Monday, July 6, 2009

"गे" को हिंदी में क्या कहते हैं


राजेश जोशी की पोस्ट और अभिषेक मिश्रा की टिप्पणी ने सोचने के लिए उकसाया। मसला बहुत जरूरी है बात होनी चाहिए।

अपने जैविक उत्स या प्रवृत्ति के रूप में गे-पंथ का पश्चिम से कुछ लेना-देना नहीं है। रामपुर के कबूतर (?) अपने यहां पाए जाते हैं (जो किस्सों में एक पंख से उड़ते हैं), पूर्वी उत्तर प्रदेश और बिहार के कुछ इलाकों में संपन्न लोगों द्वारा हाथी (?) पालने की परंपरा है। किसी नमकीन या कड़ियल, गबरू लौंडे के पीछे अपनी सारी जमीन जायदाद लुटा देने के किस्से भारत के हर कोने में मिलते हैं। अलाउद्दीन खिलजी के बेटे मुबारक शाह और उस जैसे गे-रसिकों के ढेरों किस्से सल्तनत काल और मुगल काल के इतिहास में बिखरे पड़े हैं। इमरजेंसी के दिनों में जब जेलों संघियों और समाजवादियों की भरमार थी तब एक नारा आया था- बोल जमूरे क्या देखा, नेता के ऊपर नेता देखा। यह नारा जिस क्वियर-कर्म पर फोकस था, वह बदस्तूर आज भी समाज के हर कोने अंतरे में जारी है। प्राकृतिक-अप्राकृतिक या अपना पार्टनर चुनने की आजादी की बहस बेकार है क्योंकि बहस करके, आप उस मजे को रत्ती भर भी हिला नहीं सकते जो गे और लेस्बियन एक दूसरे से पाते हैं।

पश्चिम से एक उच्चताबोध लिए एक नकचढ़ी भाषा आई, जिसमें उस रणनीति का खाका है जिस पर चलते हुए भारत में भी गे-पंथ के आंदोलन को विकसित होना है। अपने यहां जो हो रहा है वह पश्चिम में चालीस साल पहले हो चुका है, जो पश्चिम कर रहा है, बहुत संभव है कि दस साल बाद अपने यहां हो। देश चलाने वाले वाकई सुपर पावर और उदार लोकतंत्र के मेकअप में दिखने के लिए एक से एक करतब कर रहे हैं। वरना धारा 377 का वह विवादास्पद हिस्सा भारतीय संविधान का उल्लंघन करता है, यह फैसला संविधान लागू होने के उनसठ साल बाद क्यों आया। क्यों नहीं जैसे कुछ जातियों को क्रिमिनल ट्राइब के ब्रिटिश वर्गीकरण से निकाला गया, गे-कर्म को भी अपराध की श्रेणी से बाहर कर दिया गया। अगर धारा-377 विक्टोरियन नैतिकता से प्रभावित थी, तो खुद ब्रिटेन ने जब इस नैतिकता को गुडबॉय करते हुए 1967 में सेक्सुअल आफेन्सेज एक्ट पास किया तो अपने यहां भी इसका परीक्षण किया गया। बात इतनी थी कि जो अपनी सेक्सुअल हैबिटस में अल्पसंख्यक हैं, उन्हें भी समानता की अवधारणा में जगह मिलनी चाहिए और उन्हें अपराधी नहीं माना जाना चाहिए लेकिन हाईकोर्ट ने जरा अति-उत्साह में अंबेडकर, नेहरू और सोनिया गांधी सबको विचारधारात्मक तौर पर गे लोगों के समर्थन में खड़ा कर दिया है। कानून की विसंगति का आपरेशन ठीक किया लेकिन एनस्थिसिया जरा चालू किस्म का लगा कर किया।

फैसला अपनी जगह ठीक है। कोई कारण नहीं होना चाहिए लेखक विक्रम सेठ जो अपने गे-पन को लेकर काफी संवेदनशीलता से बात करते हैं, वे कभी भी अपराधी करार दिए जाने के डर में जिएं। कोई समलैंगिक नहीं चाहेगा कि आस्कर वाइल्ड की तरह उसे प्रताड़ित किया जाए और वह मारा-मारा फिरे या जिम्बाब्बे के राष्ट्रपति राबर्ट मुगाबे की तरह ताने झेले। बिल्कुल गे लोगों को गरिमा के साथ निर्भय जीने का अधिकार है। लेकिन....

लेकिन वह भाषा आती है और विचार स्रोत आता है जिससे उर्जा लेकर एनजीओ और इंटरनेशनल एजेंसिया भारत में गे-पंथ का धर्म चक्र प्रवर्तन करने में लगे हुए हैं। इस आंदोलन का भविष्य झिलमिल दिखाई दे रहा है।

मिसाल के तौर पर 1967 में जब सेक्सुअल ऑफेन्सेज एक्ट पास किया गया तब ब्रिटेन में स्वैच्छिक समलैंगिकता के सहमत-असहमत होने की उम्र 21 साल रखी गई थी लेकिन 2000 में हाउस आफ लार्डस और ईसाई चर्चों के तीव्र विरोध के बावजूद इसे 16 साल कर दिया गया।
वहां अब गे शादियों को और बच्चे गोद लेने को वैधानिक करने की मांग हो रही है।
स्कूलों के पाठ्यक्रम में बताया जाए कि पुरूष-स्त्री संबध प्राकृतिक (नेचुरल आर्डर आफ सोसाइटी) नहीं हैं। यह मांग भी की जा रही है।

इस फैसले के बाद आंदोलनी गे भाई लोगों, उन गे लोगों का जीना हराम कर रखा है जो इसे निजी मामला रखना चाहते हैं। वे दबाव डाल रहे हैं कि तुम कैसे गे हो कि अदालत ने तुम्हारे पक्ष में है और तुम बिल में घुस कर पुच्च-पुच्च कर रहे हो। 1974 में गे-लिबरेशन फ्रंट ने निजता के आग्रह के ही कारण ईएम फोस्टर को भी नीच और घटिया-गे (downcast gay) घोषित किया था। यह मुहिम में समाज से थोड़ी सी सहिष्णुता और अपने समायोजन की अबोध मांग के साथ शुरू हुई है, वह आने वाले दिनों में आक्रामक होने वाली है।

इस पर वाकई बहस होनी है तो अपनी भाषा में होनी चाहिए। सबसे पहले तय होना चाहिए कि गे और क्वियर होना, हिंदी, बांग्ला, तमिल या पंजाबी में क्या होता है। जब तक एनजीओ बाज अपनी जबान में बात नहीं करते यह आंदोलन पश्चिम की लाइन पर ही चलेगा। उन लोगों को जो कर्म वही करते हैं लेकिन "गे" का मतलब नहीं जानते, पता ही नहीं चल पाएगा कि इतना गदर उन्हीं के अधिकारों के लिए मचा हुआ है।

29 comments:

अर्कजेश said...

क्या कहने आपने तो सबै कहा दिया । अपने यहां यही कमी है की पीछे-पीछे चलते हैं, दूसरे की गई गलतियों को अपनी भारतीय संस्कॄति समझने लगते हैं । फ़िर उसको बचाने के लिये लट्ठ लेकर खडे होते हैं ।

महेन said...

भई अपन लोग तो "नवाब" और "नवाबी शौक" कहकर काम चला लेते हैं.

डॉ .अनुराग said...

शुक्र है इस विषय पर थोडी तार्किक पोस्ट पढ़ी .वर्ना इतने दिनों से ऐसी पोस्ट पढ़ रहा हूँ जिसमे अजीब तर्क दिए जा रहे है की जैसे हत्या ,बलात्कार जैसे अपराध इस कानून के बाद रुक जायेंगे ..या खुजराहो की मूर्तिया पूरे देश के यौन बिहेव्यियर का नियम तय करती है .. या आप प्रकति के दूसरे कानून भी तोड़ते है तो इसे क्यों नहीं ?
इसके अलावा भी सदियों से इस देश में कई तरह के असामान्य व्यवहार हर सभ्यता हर काल में होते आ रहे है तो क्या केवल इस कारण से वे मान्य हो गये ?
सिंपल सा एक लोजिक है इश्वर ने जो अंग हमें जिस चीज के इस्तेमाल के लिए दिए है उन्हें वैसे ही करे....

Unknown said...

मैं अपनी टिप्पणी से पहले यह जानना चाहूँगा कि वैधानिकता क्या है और इसे तय करने के आधार क्या हैं?

Ashok Pande said...

हमारे इधर आम पुरुष बोलचाल में गांडू या गंडी कहते हैं.

यह पोस्ट के शीर्षक पर कमेन्ट माना जाए.

पोस्ट पर एक अलग पोस्ट जल्दी.

थैंक्स अनिल भाई!

अविनाश वाचस्पति said...

कहां नहीं हैं गे
बतलाओ (गे)
बुलायें (गे)
तो आओ (गे)
भगायें (गे)
तो भागो (गे)
जगायें (गे)
तो जागो (गे)
अब क्‍या
अब तो
सब जाग
गए हैं।

विवेक सिंह said...

अविनाश जी की टिप्पणी पढ़कर मज़ा आगया !

yogeshwar suyal said...

uttar bharat me to INHEN - `jan-sanghi' bhi kahte hain.

Ashok Pande said...

जेब्बात जोगेस्वर भाई!

Unknown said...

धन्यवाद दोस्तों।
लेकिन सोचने की बात है कि धारा ३७७ का कानून का यह हिस्सा भी हमने अंग्रेज की तत्कालीन नैतिकता (विक्टोरियन) के प्रभाव मे लागू किए रखा था। अब उसे डिक्रिमानलाइज भी हम अंग्रेज की तत्कालीन नैतिकता के खुमार में कर रहे हैं। इससे इस शताब्दी लंबे कालखंड मे, हमारी भारतीय विचार-यात्रा का पता चलता है। कहीं आजकल कोई अंग्रेज ही तो भारत का प्रधानमंत्री नहीं है।

Unknown said...

दिनेश जी,
यह सत्ता तय करती है कि आदमी को गोली मारने पर किसे हत्यारा घोषित किया जाए और किसे परमवीर चक्र दिया जाए। इतने ईश्वरों में से किस ईश्वर का विधान चलेगा, यह भी वही तय करती है। यह अपनी समझ है बाकी आप जानें। ध्यान दें कि हाईकोर्ट का फैसला आने से पहले वीरप्पा मोईली ने गे-प्रश्न पर अचानक बे-प्रसंग बयान क्यों दिया था।

Unknown said...

gandgi kuchh zyada hi haavi ho gayi hai aaj kal

raam raam

Arvind Mishra said...

कोई टिप्पणी नहीं

Pramendra Pratap Singh said...

हा हा हा

अभिषेक मिश्रा said...

अनिल यादव जी
मेरे ख्याल से कोर्ट के फैसले पर इस नज़रिए से विचार होना चाहिए की वह सही है की नहीं. न की इस नज़रिए से की भारत के शासक वर्ग ने अभी इसे क्यों लागु किया है. यह सही है की कोर्ट में भी यह मामला कई वर्षों से लंबित था. व भारत का शासक वर्ग उदारवादी व जनतांत्रिक दिखना चाहता है. दरअसल शासक वर्ग इसे पिछले कुछ वर्षों सेलागु करना चाहता है. इसे पिछले वर्षों में अम्बुमणि रोम्दोस के बयानोंमें देखा जा सकता है. लेकिन सर्कार यदि इसके लिए कानून में संशोधन करती तो इससे ज्यादा बवाल मचता. सरकार ने दूसरा रास्ता चुना उसने पुराने कानून की ही नई व्याख्या न्यायपालिका के जरिये करा दी है. न्याय पालिका थोडा गैर विवादस्पद माना जाता है और उसका विरोध करने पर अवमानना का खतरा होता है.न्यायपालिका में भी सरकार के पास यह नियंत्रण होता है की किस मामले पर फैसला ठीक किस समय दिया जाय और कौन पर्टिकुलर व्यक्ति जज हो. इसलिए ही यह संयोग नहीं है की यह फैसला डेल्ही में गे रैली के अगले ही दिन आया है.इस फैसले के जरिये सरकार वो माहौल बनान चाहती है की वह अगले कुछ वर्षों में इस बाबत कानून बना सके.
लेकिन जैसे मैंने पहले कहा फैसला सही है या नहीं इस प;आर विचार इस दृष्टि से नहीं करना चाहिए की भारत का शासक वर्ग इसको लागु करना चाहता था.
और दूसरी बात जहाँ तक हिंदी और अन्य भाषाओँ में गे के समंर्थी शब्द की बात है.कोई भी अस्मिता पर आधारित आन्दोलन के लिए उस अस्मिता को परिभाषित करने वाला शब्द बहुत महत्त्वपूर्ण होता है. जैसे दलित आन्दोलन के लिए आंबेडकर का दिया शब्द 'दलित' . अंग्रेजी में भी समलैंगिकों के लिए कई शब्द प्रचलित थे जैसे queer , faggot आदि लेकिन gay थोडा सम्मानजनक शब्द माना जाता था. इसलिए समलैंगिक आन्दोलन ने इस शब्द कोले लिया. हलाँकि पिछले वर्षों से समलैंगिकों ने queer शब्द को भी उसके अपमानजनक अर्थ से हटाने में सफलता पाई है.इसलिए अब queer activism और queer studies जैसें शब्दों का व्यापक इस्तेमाल होने लगा है. यहाँ भी समलैंगिक आन्दोलन के आगे बढ़ने के साथ वे अपने लिए कोई स्थानिक अस्मितावादी शब्द चुन ही लेंगे जिससे अपमान का बोध न होता हो.

स्वप्नदर्शी said...

एक ऐसे समाज मे जह्ना आप बहुसंख्यक है, या फ़िर स्वीकृत व्यवस्था का हिस्सा है, आपकी अपनी ज्ञानेंद्रिया और समझ पर भी अल्पसंख्यक अस्मिताओं को देखने के लिए परदे पड़ जाते है।

इस लिहाज़ से देखा जाय तो caste system मे बुराई दलित के हिस्से है, और पित्र्सत्ताक समाज की बुराई स्त्री के हिस्से है, द्वीलिंगी कोड का शिकार "गे-लेश्बियन " है। निश्चित सी बात है की ये सभी व्यवस्थाये एक के एवज मे दूसरे के उपर जाने -अनजाने बोझ डालती है। इस लिहाज़ से सेक्सुअल अस्मिता के सवाल पर गे-लेस्बियन संबंधो को समाज मे अनदेखी करना या अपने तराजू से तौलकर अनैतिक ठहराना मेरी द्रिस्टी मे ग़लत है। मेरी लिए ख़ुद जियो औरो को उनके हिसाब से जीनो दो ही एक बेहतर approach है, और इस दूनिया मे इतनी विषमताये है, कुछ प्रकृति की और कुछ मानव की बनायी हुयी। फ़िर भी हम जाती की, लिंग की, भूगोल की, सीमाओं को तोड़ते हुए एक दूसरे की तरफ़ हाथ बढाते है। प्रेम होता है, दोस्ती होती है, मिलजुल कर काम करते है। इन्ही बहुत सी विषमताओं मे से एक गे या लेस्बियन होना भी है। ......

स्वप्नदर्शी said...

"सिंपल सा एक लोजिक है इश्वर ने जो अंग हमें जिस चीज के इस्तेमाल के लिए दिए है उन्हें वैसे ही करे...."

Not all people believe in creation of life on this earth by "God".

There is enough evidence that life and molecules which brought life to this planet are indeed result of trail and error. There are no rules, made by god about how living beings should behave.

On the other hand human history teaches us that human beings have invented GOD to serve their own interests, and power to subjugate others.

अभिषेक मिश्रा said...

तीसरी बात, आपने लिखा है की यह मांग हो रही है कि स्कूलों के पाठ्यक्रम में बताया जाए कि पुरूष-स्त्री संबध प्राकृतिक (नेचुरल आर्डर आफ सोसाइटी) नहीं हैं।यह सही नहीं है.समलैंगिकों कि मांग यह नहीं है कि स्कूलों में यह पढाया जाय कि कि पुरूष-स्त्री संबध (नेचुरल आर्डर आफ सोसाइटी) नहीं हैं।उनकी मांग यह है कि स्कूलों में यह न पढाया जाय कि पुरूष-स्त्री संबध 'नेचुरल आर्डर आफ सोसाइटी' है. ये दोनों बातें अलग हैं. उनका कहना है कि 'नेचुरल आर्डर आफ सोसाइटी' कुछ होता ही नहीं है क्योंकि स्वयं सोसाइटी ही कोई नैचुरल चीज नहीं होती.सोसाइटी भी एक ऐतिहासिक प्रक्रिया में जन्मी है और समय के साथ इसके रूप, व्यवस्था और मूल्य बदलते गएँ हैं. दरअसल -- पुरूष-स्त्री संबध 'नेचुरल आर्डर आफ सोसाइटी' है-- यह बात समाज में बढ़ते समलैंगिक आन्दोलन के चलते ही सचेत तौर पर पाठ्यक्रम में लाइ गई है.जैसे भारत में अभी किसी भी पाठ्यपुस्तक में यह अलग से कहने कि जरुरत नहीं हुई है कि पुरूष-स्त्री संबध 'नेचुरल आर्डर आफ सोसाइटी' है. लेकिन जैसे समलैंगिक लोगों का संघर्ष आगे बढेगा हो सकता कि यहाँ भी कोई समलैंगिकता का विरोधी पाठ्यक्रम में सचेत तौर पर यह बात डाल दे. समलैंगिक लोगों का कहना है कि स्कूलों में यह बात विशेष तौर पर डालने से बच्चों में समलैंगिकों के खिलाप सांस्कृतिक पूर्वाग्रह पैदा होंगे. जिससे समलैंगिकों के खिलाप भेदभाव बढेगा.

चंद्रभूषण said...

अभिषेक मिश्रा और स्वप्नदर्शी की बातों को मिलाकर एक अच्छा संवेदनशील तर्क बन रहा है। लेकिन यह समलैंगिकता को बर्दाश्त करने का, समलैंगिकों को भी मनुष्य समझने का तर्क है, जिसके खिलाफ खड़े होना किसी भी तार्किक व्यक्ति को अच्छा नहीं लगेगा। इसे अनिल यादव की बात के जवाब की तरह तो किसी भी रूप में नहीं लिया जा सकता, क्योंकि उनकी चिंता ही कुछ अलग है। अनिल के सवाल दो हैं। एक, क्या मौजूदा समलैंगिक दावेदारी का कोई भारतीय कंटेक्स्ट है, या यूं कहें कि इसमें भारतीय संदर्भ के साथ खुद को जोड़ने की कोई इच्छा भी है। और दूसरा, आक्रामक रेडिकलिज्म का जो बोध इसके साथ जुड़ा हुआ है, और जो देश के ऊंचे तबकों के कई दूसरे शौकों- मसलन ड्रग्स, रैश ड्राइविंग और रेव पार्टीज जैसा दिखता है, उसके पक्ष में हम भला ताली क्यों बजाएं। इस तरह ये दोनों दो अलग प्लेन के लेकिन समान रूप से वाजिब तर्क हैं और इनमें किसी एक को दूसरे के जवाब की तरह नहीं देखा जा सकता। इस बारे में कुछ लिखने की इच्छा है, देखिए पूरी हो पाती है या नहीं।

अभिषेक मिश्रा said...

चौथी बात, 'वहां अब गे शादियों को और बच्चे गोद लेने को वैधानिक करने की मांग हो रही है।'
इसको भी सही से समझे जाने कि जरुरत है. जहाँ तक शाद्दी कि बात है यह तो मानना ही चाहिए कि यदि दो वयस्क लोग एक साथ रहना चाहें तो उन्हें यह हक़ होना चाहिए. असल संमस्या बच्चो को गोद लेने की मांग के बारे में है. इसके विरोधियों का यह कहना है की समलैंगिक परिवारों में पलने वाले बच्चे अनिवार्य रूप से विकृत हो जायेंगे.
इस बात को समझे जाने की जरुरत है. क्या स्त्री पुरुष के विषमलिंगी संबंधों के आधार पर बने परिवारों में पलने वाले बच्चों के विकृत्त होने की सम्भावना नहीं होती है? दरअसल परिवार नाम की इकाई कोई निर्वात में नहीं होती.हमारे समाज में परिवार का आधार पितृसत्ता होती है. सामान्यतया कोई भी परिवार (अपवादों को छोड़ दे तो) पितृसत्ता पर आधारित होता है. क्योंकि हर वर्गीय समाज पितृसत्तात्मक होता है. इसलिए परिवार नाम की संस्था वस्तुतः स्त्री के गुलामी व दमन पर आधारित होती है. इसलिए सामान्यतया परिवारों में पलने वाले बच्चे बहुत सारे पितृसत्तात्मक सांस्कृतिक पूर्वाग्रह लेकर बड़े होते हैं. लड़के एक मरदाना दंभ व स्त्री को हीन समझने की भावना ग्रहण करते जाते हैं. लड़कियां यह सीखती हैं की उन्हें बस समर्पण करना है प्रेममें उनका रोल समर्पण का होता है. यह वस्तुतः ऐसी विकृत्ति है जो समूचे समाज के यौन व प्रेम जीवन पर असर डालती है. लेकिन हम इसे इसलिए विकृत्ति के रूप में नहीं देख पाते क्योंकि हम इस के अभ्यस्त होते हैं. इसलिए इस समाज में स्त्री पुरुष के संबधों के विक्रित्तिमुक्त होने की सम्भावना बहुत कम होती है. असल यौन विकृत्ति तो यह है. बलात्कार जैसे जघन्य अपराध इस विकृत्ति का चरम रूप हैं. वस्तुतः बलात्कार कोरा शारीरिक एक्ट नहीं होता है यह पुरुषों द्वारा स्त्री के अस्तित्व को गुलाम बनाने की सांस्कृतिक प्रवृत्ति का चरम रूप है. सिमोन, जरमेन ग्रैअर और अंजेला द्वोर्किन जैसी नारीवादी इसको सिध्ध कर चुकी हैं की कई बार ऐसे रिश्तों में भी जो बहुत सामान्य और प्रेमपूर्ण दिखाई देते हैं स्त्री की गुलामी और उसके व्यक्तित्व का दमन निहित होता है. इब्सन अपने नाटक डॉल्स हाउस में इसे दिखा चुके हैं. कल्पन कीजिये की उस डॉल्स हाउस में पलने वाले बच्चे की क्या वह विकृत्त नहीं होगा
यहाँ मेरे कहने का अर्थ यह नहीं हैं की समलैंगिक रिश्ते अनिवार्य तौर पर इन चीजों से मुक्त होते हैं. मेरे कहने का अर्थ यह है की हमें यौन विकृत्ति शब्द को परिभाषित करते हुए सावधानी से काम लेना चाहिए. वस्तूतः अमूमन समाज में मौजूद पितृसत्ता का रिफ्लेक्शन समाज में सभी प्रकार के यौन संबंधों पर पड़ता है. समलैंगिक संबंधों में भी अमूमन एक पार्टनर वर्चस्वशाली का व एक दमित का रोल निभा रहा होता है.
लेकिन यौन संबंधों में विकृत्ति का निर्धारण दरअसल इस मानदंड से होना चाहिए की समबन्ध में कितने पारस्परिकता है. और क्या वह संबध एक पार्टनर के वर्चस्व पर आधारित है?
इसलिए यह नहीं कहा जा सकता है कि विषमलिंगी संबंधों के आधार पर बने परिवारों में पलने वाले बच्चों के विकृत्त होने की सम्भावना नहीं होती है.

अनामदास said...

उच्च कोटि की बहस का आनंद आया. बात निकले तो फिर दूर तक जानी ही चाहिए, अनिल जी हमेशा की तरह टनाटन लिखा है आपने.

Rangnath Singh said...

इस मुद्दे पर मेरी जानकारी बढ़ी है। इस मुद्दे पर मैंने कम ही सोचा विचारा है इसलिए मैं मूक श्रोता की भूमिका में हूँ। इस मुद्दे के सांस्कृतिक और सामाजिक-राजनीतिक पहलू पर अच्छी बहस हो रही है। भविष्य में आने वाली वाली टिप्पणियों और पोस्टों का इंतजार रहेगा।

मुनीश ( munish ) said...

"मुंडे मुंडे मतिर्भिन्ना:"
One thing, however, is certain that gays and lesbians are very innocuous and harmless people BUT many of them are bound to be "Bi-Sexuals" too and the real danger to this society comes from them . In fact, behind all this tamasha are these elements . Some of them have started professing it openly .
the court's ruling culminated in a party at Rohit Bal's restaurant that very evening and he minces no words in accepting that........ BOTH WILL DO .
Forces of Satan are on prowl , got ur copy of Hanumanchaleesa or not?

स्वप्नदर्शी said...
This comment has been removed by the author.
स्वप्नदर्शी said...
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Unknown said...

चंदू भाई,

जरूर और जल्दी लिखिए। इन्तजार रहेगा।

मुनीश ( munish ) said...

the pic. posted here is very..very repulsive specially when it rises head among previous post thumbnails !

Dinesh Semwal said...

hay bhagwan logoan kay pass kitna time hai!!!time pass karnay kay liyay!!!

अरुण अवध said...

गढ़ीयन के तीन नाम ,
बाबू ,राजा ,पहलवान !