उदयप्रकाश को पखाने तक पहुंचना ही था। रंगे हाथ पकड़े जाने के बाद अक्सर ऐसा ही होता है। उदय प्रकाश हिंदी के एक प्रतिभाशाली लेखक हैं। उन्हें दर्द है कि उन्हें लांछित किया गया, समझा नहीं गया। पर ये समस्या तो नब्बे फीसदी लोगों की है। इससे उनके धतकरम जायज नहीं हो जाते।
उदय प्रकाश किस कदर अपने पाठकों से बेईमानी कर रहे हैं उसे जानने के लिए उनके ब्लाग पर ही चले जाइए। जनाब ने पूर्वाचल से लौटकर 9 जुलाई को जो पोस्ट लिखी उसका नाम दिया "कुशीनगर से लौटकर।" बहुत अच्छे। इसमें एक-आध बार ये भी लिख दिया कि वे गोरखपुर भी गए थे। लेकिन ये नहीं बताया कि गोरखपुर में उनका सम्मान भी हुआ और वो भी योगी आदित्यनाथ के हाथों। कबाड़खाना में अनिल यादव की पोस्ट आने के पुनश्च लिखना पड़ा। आखिर ये इतनी ही सम्मानजनक बात थी तो छिपाई क्यों महाराज।
इसके बाद भी वे जो लिख रहे हैं, उसमें भी वे इस विषय पर कोई सीधी बात करने को तैयार नहीं हैं। प्रलाप यही कि उनके खिलाफ षड़यंत्र हो रहा है। बढ़ते-बढ़ते ये बात यहां तक पहुंचती है कि हिंदी पट्टी में कोई विभूति जन्मी ही नहीं। अब बुद्ध, महावीर की उन्हें याद दिलाना तो फिजूल है ही, कबीर की बात भी वे भूल गए। बहुत पुरानी बात है..?..तो प्रेमचंद क्या गऊपट्टी में नहीं नागपुर में पैदा हुए थे। जिन त्रिलोचन और नागार्जुन पर वे कभी फिदा रहे होंगे वो भी इसी माटी के बने थे। हां भगत सिंह नहीं पैदा हुए, पर चंद्रशेखर आजाद, रामप्रसाद बिस्मिल, अश्फाकउल्ला खां, रोशन सिंह जैसे उनके हमप्याला और हमनिवाला में जान इसी गोबरपट्टी ने फूंकी थी।
कितना बुरा लग रहा है कि एक कठपेलई पर उतारू लेखक की वजह से दुनिया को बदलने की समझ देने वालों के क्षेत्र पर विचार हो रहा है।
तुर्रा ये कि अब अशोक पांडेय के जवाब पर टिप्पणी करते हुए जनाब ये भी बता रहे हैं कि उनके साथ योगी आदित्यनाथ ने ज्यादा बेहतर व्यवहार किया। बेहतर व्यवहार तो हिटलर ने भी कइयों के साथ किया होगा तो क्या यहूदियों को गैस चैंबर में झोंकने का अपराध कम हो जाता है। हिटलर के हाथ क्या कोई संवेदनशील लेखक पुरस्कार ले सकता था।
वैसे, हिंदीवालों के प्रति उदयप्रकाश जैसा व्यवहार कर रहे हैं, शायद वो उसी के लायक हैं। वरना इस विराट चुप्पी का अर्थ क्या है। क्यों नहीं तमाम संगठन और विचारधारा से जुड़े लेखक उदयप्रकाश के कृत्य की सार्वजनिक निंदा कर रहे हैं। ये कैसी गिरोहबंदी है जिसमें उदयप्रकाश से बैर लेने की हिम्मत नहीं पड़ रही है। मोर्चा लिया तो अनिल यादव ने जो पत्रकार के नाते उनका धर्म भी था। लेकिन उदयप्राश बताने लगे कि अनिल के अखबार के मालिक उनके जेएनयू के दिनों के दोस्त हैं। धमकी देने का क्या अंदाज है उदयप्रकाश का। करीने से बता दिया कि नौकरी ले सकते हैं। ज्याद चूं-पूं न करो।
अब अंदाजा ही लगाया जा सकता है कि बाकी नामवर लेखकों को क्या कहकर उन्होंने मुंह सिलने को मजबूर किया होगा।
और अशोक भाई, उदयप्रकाश तमाम किस्से गढ़ सकते हैं, लेकिन योगी आदित्यनाथ के हाथ सम्मानित होने के सीधे सवाल पर पखाने ही पहुंचेंगे। ऐसे गंधाते लोगों का कबाड़खाना में बना रहना कबाड़ियों का अपमान है। हटाओ इन्हें। कम से कम हम दोस्तों के चुनाव में तो सतर्क रहे।
14 comments:
उदय प्रकाश पर करुणा की जानी चाहिए. वो पुरस्कार के लालच में हत्यारे से भी हाथ मिला सकते हैं और उस पर ख़ुद को ही लांछित, अपमानित कह कर सहानुभूति बटोरना चाहते हैं. ये तो इसराइल जैसा व्यवहार है. फ़लस्तीनियों का गला घोंटो और कहो कि हाय, पूरी दुनिया मेरी दुश्मन बनी हुई है और मैं साज़िश का शिकार हो गया हूँ.
उदय जी, व्यक्तिगत हमले न आप पर होने चाहिए और न ही आपको किसी पर करने चाहिए. लेकिन एक स्वस्थ परंपरा के तहत हम सभी आपसे उम्मीद करते हैं कि आप कम से कम इस सवाल का जवाब तो दें कि कुकर्मी, हत्यारे, मुसलमानों और हिंदुओं और दलितों के दुश्मन, आगज़नी करवाने वाले, दंगे भड़काने वाले भगवाधारी के हाथों पुरस्कार लेने से पहले आपने अपने भीतर के संवेदनशील लेखक की गरदन कैसे मरोड़ी होगी? आख़िर आपने साहित्य सर्जन करके जो कमाया था, ये टुच्चा और दुर्गंध भरा पुरस्कार उससे बड़ा कैसे हो गया? "वो बीड़ी सुलगाता आपका पूर्ववर्ती कवि आपसे पूछ रहा है -- तुम्हारी राजनीति क्या है पार्टनर?"
पुनश्च: पंकज, मैं कबाड़ख़ाने से उदय प्रकाश को हटाए जाने के पक्ष में नहीं हूँ. ये इस सदी का मंच है - इसे सेंसर और बहिष्कार की राजनीति से जितना बचाया जा सके उतना बेहतर.
Uday Prakash ek saath do galtiyan kar rahen hain. Pahli, ki unhone BJP ke ek badnam sansad ke haathon se puraskar liya aur dusri ki apni is harkat ko justify karne ke liye ve doosron par ashobniya tippaniyan kar rahe hain. Asal mein unhe iska andaaj nahi ho raha ki baukhlahat mein unki bhasha kitni dhrisht ho ja rahi hai. Kabaadkhaana par unki tippaniyan ghor aapatijanak aur nindniya hain. Unke vakya "Ab is blog par baat karne ka samay aa gaya hai" se aisa prateet hota hai ki ve man hi man is blog se betarah khapha the magar agyaat vajahon se ab tak chuppi sadhe baithe rahe aur ab is se badla lene par utar aayen hain. Koi bhi vyakti apni bhasha ka hunar dikhakar ya bhaudhik hone ki aad mein apne asali chehre ko kabhi nahin chipa sakta. Meri bahut drid dharna hai ki jo vyakti asal mein jaisa hota hai, uski samaj mein vaisi hi chhavi banti hai. Uday ji vichardharon ki baat kar rahen hain, jaativaad, ilakavaad ki baat kar rahen hain aur arop laga rahen hain ki is blog ke sargana ne samaj ki sari naitiktaon ke dhurre bikherte hue apni howason ko pura kiya hai. Pahli baat to ye hai ki jis sandarbh mein unhe baat karni thi, ve us par chupi sadh kar agar is tarah niji aur gair jaroori iljam lagane par utar aayen hain to yeh sabit karta hai ki ve apni alochana kis had tak napasand karte hain. Doosra, yeh vyakti ke roop mein unki seemaon ko bhi samne lata hai - Ve kaise unki hi biradari (hindi sahitya aur patrakarita) ke kisi sadasya dwara unki harkat par sawal uthane par ve puri biradari ko hi gariyane lage. Sambhvtah unhe yeh brahm ho raha ho ki unke aise gariyane se log apni awaaj nahi uthainge. Yah ek tarah se unke bhitar kisi tanashah ke maujood hone ka sanket hai.
kabaadkhaane par maine bahut kum tippaniyan ki hain. Magar aaj mein uday ji ki behudgi dekh kar khud ko rok na saka. Kya hamare sresth sahityakar bhi is star par utarne ko abhishapt hain. Dukh aur afsos hi ho sakta hai. Apni harkat par afsos zahir karne ki bajai Uday ji doosron ko naitikta ka path padhane lage...doosron par hamla karne lage. Ye kaisi baudhikta hai, kaisa badhappan?
mahaant avadhnath se purskar lekar udai prakash ne koi gunah nahi kiya hain.sikho ka katle aam karane wale aur aaptakal main hazaro nirdosho ko jail main dalane wale bade gunahagar hain.hindu vaad ko gali dena vampanthio ka mukhya shagal hain.
bahut khub kaha pankaj ji.
सुंदर चंद ठाकुर की रोमन में लिखी टिप्प्णी का मैं हिन्दी में लिप्यंतरण कर रहा हूँ। मैं संुदर चंद ठाकुर के किसी तरह नहीं जानता। उनकी इस साहसिक और समायानुकूल टिप्पणी का लिप्यांतरण मैं अपनी स्वेच्छा से कर रहा हूँ
सुंदर चंद की टिप्पणी-
उदय प्रकाश एक साथ दो गलतियाँ कर रहे हैं। पहली, की उन्होंने बीजेपी के एक बदनाम सांसद के ािथों से पुरस्कार लिए और दूसरी की अपनी उस हरकत को जस्टिफाइ करने के लिए वे दूसरों पर अशोभनीय टिप्पणियाँ कर रहें है। असल में उन्हें इसका अंदाजा नहीं हो रहा की बौखलाहट में उनकी भाषा कितनी धृष्ट हो जा रही है। कबाड़खाना पर उनकी टिप्पणियाँ घोर आपत्तिजनक और निंदनीय है। उनके वाक्य अब इस ब्लाग पर बात करने का समय आ गया है से ऐसा प्रतीत होता है कि वे मन नही मन इस से बेतरह खफा थे मगर अज्ञात वजहों से अब तक चुप्पी साधे बैठे रहे और अब इस से बदला लेने पर उतर आएं हैं। कोई भी व्यक्ति अपनी भाषा का हुनर दिखाकर या बौद्धिक होने की आड़ में अपने असली चेहरे को कभी नहीं छिपा सकता। मेरी बहुत दृढ़ धारणा है की जो व्यक्ति असल में जैसा होता है उसकी समाज में वैसी ही छवि बनती है। उदय जी विचारधराओं की बात कर रहें हैं, जाजिवादी इलाकावाद की बात कर रहें हैं और आरोप लगा रहें हैं कि इस ब्लाग के सरगना ने समाज की सारी नैतिकताओं के धुर्रे बिखरते हुए अपनी हवसों को पूरा किया है। पहली बात तो ये है कि जिस संदर्भ में उन्हें बात करनी थी, वे उस पर चुप्पी साध कर अगर इस तरह निजी और गैर जरूरी इल्जाम लगाने पर उतर आएं हैं तो यह साबित करता है िकवे अपनी आलोचना किस हद तक नापंसद करते हैं। दूसरा, ये व्यक्ति के रूप में उनकी सीमाओं को भी सामने लाता है - वे कैसे उनकी बिरादरी (हिन्दी साहित्य और पत्रकारिता) के किसी सदस्य द्वारा उनकी हरकत पर सताल उठाने पर वे पूरी बिरादरी को ही गरियाने लगे। संभवतः उन्हें यह भ्रम हो रहा हो किउनके ऐसे गरियाने से लोग अपनी आवाज नहीं उठाएंगे। यह एक तरह से उनके भीतर किसी तानाशाह के मौजुद होने का संकट है।
कबाड़खाना पर मैंने कम टिप्पणियाँ की है मगर आज मैं उदय जी की बेहुदगी देख कर खुद को रोक न सका। क्या हमारे श्रेष्ठ साहित्यकार भी इस स्तर पर उतरने को अभिशप्त है। दुख और अफसोस ही हो सकता है। अपनी हरकत परअफसोस जाहिर करने की बजाए उदय जी दूसरों को नैतिकता का पाठ पढ़ाने लगें..... दूसरों पर हमला करने लगे। ये कैसी बौद्धिकता है कैसा बड़प्पन ?
पंकज जी आपकी बाकी आलोचना से सहमत हूँ लेकिन उदय प्रकाश या किसी को भी इस तरह से बहरियाने का मैं समर्थन नहीं कर सकता। मैं आपके माध्यम से स्पष्ट कर दूँ कि उदय का पुनश्च और फिर उसके बाद की गई टिप्पणियों ने मुझे भी क्षुब्ध कर दिया है। मैं इस हरकत का पुरजोर विरोध भी करूँगा। लेकिन हर हाल में यह ध्यान रखने की बात है कि हम उदय प्रकाश के हालिया कृत्य की आलोचना कर रहें है न कि समूचे उदय प्रकाश का। मुझे नहीं लगता कि किसी को भी यह बताने की जरूरत है कि एक गलती से किसी का पूरा व्यक्तित्व खारिज नहीं किया जा सकता।
गुरू आप भी जानते है कि बौद्धिकों की दुनिया में ऐसी बातें करना ठीक नहीं है।
उदय प्रकाश सदैव से ही घनघोर अवसरवादी रहे हैं. कभी अशोक वाजपेयी एंड कंपनी को 'भारत भवन के अल्शेशियंस' कहने वाले इस लेखक ने पिछले साल अशोक वाजपेयी के जन्मदिन पर अपने ब्लॉग पर उनको शुभकामना दी, कविता लगाई और इस साल अशोक वाजपेयी से वैद सम्मान ले लिया. सवर्ण सरगना नामवर सिंह के आगे पीछे कितना घूमे साहित्य अकादमी के लिए, बल्कि किस किस के पीछे नहीं उस पुरस्कार के लिए पर जातिवादियों ने नहीं दिया. अभी लेफ्ट को गरियाते हैं कभी से.पी.एम्. की पत्रिका स्वाधीनता के वार्षिकांक का संपादन किया. सारी जिंदगी हिंदी का खाके, दसियों विदेश यात्रायें करके, अनुवाद कराके अब सारे हिंदी वालों को जातिवादी बता रहे हैं. अभी लोकसभा का नतीजा आते ही सोनिया और नेहरु खानदान की स्तुति में वीडियो और पोस्ट लगाई. दलितवादी हुए और अब भगवा. ऐसे लेखकों को ही हिंदी में प्रगतिशील और महान कहा जाता है?
भाई रंगनाथ,
उदय प्रकाश को कबाड़खाना से बाहर करने की मांग मैं बहुत सचेत ढंग से कर रहा हूं। मैं उदयप्रकाश को एक महत्वपूर्ण लेखक मानता हूं। बल्कि मेरे प्रिय लेखकों में से एक रहे हैं। लेकिन जो लोग हिटलरपंथ के अगुवा हैं, जो दलितों, अल्पसंख्यकों और तमाम प्रगतिशील ताकतों के खिलाफ उन्मादी और खूनी अभियान चला रहे हैं, उनके साथ सिर्फ विरोध का रिश्ता हो सकता है।
ध्यान रहे कि उदयप्रकाश तमाम इधर-उधर की बात कह रहे हैं लेकिन मूल सवाल का जवाब नहीं दे रहे हैं। सार्वजनिक रूप से अपनी गलती स्वीकार करने की उनसे कोई उम्मीद नहीं है।
फिर मैं समझता हूं कि कबाड़खाना उन लोगों के विमर्श का मंच है जो समाज को आगे ले जाने के विचार के साथ हैं। राजनीतिक मुहावरे में कहें तो कम से कम धर्मनिरपेक्ष और लोकतांत्रिक विचार में आस्था रखने वालों का मंच है ये। मैं नहीं समझता कि इस मंच पर सांप्रदायिक फासीवादी विचार के लिए कोई भी जगह हो सकती है। आखिर किसी भी दोस्ती के आधार में कुछ बुनियादी बातों पर सहमति होती है।
जाहिर है, उदयप्रकाश सचेत ढंग से इस राह से अलग हो रहे हैं। उन्हें उनकी नई समझ मुबारक। जब पूरा हिंदी जगत चुप्पी साधे बैठा है तो कबाड़खाना से उनका ब्लाग हटाकर हम तो ये संदेश दें कि कोई तो उनकी नई गति से असहमति जता रहा है।
ये प्रतीकात्मक विरोध ही होगा , पर जरूरी है। वरना मुझे भी पता है कि उदयप्रकाश की हैसियत में इससे कोई फर्क नहीं पड़ेगा। लेकिन हिंदी जगत को ही किसी लेखक के इधर-उधर से क्या फर्क पड़ता है।
सही चल रहा है विमर्श।
ताजा उदय प्रसंग में यह याद कर लेना मौजू होगा की ये वही उदय प्रकाश हैं जिन्होंने कभी हिंदी के बेहद सज्जन और निरापद कवि स्व. गोरख पांडेय के जीवन का मज़ाक उड़ते हुए 'रामसजीवन की आत्मकथा' जैसी भयानक कहानी लिखी थी. मैं गोरख जी की त्रासदी से वाकिफ था और तब मुझे यह कहानीकार किसी हत्यारे से कम नहीं लगा था. आज उदय जी के खुद के जीवन का एक सफा क्या उठ गया, वह बर्दाश्त नहीं कर पाए और गालियों पर उतर आये. अच्छा होता कि वो योगी से पुरस्कार ग्रहण करने को सही ठहराते और उसके पक्ष में तर्क देते. अपने सार्वजनिक विचारों से अपने निजी जीवन की राह बनाने का साहस बहुत कर लोगों में होता है, हम बिना कोई शिकायत किये मान लेते की उदयप्रकाश भी हिंदी की 'कथित' प्रगतिशील जमात के सदस्य हैं.
लेकिन उन्होंने ऐसा नहीं किया. योगी से पुरस्कार लेने पर चुप लग गए और उनके दोहरे चरित्र से पर्दा हटाने वाले को न सिर्फ गरियाने बल्कि परोक्ष रूप से धमकाने भी लगे. सवाल करने वाले लेखक को ' दोस्त का कर्मचारी' और अपने परिजनों को कुंवर जैसे संबोधन से नवाजने वाला जाहिरन सामंती विचारों का ही हो सकता है.
कबाड़खाना में उन पर लिखी गई किसी भी पोस्ट में उनकी जाति का किसी ने हवाला नहीं दिया गया. न ही जातीयता का आरोप लगाया. फिर भी उन्हें पूरा कबाड़खाना 'जातिवादी' और क्षेत्रवादी नज़र आता है. अपने परिवार में भिन्न-भिन्न जातियों के सदस्यों की मौजूदगी को वे अपनी प्रगतिशीलता का प्रमाणपत्र मानते हैं उनकी जानकारी के लिए बता दूं कि जिस कबाड़खाना के सरगना को उन्होंने जातिवादी बताया है, उस बेचारे की तो श्रीमती ही आस्ट्रिया की क्रिश्चियन है.
बहरहाल, निजी तौर पर उदयप्रकाश से वाकिफ न होने के बावजूद मुझे ये बातें इसलिए भी लिखनी पड़ी क्योंकि मैं थोक में गरियाए गए कबाड़खाने के संस्थापक सदस्यों में एक हूँ. उदयप्रकाश भले बड़े लेखक हों, उन्हें यह हक नहीं कि किसी बहुजातीय, बहुधर्मीय कम्युनिटी (कबाड़खाना) के लिए अशिष्ट और भद्दे शब्दों का इस्तेमाल करें.
yah stabdh kar dene wali ghatna hai.uday prakash ka main bathut aadar karta hoon. unki adhikaansh kahaniyon men samaj ke sabse kamjor aur nishakt log aate hain.abhi kal chai ki ek dukaan par ek dost unke lekhan ko satta ke pratirodh ka vimarsh kah raha tha. yogi ji se puraskaar lene ke baad kya 'Buntu' aur 'Mohan das'jaise bhale aur seedhe log khud ko thagaa hua mahsoos nahi karenge? mujhe to lagtaa hai ki apne role-models ke aise ochepan se aahat hokar hi kai saare samvedansheel log lekhan aur rachna karm ko chodhkar seedhe satta ki dalaali men utar jaate hain.
uday nahin jaante ki Aditynaath se puruskaar lekar unhone bahut saari nishkalush aankhon se achcha aadmi ban ne ka swapn mita diya hai.
उदय़ प्रकाश जी ने गोरखपुर में न केवल पूर्वांचल के मोदी से पुरस्कार लिय़ा अपितु सांस्कृतिक राष्ट्रवाद की वकालत की .अब तो य़ोगी भी कह रहे हैं कि उन्होने तो उदय़ प्रकाश को पुरस्कार लेने से मना किय़ा था . फिर तो उदय़ प्रकाश जी ने जान-बुझ कर पुरस्कार लिय़ा था . गोरखपुर के आय़ोजन में उदय़ प्रकाश जी का नाम उदय़ प्रकाश सिंह छपा था . उदय़ प्रकाश जी की कुछ कहानिय़ां सिद्ध करती हैं कि उनके अंदर संघ के प्रति सहानुभूति तो पहले से थी. विचारधारा के प्रति उदय़ प्रकाश जी की टिप्पणी हमें हैरान करती है .
विमर्श बढ़िया चल रहा है।
उदय प्रकाश के चक्कर में और लोग भी नंगे हो रहे हैं।
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