diye bhai?
naye kabadi ka svagat hai.. :)

शायदा said...

bahut sundar.
aaj hee samajh aaya k hum bhee apradhi hain.

बवाल said...

बड़ा ही शायराना कबाड़ी है सर आपका ! बहुत लाजवाब पोस्ट ।

Unknown said...

Jis nazar se Zindagi dekhta tha me kabhi...

Ye Aadmi (Sushobhit) aaya aur us nazar ko badal gaya...

Ye koi sajish nahi thi uski ki aisa ho...

Magar uski sawal poochti nazro se me khud hi sambhal gaya...

......

Sushobhit ki kavitaye is dunia ko, Ahsaso ko, Zindagi ko aur harek cheej ko Zoom karke dekhna sikhati he...

...mera Zoom to kabhi na samajh aane wali uski in kavitao ne hi samraddha kiya he...

निर्मला कपिला said...

हर रचना दिल को छूते हुये निकल गयी इस कलम को सलाम्