Wednesday, September 23, 2009

'पृथ्वी के लिए तो रुको' का लोकार्पण



पहले कविता संग्रह के प्रकाशन और लोकार्पण के अवसर पर कबाड़ख़ाना अपने बेहद क़ाबिल और ज़हीन कबाड़ी भाई विजयशंकर चतुर्वेदी को मुबारकबाद देता है. प्रस्तुत है उनकी पुस्तक के लोकार्पण समारोह की एक रपट और उसके बाद विजय भाई की कुछ कविताएं. पाठकों को याद होगा कबाड़ख़ाने पर उनकी कविताओं पर एक लम्बी पोस्ट पहले लगाई जा चुकी है.



महाराष्ट्र राज्य हिन्दी साहित्य अकादमी ने युवा कवि विजयशंकर चतुर्वेदी के प्रथम कविता संग्रह 'पृथ्वी के लिए तो रुको' का लोकार्पण हिन्दी दिवस के अवसर पर मुम्बई में किया. टोकियो विश्वविद्यालय (जापान) के प्रोफेसर और हिन्दी के जाने-माने विद्वान श्री सुरेश ऋतुपर्ण के हाथों यह लोकार्पण हिन्दुस्तानी प्रचार सभा के सभागृह में संपन्न हुआ. इस अवसर पर महाराष्ट्र सचिवालय में कार्यरत वरिष्ठ आईएएस अधिकारी श्रीमती लीना मेंहदेले की पुस्तक 'मेरी प्रांतसाहबी' का लोकार्पण भी किया गया. कार्यक्रम की अध्यक्षता अकादमी के कार्याध्यक्ष नंदकिशोर नौटियाल ने की और विशेष अतिथि के तौर पर हिन्दुस्तानी प्रचार सभा के मानद सचिव सुभाष संपत उपस्थित थे.

विजयशंकर के कविता संग्रह पर अपनी बात रखते हुए प्रसिद्ध कवि डॉक्टर बोधिसत्व ने कहा- 'वर्ष में १०० के करीब कविता संग्रह छपते हैं लेकिन यह संग्रह उनसे भिन्न है. विजय की कविताओं में आलोचकों का दबाव नहीं है. ये कवितायें तुलसी से लेकर कबीर और बाबा नागार्जुन तक जुड़ती हैं. इनमें स्त्रियों के कई रूप हैं जिनमें माँ, बेटी, बहन का जिक्र बार-बार आता है. विषय भी इतने तरह के हैं जो आजकल देखने को नहीं मिलते.' इस अवसर पर बोधिसत्व ने विजयशंकर की एक कविता 'बेटी हमारी' का पाठ भी किया.

विजयशंकर चतुर्वेदी ने मुम्बई के वर्त्तमान साहित्यिक परिदृश्य पर चिंता व्यक्त करते हुए कहा- 'लगता है यह मुंबई में हम लोगों की आख़िरी पीढ़ी है जो कविता-कहानी लिख-पढ़ रही है. कुछ तो मुंबईबदर कर दिए गए. हमारे साथ भी अब यहाँ मुश्किल से दो-तीन नाम हैं. बाकी लोग जो लिख रहे थे या लिख रहे हैं उनमें से अधिकाँश उम्र के छठवें दशक में हैं. हमारे बाद मुंबई में काव्य-संस्कार पाया हुआ एक भी युवा नजर नहीं आता. महानगर के उर्दू परिदृश्य में तो हाल और भी बुरा है. यह चिंता का विषय इसलिए भी है कि मुबई में तथाकथित लेखक संगठन भी सक्रिय हैं लेकिन उन्होंने प्रतिभाएं तराशने की जगह प्रतिभाओं की कब्र ही खोदी है.’ बोरिस पास्तरनाक का उल्लेख करते हुए विजयशंकर का कहना था कि जरूरी नहीं है कि कवियों की शहर में बाढ़ ही आ जाए लेकिन अगर अच्छा साहित्य लिखने वाले युवा मुंबई में अधिक हों तो बुराई क्या है?

इस अवसर पर प्रोफेसर ऋतुपर्ण ने जापान के साथ-साथ अपनी गयाना, फिजी, त्रिनिदाद, मारीशस और अन्य देशों की यात्राओं तथा रहिवास के रोचक अनुभव सुनाते हुए कहा कि आज हिन्दी विश्वभाषा बन चुकी है और यह करोड़ों लोगों के दिलों की धड़कन है.अकादमी के कार्याध्यक्ष नंदकिशोर नौटियाल ने इस अवसर पर महत्वपूर्ण बात कही- "आज हिन्दी से भोजपुरी, अवधी, बुन्देलखंडी आदि को निकालने के अभियान चलाये जा रहे हैं. अगर ये बोलियाँ निकल गयीं तो हिन्दी में क्या बचेगा?" उन्होंने आरोप लगाया कि यह साजिश बड़े अफसरों की है ताकि हिन्दी मृतप्राय हो जाए और अंग्रेजी महारानी बनी रहे.श्रीमती लीना मेंहदेले ने विजयशंकर को बधाई देते हुए अपनी पुस्तक का परिचय दिया. प्रसिद्ध समीक्षक और हिन्दी की विदुषी डॉक्टर सुशीला गुप्ता ने कार्यक्रम का संचालन सूत्र सम्भाला. अकादमी के कार्यवाहक सदस्य सचिव जयप्रकाश सिंह ने खचाखच भरे सभागृह में उपस्थित विद्वज्जनों का आभार माना.

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संग्रह से कुछ कविताएं:

नौकरी पाने की उम्र

जिनकी चली जाती है नौकरी पाने की उम्र
उनके आवेदन पत्र पड़े रह जाते हैं दफ्तरों में
तांत्रिक की अँगूठी भी
ग्रहों में नहीं कर पाती फेरबदल
नहीं आता बरसोंबरस कहीं से कोई जवाब
कमर से झुक जाते हैं वे
हालाँकि इतनी भी नहीं होती उमर
सब पढ़ा-लिखा होने लगता है बेकार
बढ़ी रहती हैं दाढ़ी की खूँटियाँ
कोई सड़क उन्हें नहीं ले जाती घर
वे चलते हैं सुरंगों में
और चाहते हैं कि फट जाए धरती
उनकी याद्दाश्त एक पुल है
कभी-कभार कोई साथी
नजर आता है उस पर बैठा हुआ
वे जाते हैं
और खटखटाते हैं पुराने बंद कमरे
वहाँ कोई नहीं लिपटता गले से
चायवाला बरसों से बूढ़ा हो रहा है वहीं
मगर बदल जाते हैं लड़के साल दर साल
जिनकी चली जाती है नौकरी पाने की उम्र
वे सोचते हैं नए लड़कों के बारे में
और पीले पड़ जाते हैं।

किसके नाम है वसीयत

झाँझ बजती है तो बजे
मँजीरे खड़कते हैं तो खड़कते रहें
लोग करते रहें रामधुन
पंडित करता रहे गीता पाठ मेरे सिरहाने
नहीं, मैं ऐसे नहीं जाऊँगा।

आखिर तक बनाए रखूँगा भरम
कि किसके नाम है वसीयत
किस कोठरी में गड़ी हैं मुहरें।
कसकर पकड़े रहूँगा
कमर में बँधी चाबी का गुच्छा।

बाँसों में बँधकर ऐसे ही नहीं निकल जाऊँगा
कि मुँहबाए देखता रह जाए आँगन
ताकती रह जाए अलगनी
दरवाजा बिसूरता रह जाए।
मेरी देह ने किया है अभ्यास इस घर में रहने का
कैसे निकाल दूँ कदम दुनिया से बाहर।

चाहे बंद हो जाए सिर पर टिकटिकाती घड़ी
पाए हो जाएँ पेड़
मैं नहीं उतरूँगा चारपायी से।
चाहे आखिरी साबित हो जाए गोधूलिवेला
सूरज सागर में छिप जाए
रात चिपचिपा जाए पृथ्वी के आरपार
कृमि-कीट करने लगें मेरा इंतजार
धर्मराज कर दें मेरा खाता-बही बंद
मैं डुलूँगा नहीं।

खफा होते हैं तो हो जाएँ मित्र
शोकाकुल परिजन ले जाएँ तो ले जाएँ
मैं जलूँगा नहीं।

जन्मस्थान

किसी को नहीं रहता याद
कहाँ गिरा था वह पहली बार धरती पर

कहाँ जना गया
किस ठौर पड़ी थी उसकी सोबत?

आसान नहीं है सर्वज्ञों के लिए भी यह जान लेना
कि क्यों पैदा होता है कोई?

कितने ईसा
कितने बुद्ध

कितने राम
कितने रहमान

कितने फुटपाथ
कितने अस्पताल

कितने रसोईघर
कितने मैदान

कितने महल
कितने अस्तबल
कौन पार पा सकता है जच्चाघरों से?

कैसे बता सकती हैं खानाबदोश जातियाँ
किस तंबू में जनी गयीं वे

किस देस-घाट का पानी पीकर
चली आई अयोध्या तक...

माँ की नींद

किताब से उचट रहा है मेरा मन
और नींद में है माँ।
पिता तो सो जाते हैं बिस्तर पर गिरते ही,
लेकिन बहुत देर तक उसकुरपुसकुर करती रहती है वह
जैसे कि बहुत भारी हो गई हो उसकी नींद से लंबी रात।

अभी-अभी उसने नींद में ही माँज डाले हैं बर्तन,
फिर बाँध ली हैं मुट्ठियाँ
जैसे बचने की कोशिश कर रही हो किसी प्रहार से।
मैं देख रहा हूँ उसे असहाय।

माँ जब तब बड़बड़ा उठती है नींद में
जैसे दबी हो अपने ही मलबे के नीचे
और ले रही हो साँस।
पकड़ में नहीं आते नींद में बोले उसके शब्द।
लगता है जैसे अपनी माँ से कर रही है कोई शिकायत।

बीच में ही उठकर वह साफ कराने लगती है मेरे दाँत
छुड़ाने लगती है पीठ का मैल नल के नीचे बैठकर।
कभी कंघी करने लगती है
कभी चमकाती है जूते।
बस्ता तैयार करके नींद में ही छोड़ने चल देती है स्कूल।
मैं किताबों में भी देख लेता हूँ उसे
सफों पर चलती रहती है अक्षर बनकर
जैसे चलती हैं बुशर्ट के भीतर चीटियाँ।

किताब से बड़ी हो गई है माँ
सावधान करती रहती है मुझे हर रोज
जैसे कि हर सुबह उसे ही बैठना है इम्तिहान में
उसे ही हल करने हैं तमाम सवाल
और पास होना है अव्वल दर्जे में।
मेरे फेल होने का नतीजा
मुझसे बेहतर जानती है माँ।

(पुस्तक राधाकृष्ण प्रकाशन, ७/३१, अंसारी रोड, दरियागंज, नई दिल्ली से छपी है और संग्रह की कीमत है रु. एक सौ पचास)

7 comments:

प्रीतीश बारहठ said...

कवि को बधाई !

एस. बी. सिंह said...

विजयशंकर भाई को बधाई! आपका पुस्तक परिचय के लिए शुक्रिया। कवितायें अच्छी लगी।

Ashok Kumar pandey said...

विजय जी को बधाई

विजयशंकर चतुर्वेदी said...

अशोक भाई के बारे में इतना ही कहूंगा-
नारिकेल समाकारा दृश्यन्ते खलु सज्जना:
अन्ये बदरिकाकारा बहिरेव मनोहरा:

Naveen Joshi said...

बहुत दिनोँ बाद विजय शंकर चतुर्वेदी की कवितायेँ पढने को मिलीँ. आपने यहाँ जो कवितायेँ पोस्ट की हैँ वे मन मेँ गहरे पैठने वाली हैँ. अगली बार किताबोँ की दुकान मेँ इस संग्रह को ज़रूर तलाशूँगा.

Naveen Joshi said...

अशोक भाई, मैँ इन दिनोँ ह्र्दयेश जी की आत्मकथा पढ रहा हूँ.हिन्दी के एक संघर्षशील कहानीकार की यह जीवन कथा हिन्दी साहित्य मेँ व्याप्त राजनीति का भी पर्दाफाश करती है. एक छोटे शहर मेँ मामूली नौकरी करते हुए अच्छी कहानियाँ और उपन्यास लिखने वाले इस लेखक को आलोचकोँ ने क्योँ नही ल्याख लगाया. अपने प्रति बहुत निर्मम या ईमानदार बनकर यह आत्मकथा लिखी गयी है, जिसे "ज़ोखिम" नाम से किताबघर ने हाल ही मेँ छापा है.

ravindra vyas said...

badhai!