Thursday, July 30, 2009

पतंगा: एक साझा कविता

पतंगा

दीये की रोशनी
आकार देती है
तुम्हारे चेहरे को
हौले से चूमती है उसे
असलियत से दूरी का कफ़न पहना देती है उसे

पतंगे की तरह नाबीना
मैं उस पर फड़फड़ाता रहता हूं
खोजता हुआ मेरे अपने सपने के भीतर वह गहरा अमृत
मैं जानता हूं वह वहां नहीं है

तब भी तुम वह हो
जिसे दे दी गई है
एक दूसरी आकृति!

जिस से आज़ाद
हो जाने के बारे में
मैं ख़ाब तक नहीं देख सकता!

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मूल अंग्रेज़ी पाठ यह रहा:

Moth

The lamplight,
figures
your face,
lightly kisses it,

Shrouds it from reality.

Moth-blind
I flutter to it
antennae-searching for the deep nectar of my dream ....

I know is not there

Yet, you're someone
have been transfigured ..
into someone !!

That I can't dream
of letting myself
fly free !!

2 comments:

मुनीश ( munish ) said...

very intense ,emanating from the core of heart .

मुनीश ( munish ) said...

I wholeheartedly condemn the bloggers not coming forward to appreciate a very genuine and gripping poetic expression here !