जिन खेतों में तुमने बोई थी बंदूकें
उनमे उगी हैं नीली पड़ चुकी लाशें
जिन कारखानों में उगता था तुम्हारी उम्मीद का लाल सूरज
वहां दिन को रोशनीरात के अंधेरों से मिलती है
ज़िन्दगी से ऐसी थी तुम्हारी मोहब्बत
कि कांपी तक नही जबान
सू ऐ दार पर इंक़लाब जिंदाबाद कहते
अभी एक सदी भी नही गुज़री
और ज़िन्दगी हो गयी है इतनी बेमानी
कि पूरी एक पीढी जी रही है ज़हर के सहारे
तुमने देखना चाहा था
जिन हाथों में सुर्ख परचम
कुछ करने की नपुंसक सी तुष्टि में
रोज़ भरे जा रहे हैं अख़बारों के पन्ने
तुम जिन्हें दे गए थे
एक मुडे हुए पन्ने वाले किताब
सजाकर रख दी है उन्होंने
घर की सबसे खुफिया आलमारी में
तुम्हारी तस्वीर ज़रूर निकल आयी है इस साल
जुलूसों में रंग-बिरंगे झंडों के साथ
सब बैचेन हैं तुम्हारी सवाल करती आंखों पर
अपने अपने चश्मे सजाने को
तुम्हारी घूरती आँखें डरती हैं उन्हें
और तुम्हारी बातें गुज़रे ज़माने की लगती हैं
अवतार बनने की होड़ में
भरे जा रहे हैं
तुम्हारी तकरीरों में मनचाहे रंग
रंग-बिरंगे त्यौहारों के इस देश में
तुम्हारा जन्म भी एक उत्सव है
मै किस भीड़ में हो जाऊँ शामिल
तुम्हे कैसे याद करुँ भगत सिंह
जबकि जानता हूँ कि तुम्हें याद करना
अपनी आत्मा को केंचुलों से निकल लाना है
कौन सा ख्वाब दूँ मै अपनी बेटी की आंखों में
कौन सी मिट्टी लाकर रख दूँ उसके सिरहाने
जलियांवाला बाग़ फैलते-फैलते...
हिन्दुस्तान बन गया है
6 comments:
तुमने देखना चाहा था
जिन हाथों में सुर्ख परचम
कुछ करने की नपुंसक सी तुष्टि में
रोज़ भरे जा रहे हैं अख़बारों के पन्ने
सच्ची श्रद्धाँजली है ये रचना इस महान क्राँतीकारी को सादर नमन आभार्
कविता में वर्तनी की त्रुटियां हैं पार्टनर। इस तरह की लापरवाही अच्छी नहीं। आत्म-भर्त्सना या भावनात्मकता का कोई अर्थ नहीं होता। तर्क-विवेक और विज्ञान के सहारे रास्ते निकालने होंगे।
कुल मिलाकर कविता का कथ्य जमा नहीं। इसलिए कोई प्रशंसा नहीं।
जलियांवाला बाग़ फैलते-फैलते...हिन्दुस्तान बन गया है...
बहुत सही ...यह व्यथा प्रत्येक सच्चे हिन्दुस्तानी की है ..मार्मिक प्रस्तुति ..!!
खेतों में कहीं बंदूक बोई जा सकती है? अगर ऐसा है तो मैं सिक्कों कि खेती आज से ही शुरू कर दूं.. जहर के सहारे कहीं कोई जी सकता है? और आत्मा को कैसे किसी केंचुली से बाहर निकाला जा सकता है?
पूरी कविता ही अर्थहीन है.. सो कोई प्रशंसा नहीं.. :)
भगत सिंह को सादर प्रणाम..
सब बैचेन हैं तुम्हारी सवाल करती आंखों पर
अपने अपने चश्मे सजाने को
तुम्हारी घूरती आँखें डरती हैं उन्हें
और तुम्हारी बातें गुज़रे ज़माने की लगती हैं
-- यह टिप्पणी है भगतसिंह के नाम पर रोजी-रोटी कमा रहे लोगों पर। हम जो मिलावट रोज खाते हैं वही जहर है, खेतों में बंदूक भगतसिंह ने बोई या नहीं यह तो नहीं पता लेकिन आज किसान आत्महत्या कर रहे है यही लाशें तो खेत उगा रहे हैं। इस कविता को कैसे अर्थहीन कहा जा रहा है ? कवि को वर्तनी आदि की सावधानी तो रखनी चाहिये लेकिन इससे टिप्पणी में इतनी छूट भी किसी को नहीं लेनी चाहिये। शायद यह प्रभाव इस बात का भी है कि कविता से लेख का काम करवाने की आशा ज्यादा की जाती है।
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