आख़िरी मुग़ल सम्राट बहादुरशाह 'ज़फ़र' ( 1775-1862 ) को कौन नहीं जानता है. वह भारतीय इतिहास के एक महान नायक ही नहीं वरन भारतीय कविता के सशक्त हस्ताक्षर भी हैं. उनके उल्लेख के बिना हिन्दी - उर्दू की शायरी का चित्र पूरा नहीं होता है . इस 'बदनसीब' शायर से अपना रिश्ता बहुत गहरा और पुराना है . ग्यारहवीं कक्षा में पढ़ते समय 'ज़फ़र' की शायरी ने इतना प्रभावित किया था कि अर्थशास्त्र की कापी में माँग और पूर्ति पर नोट्स लिखने की बजाय 'ज़फ़र' की कालजयी रचना 'दो गज जमीं भी न मिली' वाली ग़ज़ल उतार डाली थी और भरी क्लास में नालायक - नाकारा की उपाधि से विभूषित किया गया था . और तो और उसी अंदाज में कुछ खुद भी तुकबन्दी जैसा कुछ लिखने की कोशिश की थी. यह सब बिगड़ने के शुरुआती दिन थे.. अब इतने दिनों के बाद स्वेच्छा से 'कबाड़ी' बन जाने के बाद लगता है कुछ सुधर- सा गया हूँ...( ! ) खैर....
कुछ दिनों से 'ज़फ़र' की शायरी का सुरूर बेतरह तारी है. कुछ पढ़ा और कुछ सुना भी .तो चीजों को साझा करने क्रम में आज आइए सुनते हैं बहादुरशाह 'ज़फ़र' की एक ग़ज़ल दो अलग - अलग आवाजों में जिनसे हमारे वक्त की मौसीकी एक युग निर्मित हुआ है.. -पहला स्वर है रूना लैला का... और दूसरा मेंहदी हसन साहब का ...
बात करनी मुझे मुश्किल कभी ऐसी तो न थी .
जैसी अब है तेरी महफ़िल कभी ऐसी तो न थी ।
ले गया छीन के कौन आज तेरा सब्र-ओ-क़रार,
बेक़रारी तुझे ऐ दिल कभी ऐसी तो न थी ।
उसकी आँखों ने ख़ुदा जाने किया क्या जादू ,
कि तबीयत मेरी माइल कभी ऐसी तो न थी.
चश्म-ए-क़ातिल मेरी दुश्मन थी हमेशा लेकिन ,
जैसे अब हो गई क़ातिल कभी ऐसी तो न थी
कि तबीयत मेरी माइल कभी ऐसी तो न थी.
चश्म-ए-क़ातिल मेरी दुश्मन थी हमेशा लेकिन ,
जैसे अब हो गई क़ातिल कभी ऐसी तो न थी
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रूना लैला
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और अब यही गज़ल मेंहदी हसन के स्वर में
3 comments:
यह गजल मेरी भी दिल की धड़कन रोकती है और रूकने पर शुरू कर देती हैं -बहुत आभार सुनवाने के लिए !
Samayik rachna ! Shukria saheb.
बहुत खास है ये गज़ल। सुनवाने और पढवाने का शुक्रिया ।
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