Wednesday, August 19, 2009

"मैं दुनिया की तमाम नदियों पर बने पुलों पर रहता हूं." - लोर्का


19 अगस्‍त, 73वां शहादत-दिवस, फ़ेदरीको गार्सिया लोर्का (1898-1936)

टूटे हुए पुलों के इस दौर में हम लोर्का को फिर याद कर रहे हैं. लेकिन, यह याद एकरस और अकेली नहीं है. लोर्का के साथ कुछ भी केवल अकेले नहीं हो सकता. इस याद में गिटारों का रुदन, चंद्रमाओं के सेब, तारों के परदे, अरबी लड़कियां, खुले अहाते और हरे रंग के छींटे भी शामिल हैं. और इसमें शामिल हैं गोंगोरा की क्‍लासिकी कविता की लीकें, सत्‍ताइस की पीढ़ी के भावनात्‍मक ज्‍वार, मानुएल दे फ़ाया का उदात्‍त संगीत, साल्‍वादोर डाली की अतियथार्थवादी कल्‍पनाएं, मंच और कठपुतलियां, यात्राएं और ठहराव, दोस्‍ती-यारी, प्‍यार, स्‍वप्‍न, धुंआ, मौत और गूंज.

मालूम होता है कि अल्‍हाम्‍ब्रा की ख़ामोश बुर्जियां किसी जहाज़ के मस्‍तूलों की तरह एक लंबे सफ़र पर निकल जाने को तैयार हैं. इस सफ़र में अंदालूसिया के मैदान जितने शरीक़ हैं, उतने ही मालागा के समुद्र तट और जिप्सियों के भर्राए गलों वाले गीत भी. क्‍योंकि, आखिर फ़ेदरीको लोर्का को कभी भी अपने समय के साथ ही अपनी परंपरा, अपने परिवेश और अपने लोकमानस से अलगाकर नहीं देखा जा सकता.

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जून, 1898 में स्‍पेन के ग्रानादा इलाक़े में जन्‍मे फ़ेदरीको ग‍ार्सिया लोर्का ने इस्‍पहानी परंपरा, लोक-संस्‍कृति, संगीत और अपने समय की मानव नियति को गहरे से आत्‍मसात किया था. उन्‍होंने गिटार-पियानो बजाते, कॉफ़ी हाउसों में बहस करते, बंजारों-बुद्धिजीवियों-किसानों के बीच रहते हुए अपने सृजन को नए आयाम दिए. 22 वर्ष की उम्र में प्रकाशित उनके पहले नाटक और 23 की उम्र में प्रकाशित पहले कविता संग्रह ने ही उन्‍हें अपने लोगों के बीच ज़रूरी, महत्‍वपूर्ण और प्रिय बना दिया था. सघन ऐंद्रिक बोध, लय, लोक-संवेदना, मिथक चेतना, गीतिमयता और स्‍थानिकता के रंगों-ध्‍वनियों के साथ उनकी आवाज़ अपने लोगों के सुखों-दु:खों का प्रामाणिक दस्‍तावेज़ बनती गई. 31 वर्ष की उम्र में लोर्का न्‍यूयॉर्क गए और वहां के यांत्रिक यथार्थ और अश्‍वेतों की चिंतनीय दशा ने उनके निर्मल हृदय को झकझोर दिया. 'न्‍यूयॉर्क में कवि' संग्रह उनकी मृत्‍यु के चार वर्ष बाद प्रकाशित हुआ, जिसमें उनकी गहरी पक्षधरता और ऊर्जा उजागर हुई.

इस दौरान प्रकाशित उनके कविता संग्रहों और नाटकत्रयी 'ब्‍लड वेडिंग', 'येरमा' और 'हाउस ऑफ़ अल्‍बामा' (हिंदी में रघुवीर सहाय के अनुवाद में 'बिरजीस कदर का क़ुनबा' शीर्षक से प्रकाशित) ने उन्‍हें इस्‍पहानीभाषी इलाक़ों का लोकप्रियतम साहित्यिक सितारा बना दिया, जो यूरोप से लेकर लातिन अमरीका तक पसरे थे. अपने घुमंतू थिएटर दल 'ला बाराका' के तहत वे गांव-गांव जाकर नाटकों का मंचन करते. जनता के बीच कविता पाठ उन्‍हें सुहाता था. अपने बुलफ़ाइटर दोस्‍त इग्‍नेशियो सांचेज़ मैख़ीआस की मृत्‍यु पर उनके द्वारा लिखा गया विलाप आधुनिक विश्‍व कविता के श्रेष्‍ठ शोकगीतों (एलिजी) में गिना जाता है. इसी तरह वॉल्‍ट विटमैन और साल्‍वादोर डाली के लिए लिखे गए 'ओड' भी श्रेष्‍ठ संबोधन गीत हैं. 'जिप्‍सी बैलेड्स' की इस्‍पहानी लोकमानस में अपार लोकप्रियता तो असंदिग्‍ध है ही, जिसने 'जिप्‍सी लोर्का' का मिथक स्‍थापित कर दिया था.

लेकिन अपनी रचनात्‍मकता के चरम पर ही स्‍पेन में गृहयुद्ध छिड़ने का अकारण ख़ामियाज़ा लोर्का को भुगतना पड़ा. अगस्‍त, 1936 में ग्रानादा में प्रवेश करने पर फ़ासिस्‍ट फ़ालांज दल के जनरल फ्रांको के सैनिकों द्वारा लोर्का का अपहरण करते हुए उनकी गोली मारकर हत्‍या कर दी गई. लोर्का का क़सूर था रेडिकल जनतांत्रिक मूल्‍यों में आस्‍था और अंधे राष्‍ट्रवाद से नफ़रत. उनकी किताबें ग्रानादा के चौराहों पर सार्वजनिक रूप से जलाई गईं. आज भी यह पता नहीं चल सका है कि लोर्का की मृत देह कहां दफ़नाई गई है. उनकी नृशंस हत्‍या की विश्‍वभर में कड़ी निंदा की गई और इस घटना ने पाब्‍लो नेरूदा और अर्नेस्‍ट हेमिंग्‍वे जैसे लेखकों पर गहरा प्रभाव डाला. मात्र 38 वर्ष की उम्र में क़त्‍ल कर दिए लोर्का की गिनती उनके जीवनकाल में ही दुनिया के महानतम कवि-नाटककारों में होने लगी थी. आज भी उन्‍हें पढ़ना, उनके चहल-पहलभरे जीवन और दारुण अंत को याद करना अपने आपमें एक गहरा सार्थक मानवीय और सृजनात्‍मक अनुभव है.

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वो याद- जो उदास भले करे, पर कभी भी अकेला नहीं होने पाती
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चिनार के दरख्‍़त चुप हैं फ़ेदरीको...

(लोर्का के लिए)

तुम्‍हारी कविताओं की सरहद जहां तक पहुंचती है फ़ेदरीको
उतने ही बड़े साबित हुए हैं तुम्‍हारे पैर
ठहरे हुए और शोक में डूबे जूतों में दुबकी मौत
और काले गोश्‍त के कंधे को नंगे पैर लांघते
देहातियों के सूखे-दरारोंवाले चेहरों पर
लाल शराब की नशीली आंच की मानिंद फैल गए तुम
और तब्‍दील हो गए धरती की कड़वी और
हड्डियों तक छेद देने वाली आवाज़ में
तुम्‍हारा नाम एक परचम है फ़ेदरीको
गर्म-जवान ख़ून के धब्‍बों वाली
देहलीज़ पे लहराता एक परचम
जिस पे लिक्‍खा है- 'ला बाराका!'

तुम्‍हारे गीत औचक
गीली पत्तियों की तुर्श हवा में
कौंधते हैं
पानी की हर बूंद में
गितार के लोअर ऑक्‍तेव सरीखी
तुम्‍हारी आवाज़ को आंकने की
कोशिश करते हैं हम
देज़ी के फूलों, मधुमक्खियों, धूसर मोतियों
और खिड़कियों से तारों का परदा हटाकर
ताकते हैं सीसे के आकाश में
अस्थिपंजरों के जबड़ों से सोने के दांत खींचकर
निकालने वाले हत्‍यारों को तुम
ज़ब्‍त नहीं हुए थे फ़ेदरीको
समुद्र की सलवटों पर सेब की तरह उछलते
छठे चांद की परछाई में कान लगाकर
अब भी सुनते हैं हम
ठहाकों की शराब में डूबे
तुम्‍हारे जंगली बैलेड

तुम्‍हारा नाम लेकर पुकारने वाले
चिनार के दरख्‍़त उसी रोज़ से ख़ामोश हैं
जब विज्‍़नार में देहात की दीवार के क़रीब
उधड़ी रोशनियों की उड़ती चीलों के नीचे
तुम गिर पड़े थे एक कटे पेड़ की तरह
किसी अंदालूसी गीत की जिंदादिल गूंज
मेंदोलिन की उदास ख़ामोशी में गुम गई थी
इस्‍पहानी धरती की छाती चीरते
इस्‍पात के हलों ने ठिठकते हुए देखी थीं-
उखड़ी जड़ें नहीं, बल्कि मृत देहें
कड़वे शहद में लथपथ

और मैं, तुम्‍हारी आवाज़ का हरकारा
लिहाफ़ में छुपी तुम्‍हारी चिट्ठियों को
अपनी ज़बान के उजाले में लेकर आता रहा महीनों
सर्दियों की लंबी रातों में
और अक्‍सर मैंने चाहा है ख़ासी शिद्दत के साथ
एक चिट्ठी लिखना तुम्‍हारे नाम
लालच और ज़ुल्‍म की खिलाफ़त में गवाही जैसी
कविताओं और कठपु‍तलियों के हक़ में
31, आसेरा देल कासिनो, ग्रानादा की इबारत बांचते
मैं भटकता रहता अंधेरे में
सिएरा नेवादा के पहाड़ चुपचाप खड़े रहते
तुम्‍हारा कोई तयशुदा पता नहीं मिलता

और नीबू के फूलों की भाप में
ख़ामोश तैरते रहते वेलेनसियन खेत
गुलाबों की राख उड़ती रहती
तुम दुनिया की तमाम नदियों के पुलों को
अपने बड़े-बड़े नंगे पांवों से लांघते
समुद्री घास की नशीली गंध में
गुम हो जाते हो फ़ेदरीको

और अपनी बेचैन रूह के उसी बेमाप कुंए से
हमें आवाज़ देते रहते हो हरदम
जिससे संत थेरेसा ने अपना भीतरी किला गढ़ा था
जबकि हमारी बहरी और हत्‍यारी सदी
चाक़ू की चमकीली धार पर महज़
लड़खड़ाते खड़ीभर रह सकी है

(पेन्टिंग: युवा अमरीकी चित्रकार एमिली टारलेटन द्वारा फ़ेदेरिको गार्सिया लोर्का की कविता पर आधारित पोर्ट्रेट)

8 comments:

Ashok Pande said...

बेहतरीन आलेख! वैसी ही बेहतरीन कविता भी!

प्रेम, कविता और क्रान्ति के महागायक लोर्का को नमन.

दीपा पाठक said...

एक और बहुत अच्छी पोस्ट आपकी। लगभग गाते-गुनगुनाते शब्दों से चित्र खींचते हैं आप किसी भी व्यक्तित्व का। अगली पोस्ट का इंतज़ार हमेशा रहता है।

अभिषेक मिश्रा said...

लोर्का की शहादत को सलाम !
पोस्ट के साथ दी गई कविता शानदार है. कविता का लेखक कौन है ?

Ashok Pande said...

कविता भी सुशोभित सक्तावत की ही है.

iqbal abhimanyu said...

जवाहरलाल नेहरु विश्वविद्यालय में स्पैनिश साहित्य के एक विद्यार्थी की बधाई स्वीकार कीजिये, लोर्का के बारे में हालाँकि पढ़ा तो है, और उन्हें भी पढ़ा है लेकिन इस पोस्ट ने उनके जीवन को साकार कर दिया. सुशोभित जी को भी मर्मस्पर्शी कविता की लिए साधुवाद !
मेरे विचार से नाटक त्रयी के तृतीय नाटक का नाम "हाउस ऑफ़ बर्नादा अल्बा" है , एक बार जांच कर लीजियेगा.
कबाड़खाना का नियमित पाठक हूँ लेकिन आम तौर पर टिप्पणी करने में आलस कर जाता हूँ.

Ashok Pande said...

भाई इकबाल अभिमन्यु

आमतौर पर यह माना जाता है कि 'येरमा', 'द हाउस ऑफ़ बारनार्दो आल्वा' और 'बल्ड वैडिंग' मिलकर लोर्का की Rural Trilogy का निर्माण करते हैं; यह अलग बात है कि लोर्का की Trilogy of the Spanish Earth की योजना अधूरी ही रह हई थी. और यह बात साबित है कि इस योजना में 'द हाउस ऑफ़ बारनार्दो आल्वा'शामिल नहीं था.

सुशोभित सक्तावत लोर्का पर एक बड़े महत्वपूर्ण अनुवाद में व्यस्त हैं, मुझे आशा है इस बारे में वे ज़्यादा सही सूचना दे सकेंगे.

आप कबाड़ख़ाना नियमित पढ़ते हैं, अच्छा लगा. धन्यवाद!

sanjeet said...

it will be too unfortunate for us if we leave Lorca in respect to literature.....any way i really apriciate those people who are goving these unvalueable information to the readers

ravindra vyas said...

सुशोभित ने बहुत सुंदर लिखा है। उसकी कविता भी शानदार है।