Tuesday, September 1, 2009

कविता से पहले अनुवाद देखिये! - मजाज़ हैं आज



अर्नेस्ट हैमिंग्वे की कहानियों (उपन्यासों नहीं) पर पी एच डी कर चुके श्री सैयद अली हामिद म्रेरे अंग्रेज़ी के अध्यापक थे एम ए में. नैनीताल के डी एस बी कैम्पस में. अब जीवन सिखाते हैं. जब तब. उनके साथ सीखा हुआ जॉन डन अब तलक हॉन्ट करता है. वे जैसे द फ़्ली के या अर्नेस्ट हैमिंग्वे के फ़्रान्सिस मैकॉम्बर के बारे में बताया करते थे, हम लौंडो-लबारों को ज़रा तहज़ीब आ जाया करती थी भाषा की.

मेरे सर्वप्रिय अध्यापकों में शुमार प्रोफ़ेसर हामिद का ताज़िन्दगी अहसान रहेगा मुझ पे - कई बातों के लिए - उन्हें बताना फ़िलहाल नहीं चाहता. लेकिन जिस अन्दाज़ में उन्होंने ये तर्ज़ुमा मजाज़ लखनवी की इस जगतप्रसिद्ध नज़्म का किया है, एकबारगी उनके पैर छू लेने का मन करता है.

तो सर यूं है कि आप का किया अनुवाद आज कबाड़ख़ाने पे लगाते हुए मैं क्या कहते हैं उसे उर्दू में ... हां ... मसर्रत से लबालब हूं. थैंक्स सर!

दो अनुवादों के बीच में तलत बाबा की गाई गयी, अमर बना दी गई रचना को याद करना न भूलें.


THE VAGABOND

At night I roam the city, sad and woebegone
A vagabond on the lively, glittering streets
In an alien land, how long can one wander ?
O this sorrow, this despair !

The glittering lamps stretch like a chain
A mellow image of day on the palms of night
But in my breast is a flaming sword.
O this sorrow, this despair !

This silvery shade, this web of stars above
Like a Sufi's imagination, a lover's fancy
But who feels, who understands my pain ?
O this sorrow, this despair !

Once again a star breaks, with a trail of fire
In whose lap will fall, this bead of pearls ?
Something strikes the heart and a painful sigh rises
O this sorrow, this despair !

To drink some wine, the night gently persuades
Knock at the door of a beautiful woman
Or, my friend, be lost in the wilderness
O this sorrow, this despair !

Everywhere is a carnival of colour and beauty
At every step I encounter pleasure and joy
But disgrace approaches with open arms
O this sorrow, this despair !

To stop for rest is not my habit
To retrace my steps is not my nature
And to meet a companion is not in my destiny
O this sorrow, this despair !

A devastating beauty waits for me
My touch can still open many doors
But my vow of fidelity comes in the way
O this sorrow, this despair !

Often the thought of breaking the vows
Relinquish the hope of winning her love
Demolish the castle I have built in air
O this sorrow, this despair !

From behind a castle rises the yellow moon
Like a muezzin's turban, a money-lender's ledger
A pauper's youth, a young widow's beauty
O this sorrow, this despair !

A flame rises from my heart , what to do ?
My endurance has collapsed, what to do ?
The fragrance of my wound cries out, what to do ?
O this sorrow, this despair !

At times the impulse to pluck the dead stars
Starting from one side and reaching the other
Not here and there, but a total demolition
O this sorrow, this despair !

Poverty stares at such scenes of plenty
So many tyrants are having their way
Hundreds of Chengez and Nadirs flourish
O this sorrow, this despair !

To snatch a Chengez's sword has become an urge
Break the jewel glittering on his crown
If no one helps, then do it single-handed
O this sorrow, this despair !

To destroy the despots is my aspiration
Burn their chambers and pleasure-gardens
Ravage the throne, the entire palace
O this sorrow, this despair !



ये रहा ओरिजिनल

शहर की रात और मैं, नाशाद-ओ-नाकारा फिरूँ
जगमगाती जागती, सड़कों पे आवारा फिरूँ
ग़ैर की बस्ती है, कब तक दर-ब-दर मारा फिरूँ
ऐ ग़म-ए-दिल क्या करूँ, ऐ वहशत-ए-दिल क्या करूँ

झिलमिलाते कुमकुमों की, राह में ज़ंजीर सी
रात के हाथों में, दिन की मोहिनी तस्वीर सी
मेरे सीने पर मगर, चलती हुई शमशीर सी
ऐ ग़म-ए-दिल क्या करूँ, ऐ वहशत-ए-दिल क्या करूँ

ये रुपहली छाँव, ये आकाश पर तारों का जाल
जैसे सूफ़ी का तसव्वुर, जैसे आशिक़ का ख़याल
आह लेकिन कौन समझे, कौन जाने जी का हाल
ऐ ग़म-ए-दिल क्या करूँ, ऐ वहशत-ए-दिल क्या करूँ

फिर वो टूटा एक सितारा, फिर वो छूटी फुलझड़ी
जाने किसकी गोद में, आई ये मोती की लड़ी
हूक सी सीने में उठी, चोट सी दिल पर पड़ी
ऐ ग़म-ए-दिल क्या करूँ, ऐ वहशत-ए-दिल क्या करूँ

रात हँस – हँस कर ये कहती है, कि मयखाने में चल
फिर किसी शहनाज़-ए-लालारुख के, काशाने में चल
ये नहीं मुमकिन तो फिर, ऐ दोस्त वीराने में चल
ऐ ग़म-ए-दिल क्या करूँ, ऐ वहशत-ए-दिल क्या करूँ

हर तरफ़ बिखरी हुई, रंगीनियाँ रानाइयाँ
हर क़दम पर इशरतें, लेती हुई अंगड़ाइयां
बढ़ रही हैं गोद फैलाये हुये रुस्वाइयाँ
ऐ ग़म-ए-दिल क्या करूँ, ऐ वहशत-ए-दिल क्या करूँ

रास्ते में रुक के दम लूँ, ये मेरी आदत नहीं
लौट कर वापस चला जाऊँ, मेरी फ़ितरत नहीं
और कोई हमनवा मिल जाये, ये क़िस्मत नहीं
ऐ ग़म-ए-दिल क्या करूँ, ऐ वहशत-ए-दिल क्या करूँ

मुंतज़िर है एक, तूफ़ान-ए-बला मेरे लिये
अब भी जाने कितने, दरवाज़े है वहां मेरे लिये
पर मुसीबत है मेरा, अहद-ए-वफ़ा मेरे लिए
ऐ ग़म-ए-दिल क्या करूँ, ऐ वहशत-ए-दिल क्या करूँ

जी में आता है कि अब, अहद-ए-वफ़ा भी तोड़ दूँ
उनको पा सकता हूँ मैं ये, आसरा भी छोड़ दूँ
हाँ मुनासिब है ये, ज़ंजीर-ए-हवा भी तोड़ दूँ
ऐ ग़म-ए-दिल क्या करूँ, ऐ वहशत-ए-दिल क्या करूँ

एक महल की आड़ से, निकला वो पीला माहताब
जैसे मुल्ला का अमामा, जैसे बनिये की किताब
जैसे मुफलिस की जवानी, जैसे बेवा का शबाब
ऐ ग़म-ए-दिल क्या करूँ, ऐ वहशत-ए-दिल क्या करूँ

दिल में एक शोला भड़क उठा है, आख़िर क्या करूँ
मेरा पैमाना छलक उठा है, आख़िर क्या करूँ
ज़ख्म सीने का महक उठा है, आख़िर क्या करूँ
ऐ ग़म-ए-दिल क्या करूँ, ऐ वहशत-ए-दिल क्या करूँ

मुफ़लिसी और ये मज़ाहिर, हैं नज़र के सामने
सैकड़ों चंगेज़-ओ-नादिर, हैं नज़र के सामने
सैकड़ों सुल्तान-ओ-ज़बर, हैं नज़र के सामने
ऐ ग़म-ए-दिल क्या करूँ, ऐ वहशत-ए-दिल क्या करूँ

ले के एक चंगेज़ के, हाथों से खंज़र तोड़ दूँ
ताज पर उसके दमकता, है जो पत्थर तोड़ दूँ
कोई तोड़े या न तोड़े, मैं ही बढ़कर तोड़ दूँ
ऐ ग़म-ए-दिल क्या करूँ, ऐ वहशत-ए-दिल क्या करूँ

बढ़ के इस इंदर-सभा का, साज़-ओ-सामाँ फूँक दूँ
इस का गुलशन फूँक दूँ, उस का शबिस्ताँ फूँक दूँ
तख्त-ए-सुल्ताँ क्या, मैं सारा क़स्र-ए-सुल्ताँ फूँक दूँ
ऐ ग़म-ए-दिल क्या करूँ, ऐ वहशत-ए-दिल क्या करूँ

जी में आता है, ये मुर्दा चाँद-तारे नोंच लूँ
इस किनारे नोंच लूँ, और उस किनारे नोंच लूँ
एक दो का ज़िक्र क्या, सारे के सारे नोंच लूँ
ऐ ग़म-ए-दिल क्या करूँ, ऐ वहशत-ए-दिल क्या करूँ

(बहुत जल्द मजाज़ साहब पर कुछेक पोस्ट का इन्तज़ार करें)

5 comments:

Fauziya Reyaz said...

lafz kam pad jaayenge lekin jazbaat khatam nahi honge....behad khoobsoorat...aur ye last lines swanand kirkire ne khoye khoye chand ki talash mein istemaal kiye hain...

जी में आता है, ये मुर्दा चाँद-तारे नोंच लूँ
इस किनारे नोंच लूँ, और उस किनारे नोंच लूँ
एक दो का ज़िक्र क्या, सारे के सारे नोंच लूँ
ऐ ग़म-ए-दिल क्या करूँ, ऐ वहशत-ए-दिल क्या करूँ

अनूप शुक्ल said...

अद्भुत! गुरुजी आपके ग्रेट हैं! शुक्रिया इसे यहां पढ़वाने का।

मुनीश ( munish ) said...

La-javaab !

प्रीतीश बारहठ said...

बहुत बार सोचा दुनिया को आग लगाकर परे हटूँ
पर दुनिया को अपने घर सा यार मानना पड़ता है

Ek ziddi dhun said...

आपके उस्ताद वाकई उस्ताद हैं.