Saturday, August 22, 2009
गोरबन्द और निम्बुड़ा के दूसरे संस्करण
निम्बुड़ा और गोरबन्द आप दो पोस्ट पहले सुन चुके हैं.
इन्हीं कम्पोज़ीशन्स को सुनिये लांगा-मंगणियारों के एक और समूह से. इनका गाया गोरबन्द मुझे ज़्यादा जीवन्त और आकर्षक लगा. ये कम्पोज़ीशन्स 'निम्बुड़ा निम्बुड़ा' नामक एक अल्बम का हिस्सा हैं जो मुझे दिल्ली के पालिका बाज़ार में मिला था. चूंकि सीडी पाइरेटेड है सो गायकों, संगीतकारों के बारे में कोई जानकारी मेरे पास नहीं है.
यदि आप में से कोई इन रचनाओं के बारे में जानते हों तो बताने का कष्ट करें. अहसान होगा
निम्बुड़ा
डाउनलोड लिंक:
http://www.divshare.com/download/8248005-9c0
गोरबन्द
डाउनलोड लिंक:
http://www.divshare.com/download/8248007-c10
(फ़ोटो: साभार श्री अशोक विश्वनाथन)
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10 comments:
राजस्थान की अंतर्राष्ट्रीय सीमा पर अगर आप कच्छ के रन से चलना आरम्भ करेंगे तो सबसे पहले आपको लोकगीत "हमरचो" और उससे मिलता जुलता स्वर सुनाई देगा, दूर से आती कोई आवाज़ आपको "हम राह अचो" कहते हुए अपने काफिले में शामिल कर लेगी. इन गीतों में सिंध प्रदेश की संस्कृति और कला का भरा पूरा वर्णन मिलेगा ये आपका श्रृंगार खारे समंदर से लायी हाई कोडियों से करेंगे. गायक स्वरों की सिन्धी छाप आपको शाम होते ही रंग बदलती दिखाई देगी, गुलाम फरीद और फिर बुल्ले शाह के सूफी कलाम इन सामुदायिक गीतों के स्थान ले लेंगे. रात होते होते ये सिन्धी कलाम भाषाओँ की सीमा लांघते हुए पंजाबी और फिर अमीर खुसरो तक की ओर ले जा सकते हैं. ऐ बुल्लिया अजे कुछ नीं खटिया (कमाया) जे तूं यार ना कित्ता राजी... कहते हुए शीशम की लकड़ियों से बनी खड़ताल से भी इतने गहरे सुर बजायेंगे कि आप अपने यार में समा जायेंगे. बाड़मेर से होते हुए जैसलमेर तक आप मंगणियारों को सुन सकते हैं. मंगणियार आम आदमी के गायक हैं तो इनके सुरों में मिठास का बोल बाला है. विरह के गीत भी इस तरह से गाते हैं जैसे कोई गुड की शराब पीता हो. इन मंगणियारों की गायकी में सहजता मिलेगी अपनापन मिलेगा और नजदीकी मिलेगी. फिर आप आगे बीकानेर पहुँच जायेंगे गायकी कुछ और शास्त्रीय होती हुई ठुमरी जैसी किसी परंपरा की मांड रचना से परिचय करावा देगी. मांड के उद्भव और विकास के बारे में ज्यादा नहीं लिखूंगा, ये एक विस्तृत विषय है और मैं अभी भी दाखों के दारू के नशे में ही हूँ कल रात आपके आग्रह पर कलाली एक पूरा जरिकन पहुंचा गयी थी.
संगीत कम्पनियाँ राजस्थान के संगीत को जारी करते समय लंगा और मंगणियारों को एकमेव कर देती हैं इसके पीछे उनका उद्देश्य होता है अधिक बिक्री जबकि दोनों की गायकी में रात और दिन का अंतर मेरे जैसा मूढ़ श्रोता भी आँख मूँद कर समझ सकता है. मंगणियारों के विपरीत लंगा दरबारी गायक थे उन्होंने गायकी में अपने हुनर को बल दिया, वे जब गाते हैं तो कला पक्ष ही छाया रहता है. उनके जादू भरे सुरों में आप कितनी मुर्कियाँ और आरोह अवरोह पाएंगे मैं कह नहीं सकता. आज आपने जो निम्बुडा सुनाया है ये जोधपुर के लंगों का गाया हुआ है सीमा के मंगणियारों के स्वर इसमें कम हैं. आगे आप गंगानगर पहुंचेंगे तो कुछ भाट स्वर आपका मनोरंजन करेंगे. इनके यहाँ आपको सीधी गायकी मिलेगी. जितना गहरा पानी है वहां उतनी ही गहरी प्रेम और वियोग से उपजे दर्द की गायकी है. इसलिए कभी हम गहरा पानी पीने वालों के देश में आईये, आपके प्रेम की डगर यहीं से जाती है शायद. आपको पालिका बाज़ार में जो मिला है वह किसी स्थानीय स्टूडियो की रिकार्डिंग है साज़ कम निखर रहे हैं और गायक का बेस गायब है. मुझे तो आपके संगीत प्रेम और उसके लिए किये जा रहे प्रयासों पर रश्क हुआ जाता है. मैं समझता हूँ कि कोई सरकारी प्रयास किसी लोक विधा का संरक्षण नहीं कर सकता है क्यंकि वो हमारी यानि लोक कि पूँजी है इसे आने वाली पीढियां ऐसे ही किसी कबाड़खाने जैसे पन्ने पर सुनेंगी.
जिलाई बाई वाली पोस्ट के साथ लगी तस्वीर आपकी गहरी सामाजिक-सांस्कृतिक समझ का परिचय देती है मैं ऐसी कोई पोस्ट लिखता तो शायद इतनी उपयुक्त तस्वीर ना खोज पाता. आज की पोस्ट के भीतर एक और पोस्ट लगी है श्री विश्वनाथन साहब का फोटो. दो सुरीले खानाबदोशों के साथ एक कम सुरीला खानाबदोश.
इन्हें सुनना रोमांचक लगता है । सोने पर सुहागा का काम किया है किशोर जी की विशद टिप्पणी ने। आप दोनों ही धन्यवाद के पात्र है।
मेरे अनुरोध का मान रखने का धन्यवाद भाई किशोर जी. काफ़ी अच्छी टिप्पणी की आपने.
किशोरभाई की टिप्पणी अपने आप में रेगिस्तानी सुरों का सफरनामा है। बहुत खूब।
किशोर जी की टिप्पणी रेगिस्तानी संगीत पर बहुत कुछ बयान करती हुई है इसमें कुछ भी जोड़ने की गुंजाइश मैं अपने भीतर नहीं पाता. इन दो लोकगीतों पर यही कहूँगा कि गोरबंध यहाँ का शाश्वत गीत है जो असल में यहाँ के आदमी के सबसे खरे दोस्त ऊँट का श्रृंगार है. निम्बूडा वैश्विक बाज़ार का फरमाइशी गीत ज़्यादा है जिसे गाजी खान ने कुछ ज़रुरत से ज़्यादा चढा दिया है.
संगीत के इस सफरनामे का शुक्रिया.
हालांकि इनमें से कुछ चीजें सुन चुका हूं लेकिन फिलहाल मेरे पास सुनने की कोई व्यवस्था नहीं । दारू वाली पोस्ट में फोटो बहुत ही बेहतरीन लगाया है।
इसमें मटकी का इस्तेमाल महसूस होता है। इससे कह सकता हूं कि ये लंगा नहीं मांगणियार कलाकारों की प्रस्तुति है। पिछले दिनों बुंदू खां लंगा का एक कार्यक्रम स्पिक मैके में सुना था। उससे कह सकता हूं कि यह बूंदू खां एण्ड पार्टी का नहीं है। जैसलमेर का लहजा है सो मांगणियार कलाकारों की यह जीवंत प्रस्तुति है।
थिरकने का मजबूर कर देती है।
सुनाने के लिए आभार...
इस पोस्ट को देखते साथ ही मेरे मन में एक ही ख्याल आया 'चोरी' , किशोर जी आप तो भुक्त-भोगी हैं,,,,अब क्या है कि इतनी प्यारी पोस्ट और किशोर जी कि ऐसी दम-दार टिपण्णी ... और दाख-रस का ज़िक्र (पूरी जरकन का ज़िक्र किया है उन्होंने) .... उसपर से ऐसा मतवाला संगीत....हालाँकि मुझे मदिरा के बारे में कोई भी इल्म नहीं है लेकिन पढ़ कर ही मैं भी गहरे पानी वाले देश के गहरे प्रीत का रसास्वादन करने लगी .....किशोर जी आप अपनी लेखनी से कुछ भी कर सकते हैं....अब देखिये न 'गहरा पानी पीने वालों के देश में आईये, आपके प्रेम की डगर यहीं से जाती है शायद' इन पंक्तियों को पढ़ कर कौन है जो वहां नहीं आने की सोचे......हमने भी सोच ही लिया शायद हमारी भी कोई डगर वहां से गयी हो....
रेगिस्तानी संगीत का यह नायब तोहफा दिया है आपने हम पाठकों को...बहुत ही सुरीला...मनभावन .....
कुछ पाठकों को और भी ज्यादा आकर्षित कर गया क्यूंकि 'निम्बुडा' बेशक बहुत ही उथले तरीके से किसी फिल्म संगीत में लिया गया है ......कौतुहल दे जाता है कि बॉलीवुड कहाँ-कहाँ से संगीत चुरा लेता है.....
शब्दों का संसार सिमट गया है, इस पोस्ट की तारीफ नहीं कर पाउंगी ...और किशोर जी की तारीफ करने की न तो मैंने कभी हिमाकत की है न ही आज करुँगी .....बस नत-मस्तक हूँ....
इस पोस्ट को देखते साथ ही मेरे मन में एक ही ख्याल आया 'चोरी' , किशोर जी आप तो भुक्त-भोगी हैं,,,,अब क्या है कि इतनी प्यारी पोस्ट और किशोर जी कि ऐसी दम-दार टिपण्णी ... और दाख-रस का ज़िक्र (पूरी जरकन का ज़िक्र किया है उन्होंने) .... उसपर से ऐसा मतवाला संगीत....हालाँकि मुझे मदिरा के बारे में कोई भी इल्म नहीं है लेकिन पढ़ कर ही मैं भी गहरे पानी वाले देश के गहरे प्रीत का रसास्वादन करने लगी .....किशोर जी आप अपनी लेखनी से कुछ भी कर सकते हैं....अब देखिये न 'गहरा पानी पीने वालों के देश में आईये, आपके प्रेम की डगर यहीं से जाती है शायद' इन पंक्तियों को पढ़ कर कौन है जो वहां नहीं आने की सोचे......हमने भी सोच ही लिया शायद हमारी भी कोई डगर वहां से गयी हो....
रेगिस्तानी संगीत का यह नायब तोहफा दिया है आपने हम पाठकों को...बहुत ही सुरीला...मनभावन .....
कुछ पाठकों को और भी ज्यादा आकर्षित कर गया क्यूंकि 'निम्बुडा' बेशक बहुत ही उथले तरीके से किसी फिल्म संगीत में लिया गया है ......कौतुहल दे जाता है कि बॉलीवुड कहाँ-कहाँ से संगीत चुरा लेता है.....
शब्दों का संसार सिमट गया है, इस पोस्ट की तारीफ नहीं कर पाउंगी ...और किशोर जी की तारीफ करने की न तो मैंने कभी हिमाकत की है न ही आज करुँगी .....बस नत-मस्तक हूँ....
देर से आने के लिए क्षमा | सच कहता हूँ आपके इस पुनीत प्रयास की प्रशंशा के लिए मुझे उचित शब्द ही नहीं मिल रहा है | वैसे भी मुझ जैसे व्यक्ती के लिए अपनों भावों को सही शब्दों मैं व्यक्त करना बहुत कठिन होता है | पर एक बात ये भी है की भावों को बिना शब्दों के भी बेहतर तरीके से समझा जा सकता है | मैं लोग गीतों को सुनकर भाव विभोर हो जाता हूँ | एक लोक कलाकार जिसे कोई ट्रेनिंग नहीं, पैसों की तंगी, समाज मैं रोज मर्रा की जद्दोजहद, अथक परिश्रम के बावजूद कोई खास पहचान हैं .. पर इन सबों के बिच भी अपने सुर-ताल-ले से संगीत की अप्रतिम छटा बिखेरते रहते हैं |
भाई मैं तो इन्हें सच्चा भारतीय कला का पुजारी मानता हूँ | भले ही मीडिया और अंग्रेजीदा लोगों की नजर मैं इनका मूल्य दो कौडी का भी ना हो पर भारत की आत्मा इन्हें रोज प्रणाम करती है |
किशोर भाई आप लोग गीत की अच्छी पकड़ रख कर कहते हो की मूढ़ श्रोता हो ! विनम्रता ज्ञानियों की पूंजी होती है | आपने टिपण्णी मैं बहुत कुछ बताया है जिसे सिर्फ पढ़ कर पूरा समझना मुस्किल है | लोक गीतों का वास्ताविक आनंद तो उसी क्षेत्र मैं जा कर उठाया जा सकता है जहाँ ये लोग गीत गाई जाती है |
मेरे पास भी घोर्बंद है जो की लंडल के एलिजाबेथ हॉल मैं १९९० के आस-पास नवरस द्वारा रिकॉर्ड किया गया था | CD शायद Sony ने रिलीज़ किया था | मेरे पास और भी कुछकुछ ओरिजनल राजस्थानी लोक गीत है | यदि किन्ही को चाहिए तो मैं उन्हें इ-मेल कर सकता हूँ |
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