Wednesday, July 1, 2009

एक मछली, दो बातें


कलकत्ते में हिलसा या इलिश माछ पर इन दिनों बज्जर गिरा है। अंग्रेज इसे मैंगो फिश कहा करता था। यह नाम इसलिए पड़ा क्योंकि यह आम के सीजन में इसकी आमद हुआ करती थी। एक बंगाली दोस्त ने बताया कि इस भरमार वाले समय में भी ५०० ग्राम का खोका (बच्चा)इलिश पांच-छह सौ रूपये किलो बिक रहा है।....और यह कोई नयी बात नहीं है।
मछुआरे अपनी परंपरा का पालन करते हुए आमतौर पर खोका इलिश नहीं पकड़ते। मछलियां जब तक प्रजनन की उम्र को न पहुंच जाएं उनका शिकार वर्जित है। दूसरी बात कि खोका इलिश में 'वह' स्वाद नहीं होता और कांटे बहुत होते हैं। स्वाद होता है दो से तीन किलो की हिलसा में। जब यह भाव मिल रहा है और नौदौलतिया खरीदारों की कोई कमीं नहीं है तो मछुआरे भी रूपये की तीन अठन्नी क्यों न बनाएं। हिलसा बंगाल का रास्ता भूल गई है सो वे भी अरंपरा-परंपरा छोड़ खोका पकड़ते भए पूर्वी भारत की संस्कृति का हिस्सा बन चुकी इस शानदार मछली के सफाए में अपना महती योगदान दे रहे हैं।
दुनिया के बड़े मछली निर्यातकों में से एक बांग्लादेश ने पिछले साल पश्चिम बंगाल को २१ लाख किलो इलिश माछ बेची थी लेकिन कीमत का टंटा हो गया। प. बंगाल चौदह रूपये किलो दे रहा था और ढाका वाले तेजी से वहां भी खत्म हो रही हिलसा की कीमत थोक में १७ रूपये किलो मांग रहे थे। खुदरा बाजार में पांच-छह सौ रूपये किलो और उस पर भी मारामारी को देखते हुए, यह सौदा बेहद सस्ता था लेकिन सरकारें अपनी ही चाल चलती है। इस या उस पार बांग्ला के किसी मंत्री या अफसर की धोती या पतलून में फाइल फंसी होगी। वैसे हिलसा का नदियों में घटना और कीमत का चढ़ना बीस साल पहले शुरू हो गया था।
हिलसा, प्रजनन के दिनों में समुद्र से धारा के विपरीत तैरते हुए नदियों में आती है। कुछ दशक पहले जब गंगा की यह दुर्गति नहीं हुई थी, हिलसा बंगाल की खाड़ी से निकल कर सुंदरबन डेल्टा होते कलकत्ता फलांग कर एक हजार किलोमीटर की लांग स्विम (बतर्ज लांग ड्राइव) करते हुए इलाहाबाद में नमूंदार हुआ करती थी। गंगा की इलिश स्वादिष्ट कि पद्मा की- इस पर बांग्ला साहित्य में लंबी चखचख हुई है। फरक्का बांध के बाद गंगा की एक धारा हुगली बन कर दक्षिण की तरफ निकल लेती है। एक धारा पद्मा का नाम लेकर दक्षिण-पूर्व दिशा में बांग्लादेश जाकर मेघना (ब्रह्मपुत्र) में मिल जाती है। मछुआरे या बंगाली भद्रलोक भी नदी किनारे खड़े होकर इलिश का नाम नहीं लेते। कहा जाता है इलिश के कान बहुत तेज होते हैं अपना नाम सुनकर यह उस इलाके से ही चंपत हो जाती है। झीसी या रिमझिम बारिश में यह सतह पर खिलवाड़ करने आती है इसी कारण बांग्ला में धीमी बारिश के लिए एक शब्द है इलिशगुड़ी बृष्टि।

पर्यावरण में बदलाव, सुंदरबन के मैंग्रूव वनों का सफाया, प्रजनन के इलाकों में जहाजों की बढ़ती आवाजाही और सारी नदियों में बढती सिल्ट के काऱण हिल्सा का यह हाल हुआ है। वैसे पूरे उत्तर-पूर्व, बंगाल और बांग्लादेश का इको सिस्टम चौपट हो रहा है। यही अपने यहां भी कई उलटबांसियों के रूप में सामने आ रहा है। आजकल दाल मंहगी है और मुर्गा सस्ता है।
पुनश्चः इलिश से जुड़ा एक और किस्सा। दूसरे विश्वयुद्ध के समय बर्मा से काफी अमीर बंगाली भाग कर कलकत्ता पहुंचे। वे बाजार में हिलसा के दाम पूछ कर खांटी गोरा साब वाले अंदाज में कहते थे, "डैम चीप।"
उन्हें आया देख कर मछली बेचने वाले घेर लेते थे। "मेरी मछली ले लो डैमची साहेब। मेरी मछली ले लो डैमची साहेब।" नए दौलतियों की प्रजाति का नाम ही डैमची साब पड़ गया।

1 comment:

Ashok Pande said...

इत्ती शानदार पोस्ट पर एक आदमी नहीं कमेन्ट करने वाला. लानत है साली! डैमची रेस्पॉन्स!