[रसूल हमज़ातोव (गमज़ातोव) को कौन नहीं जानता होगा! उनकी किताब 'मेरा दाग़िस्तान' के पहले खण्ड की रेकॉर्डतोड़ प्रतियां बिक्री और तमामतर ज़बानों में उनका तर्ज़ुमा हुआ. उसका एक हिस्सा कबाड़ख़ाने पर लगाया गया था. दूसरा खण्ड कुछ सालों बाद आया जो दुर्भाग्यवश बहुत ज़्यादा लोगों तक हिन्दी में पहुंच न सका. दूसरे खण्ड की शुरूआत विलक्षण है. हिन्दी अनुवाद डॉ. मदनलाल मधु का है. पेश है:]
छोटी सी चाबी से बड़ा सन्दूक खोला जा सकता है - मेरे पिता जी कभी कभी ऐसा कहा करते थे. अम्मां तरह तरह के क़िस्से-कहानियां सुनाया करती थीं - "सागर बड़ा है न? हां बड़ा है. कैसे बना सागर? छोटी सी चिड़िया ने अपनी और भी छोटी चोंच ज़मीन पर मारी - चश्मा फूट पड़ा. चश्मे से बहुत बड़ा सागर बह निकला."
अम्मां मुझ से यह भी कहा करती थीं कि जब काफ़ी देर तक दौड़ लो - तो दम लेना चाहिये, बेशक तब तक, जब तक कि हवा में ऊपर को फेंकी गई टोपी नीचे गिरती है. बैठ जाओ, सांस ले लो.
आम किसान भी यह जानते हैं कि अगर एक खेत में, वह चाहे कितना भी छोटा क्यों न हो, जुताई पूरी कर दी गई हो और दूसरे खेत में जुताई शुरू करनी हो तो ज़रूरी है कि इसके पहले मेड़ पर बैठकर अच्छी तरह से सुस्ता लिया जाए.
दो पुस्तकों के बीच का विराम - क्या ऐसी ही मेड़ नहीं है? मैं उस पर लेट गया, लोग क़रीब से गुज़रते थे, मेरी ओर देखते थे और कहते थे - हलवाहा हल चलाते चलाते थक गया, सो गया.
मेरी यह मेड़ दो गांवों के बीच की घाटी या दो घाटियों के बीच टीले पर बसे गांव के समान थी.
मेरी मेड़ दागिस्तान और बाक़ी सारी दुनिया के बीच एक हद की तरह थी. मैं अपनी मेड़ पर लेटा हुआ था, मगर सो नहीं रहा था.
मैं ऐसे लेटा हुआ था, जैसे पके बालों वाली बूढ़ी लोमड़ी उस समय लेटी रहती है, जब थोड़ी ही दूरी पर तीतर के बच्चे दाना-दुनका चुग रहे होते हैं. मेरी एक आंख आधी खुली हुई थी और दूसरी आधी बन्द थी. मेरा एक कान पंजे पर टिका हुआ था और दूसरे पर मैंने पंजा रख लिया था. इस पंजे को मैं जब तब ज़रा ऊपर उठा लेता था और कान लगाकर सुनता था. मेरी पहली पुस्तक लोगों तक पहुंच गई या नहीं? उन्होंने उसे पढ़ लिया कि नहीं? वे उसकी चर्चा करते हैं या नहीं? क्या कहते हैं वे उसके बारे में?
गांव का मुनादी करने वाला, जो ऊंची छत पर चढ़कर तरह तरह की घोषणाएं करता है, उस वक़्त तक कोई नई घोषणा नहीं करता जब तक उसको यकीन नहीं हो जाता कि लोगों ने उसकी पहले वाली घोषणा सुन ली है.
गली में से जाता हुआ कोई पहाड़ी आदमी अगर यह देखता है कि किसी घर में से कोई मेहमान नाक-भौं सिकोड़े, नाराज़ और झल्लाया हुआ बाहर आता है तो क्या वह उस घर में जाएगा?
मैं पुस्तकों के बीच की मेड़ पर लेटा हुआ था और यह सुन रहा था कि मेरी पहली पुस्तक के बारे में अलग-अलग लोगों की अलग-अलग प्रतिक्रिया हुई है.
यह बात समझ में भी आती है - किसी को सेब अच्छे लगते हैं और किसी को अखरोट. सेब खाते वक्त उसका छिलका उतारा जाता है और अखरोट की गिरियां निकालने के लिए उसे तोड़ना पड़ता है. तरबूज़ और खरबूज़े या सरदे में से उनके बीज निकालने पड़ते हैं. इसी तरह विभिन्न पुस्तकों के बारे में विभिन्न दृष्टिकोण होने चाहिए. अखरोट तोड़ने के लिए खाने की मेज़ पर काम आने वाली छुरी नहीं, मुंगरी की ज़रूरत होती है. इसी तरह कोमल और महकते सेब को छीलने के लिए मुंगरी से काम नहीं लिया जा सकता.
किताब पढ़ते हुए हर पाठक को उसमें कोई न कोई खामी, कोई त्रुटि मिल ही जाती है. कहते हैं कि ख़ामियां-कमियां तो मुल्ला की बेटी में भी होती हैं, फिर मेरी किताब की तो बात ही क्या की जाए.
खैर, मैंने थोड़ा सा दम ले लिया है और अब मैं अपनी दूसरी किताब लिखना शुरू करता हूं.
...
बड़े बूढ़ों ने हमें यह सीख दी थी - "सभी कुछ तो केवल सभी बता सकते हैं. लेकिन तुम वह बताओ जो बता सकते हो और तभी सभी कुछ बता दिया जाएगा. हर किसी ने अपना घर बनाया और नतीज़ा यह हुआ कि गांव बन गया. हर किसी ने अपना खेत जोता और नतीज़े के तौर पर सारी पृथ्वी ही जोती गई."
तो मैं तड़के ही उठ गया. आज मैं पहली हल रेखा बनाऊंगा. नए खेत में नई हल रेखा. प्राचीन परम्परा के अनुसार एक ही अक्षर से शुरू होने वाली सात चीज़ें मेज़ पर होनी चाहिये. मैं अपनी मेज़ पर नज़र दौड़ाता हूं और मुझे सातों चीज़ें वहां दिखाई देती हैं. ये हैं वे चीज़ें -
१. कोरा कागज़
२.अच्छे ढंग से गढ़ी हुई पेन्सिल
३. मां का फ़ोटो
४. देश का नक्शा
५. दूध के बिना तेज़ कॉफ़ी
६. उच्चतम कोटि की दाग़िस्तानी ब्रान्डी
७. सिगरेटों का पैकेट
अगर अब भी मैं अपनी किताब नहीं लिख सकूंगा तो कब लिखूंगा?
आज पहाड़ों में वसन्त है - वसन्त का पहला दिन है. मेरी तरह वह भी आज पहली हल रेखा बनाना शुरू कर रहा है.
"दागि़स्तान के वसन्त, यह बताओ कि तुम्हारे पास ऐसे कौन से सात उपहार हैं जो एक ही अक्षर से शुरू होते हों?"
"मेरे पास ऐसे उपहार हैं" वसन्त ने उत्तर दिया, "दागिस्तान ने ही उन्हें मुझे भेंट किया है. मैं अपनी भाषा में, इन उपहारों के नाम लूंगा और तुम उंगलियों पर उन्हें गिनते जाना.
१. त्सा - आग. ज़िन्दगी के लिए. प्यार और नफ़रत के लिए.
२. त्सार - नाम. इज़्ज़त के लिए. बहादुरी के लिए. किसी को नाम से पुकारने के लिए.
३. त्साम - नमक. ज़िन्दगी के ज़ायके के लिए, जीवन की मर्यादा के लिए.
४. त्स्वा -सितारा. उच्चादर्शों और आशाओं के लिए. उज्ज्वल लक्ष्यों और सीधे मार्ग के लिए.
५. त्सूम -उकाब. उदाहरण और आदर्श के लिए.
६. त्स्मूर - घण्टी, बड़ा घण्टा ताकि सभी को एक जगह पर एकत्रित किया जा सके.
७. त्सल्कू - छाज, छलनी, ताकि अनाज के अच्छे दानों को निकम्मी और हल्की भूसी-करकट से अलग किया जा सके."
दाग़िस्तान! ये सात चीज़ें तुम्हारे मज़बूत जड़ वाले वृक्ष की सात शाखाएं हैं. इन्हें अपने सभी बेटों को बांट दो, मुझे भी दे दो. मैं आग, और नमक, उकाब और सितारा, घण्टा और छाज-छलनी बनना चाहता हूं. मैं ईमानदार आदमी का नाम पाना चाहता हूं.
मैं नज़र ऊपर उठाकर देखता हूं और वहां मुझे सूरज और बारिश, आग और पानी से बुना हुआ आसमान दिखाई देता है. अम्मां हमेशा कहा करती थीं कि सपने के समय ही आग और पानी से दाग़िस्तान बनाया गया था.
5 comments:
Thnx for sharing this moving piece of prose full of rustic common sense and lust for life .Everyone should read this wonderful book .
It has some symbolic message also for the admirers of Kabaadkhaana!
रसूल हमज़ातोव हमारे प्रिय कवि-लेखक हैं। मेरा दागिस्तान को कई बार खरीदा और हर बार वो किसी और की प्रिय हो गई, हाथ से निकल गई। अब फिर हाथ लगी है और फिर पढ़ डाला है उसे। हमारे पास दोनों खंड है।
ब्लाग, ब्लागिंग और ब्लागर निखरेंगे और सुधरेंगे और बचेंगे तो ऐसी ही पोस्टों के कारण. रसूल, मेरे रसूल... सलाम.
और अशोक, सलाम, तुझे भी.
@ Ajit: पता नहीं आपका इलाका गऊ -पट्टी में आता है या नहीं मगर यहाँ ये आदत बहुत है लोगों में और उन तमाम लोगों को मैं लानतें भेजने की इजाज़त चाहता हूँ..........
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