रेस्टोरेन्टों के नाम वही पुराने जहाजों वाले ही थे- फेरी क्वीन, जलपरी, डाल्फिन...बिना किसी भूमिका के जहां छोड़ा था, वहीं से जारी।
उस रात धुंध और कुहरा था और पूरा शहर खुदा पड़ा था. कई फ्लाइओवर और सड़कें बन रहे थे. कुहरे में भीड़ सड़क पर उबलती लगती थी और सोडियम लाइटों के नीचे, गिट्टियों पर रिक्शे वाले हैंडिल के आगे ढिबरी जलाए फुदक रहे थे. वे अंग्रेजों के जमाने के म्युनिस्पैलिटी कानून का जस का तस पालन किए जा रहे थे. फुटपाथों को देखकर लगता था, कहीं चुनाव ठिठका खड़ा है. असम में हर चुनाव से पहले अचानक विकास और नरसंहार दोनों एक साथ होने लगते हैं. शहरी मिडिल क्लास के लिए विकास और गंवई असमिया के ध्रुवीकरण के लिए नरसंहार आजमूदा नुस्खा है जो उन्हें पोलिंग बूथ तक ले ही आता है.
शहर के व्यापारिक केंद्र फैन्सी बाजार और पान बाजार में एक छोटा-सा समृद्ध राजस्थान बसता है जिसके आईकॉन संगरमरमर के छोटे-छोटे मंदिरों में चुनरी ढके विट्ठल जी और राणी सती हैं. बिना प्याज और लहुसन का मारवाड़ीबासा, कचौड़ी-जलेबी-फुचके (गोलगप्पे) और गलियों में ठुंसी नई मॉडल की कारें, बाकी का ठाठ सजा देते हैं. सीपीआई के बूढ़े विधायक हेमंत दास ने बाद में अपने ही ढंग से एक दिन समझाया था कि असम में सौ प्रतिशत से भी ज्यादा थोक व्यापार मारवाड़ियों के हाथ में है और असमिया सिर्फ उपभोक्ता है. बाजार के पिछवाड़े गोदामों में सैकडो ट्रकों से माल लादा- उतारा जा रहा था. लगभग सारे पल्लेदार पुरबिया, बिहारी और छिटपुट मैमनसिंघिया मुसलमान थे. डर के कारण मैं उधर नहीं गया क्योंकि हर बड़े शहर में, हमेशा ऐसी गलियों में पल्लेदारी करते मुझे अपने गाँव, जिले या आसपास के जिलों के परिचित लोग मिल जाया करते हैं जो कभी खाते-पीते किसान हुआ करते थे. मैं उनका और वे मेरा सामना नहीं कर पाते. हर जगह पलायन और पीड़ा की उदास कर देने वाली एक जैसी कहानियां सुनने को मिलती हैं.
गौहाटी एक युग से उत्तर-पूर्व में व्यापार का सबसे बड़ा केंद्र रहा है. अब भी कई बेहद पुरानी दुकानों में सिर्फ नमक, टार्च और लालटेन बिकते हैं जिन्हें खरीदने के लिए सुदूर जंगलों से आदिवासियों के काफ़िले आते हैं. इन दुकानों का यूएसपी यह है कि पुराने ग्राहकों की ठहरने की जगह भी दुकान के पिछवाड़े होती है. यहाँ का सुअर बाजार तो अद्भुत है जहाँ व्यापार की भाषा भोजपुरी और पंजाबी हो जाती है क्योंकि इन्हें बोलने वाले प्रांतों से ही सबसे अधिक माल आता है.
सुबह अखबार देखे तब समझ में आया कि, जैसा ट्रेन में लगा था, हालात उससे कहीं अधिक बदतर हैं. उत्तर-पूर्व दिल्ली की मीडिया की चिंता के दायरे से बाहर है, दरअसल उसे ब्लैकआउट कर दिया गया है वरना यहाँ कश्मीर से जटिल और भयावह स्थिति है. 22 अक्तूबर को दुलियाजान और काकोजान में सोलह, 27 को नलबाड़ी में दस, 8 नवंबर को बरपेटा मे दस, 16 नवंबर को बेटावर में आठ, 25 नवंबर को नलबाड़ी में चार और 30 नवंबर को बोंगाईगाँव में दस हिन्दीभाषी मारे गए थे. इनके अलावा दूरदराज़ की जगहों में कम से कम सात हत्याएं हुई थीं जिन्हें रिपोर्ट नहीं किया गया था. सेना, गृहमंत्रालय और असम पुलिस को मिलाकर बनाई गई संयुक्त कमान के कोर ग्रुप की बैठक हो रही थी जिसमें गृहमंत्री लालकृष्ण आडवाणी के दूत के रूप में पूर्वोत्तर मामलों के संयुक्त सचिव एनके पिल्लै दिल्ली से आ रहे थे.
हर ओर चीमड़ लोकल माछ और फीके भात के अतिरेक से त्रस्त होकर रोटी के इकलौते विकल्प के रूप में हमने नेपाली मंदिर के पास एक रेस्टोरेन्ट खोजा जहाँ मैदे का पराठा और मटर का छोला मिलता था. तदुपरांत स्वीट डिश के तौर पर मलाई समसम. बाद मे यही “मलाईसमसम” हम लोगों का गुडलक साइन बन गया. असमिया जबान में “च” गायब है. चाय “सा” होती है और एक जाति सूतिया जिसे अंग्रेजी में वाकई चूतिया लिखा जाता है. हम लोग खाना खा रहे थे और सामने टेलीविजन पर खबरें आ रही थीं. एक बिहारी की हत्या के बाद उसका सिर पत्थर से कुचल दिया गया था, जिसका भेजा हमारी थालियों से ढाई फीट की दूर, रंगीन स्क्रीन पर छितरा पड़ा था. मुझे पेट में उफनता झाग महसूस हुआ. शाश्वत अपनी टिपिकल मादरी अवधी में मुझे गरिया रहा था, “ल्यौ ससुर अब भेजा देखो. पत्रकारिता करै आय हैं हियां. जहाँ देखो हुंआ लहास पड़ी है और एक मनई साला ढंग से बात करै वाला नहीं है. यू नहीं भवा कि चुपाई मार के अपने घरे रहो. बाप की दूई बात सुनि लेत्यो, भोजन तो चैन से बैठ के करत्यो.”
“तुम तो लौन्डे की जिद मान के पछताय रहे किसी गरीब बाप की तरह पिनपिना रहे हो.” मैने और उकसाया ताकि ध्यान बंटे और उल्टी करने से बच सकूं.
उसका गुस्सा जायज़ था. लखनऊ के समाजवादी गिरीश पान्डेय ने जिन मददगार समाजवादी नेता का पता दिया था, उनकी मौत चार साल पहले हो चुकी थी. पत्रकार रामबहादुर राय ने जिन पत्रकारों के पते दिए थे, उनमें से दो मर चुके थे और एक रिटायर होकर भजन कर रहे थे. लखनऊ पॉयनियर के संपादक उदय सिन्हा ने जिस अखबार मालिक का पता दिया था, वे मिलते ही हत्थे से उखड़ गए कि सिन्हा को पान चबाने के अलावा आता क्या है. वही तो हमारे अखबार को यहाँ बरबाद करके गया है. प्रभाष जोशी ने आंचलिक ग्रामदान संघ के बिनोबापंथी रवीन्द्र भाई का पता दिया था, जिनका कहीं अता-पता नहीं था. संजीव क्षितिज ने फिल्म निर्देशक जानु बरूआ का नम्बर दिया था, वे कलकत्ता में थे.
एक और बात थी. मैने शाश्वत का कैमरा गले मे लटकाने से पहले ही दिन साफ इनकार कर दिया था. यह बच्चों को जन्मदिन पर उपहार में दिया जाने वाला फुसलाऊ कैमरा था और मुझे झालरदार टूरिस्ट दिखने से पुरानी चिढ़ थी. यह कैमरा उसने सुल्तानपुर में अपने बिकाऊ पुश्तैनी घर की आखिरी तस्वीर उतारने के लिए खरीदा था.
तो अब हमें अपनी पत्रकारिता की शुरुआत करनी थी. सवा साल तक अवसाद और बेरोजगारी में सोने के बाद मैं अचानक पूर्वोत्तर का उग्रवाद कवर करने जा रहा था. मेरे पास लखनऊ से अनियमित निकलने वाले एक चौपतिया धंधेबाज साप्ताहिक अखबार का उड़ाया गया फर्जी पहचान पत्र था, जिसमें मुझे दिल्ली ब्यूरो प्रमुख बताया गया था. यह आई-कार्ड मुझे वहाँ खानसामा का काम करने वाले एक लड़के ने अखबार मालिक की जानकारी के बिना मुहर समेत बनाकर दिया था. आई-कार्ड में मेरी उम्र के आगे ठीक शताब्दी पहले की बिल्कुल सही तारीख लिखी हुई थी. पहचान के कॉलम में गलत स्पेलिंग में लिखा था कि मेरी बांई आँख के भीतर कहीं एक कटे का निशान है. मैने पहले इन सब चीजों पर कभी गौर ही नहीं किया था. खैर शाश्वत के पास तो यह कार्ड भी नहीं था. हम लोगों ने सबसे पहले लोकल अखबारों की प्रिन्ट लाइन में छपे नम्बरों पर फोन कर गुवाहाटी के पत्रकारों से मिलना तय किया ताकि जान सकें कि खून की नदी में हम अपनी पत्रकारिता की डोंगी लेकर किस दिशा में जाएं.
8 comments:
wah bhi koi desh hai maharaj
episode-5
आपका लेख पढ कर तो बस सुन्न हो गया दिल दिमाग सब ।
I know episode number as i have been waiting to get it for long !
If i say 'interesting' it will be inhuman , if i say nothing it would be sub-human so what to say ? I think....... 'essential' is the right word ! Essential reading !
आंखो देखे नंगे सच कभी कभी अखबार के पन्ने से ज्यादा सुर्र्ख होते है .....कैमरा को अभी दूर कई जगहों तक पहुंचना होगा ....
aagey ka intezar hai
एक बेहद जरूरी बयान का यूं रुक-रुक कर सामने आना ठीक नहीं। अलसावौ न..अउ बताय डारौ सब दिल फाड़ि के....सबै का इंतिजार है...
It is great feeling to have a reader friend like you who keeps track of my writing.
This travelouge was almost killed by the weapon of negiligence used so frequently by our literary icons. It is realy great to have friends like you Munish.
Thank u all for taking interest in two liliputs travelling in Guliverland.
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