Monday, November 23, 2009

क्या यह स्वप्न है अथवा आकार ले रहा है कोई यथार्थ

अभी कुछ देर पहले ही 'कर्मनाशा' के पन्नों पर पर अपनी पसंदीदा रूसी कवि अन्ना अख़्मातोवा की एक कविता का अनुवाद प्रकाशित किया था. उस पोस्ट में अनजाने में रह गईं गलतियाँ खोजते - खोजते मन हुआ कि अन्ना की एक और कविता आपको पढ़वा दी जाय. सो, देर काहे की.. लीजिए प्रस्तुत है यह कविता...

बर्फ की गहरी कठोर तह के सानिध्य में

बर्फ की गहरी कठोर तह के सानिध्य में
तुम्हारे सफेद घर में है रह्स्यों का है डेरा
कितनी सौम्यता व शान्ति के साथ
हम दोनों घूम रहे हैं
नीरवता में अधखोए हुए - से.

हम गा रहे हैं सबसे मधुर गान
जो पहले कभी न गाया गया
क्या यह स्वप्न है
अथवा आकार ले रहा है कोई यथार्थ
तुम्हारे सिल्वर स्प्रूस से
हल्के छल्ले की तरह लिपटी हुई नन्हीं टहनियाँ
सहमति में हिलाए जा रही हैं अपनी मुंडियाँ लगातार।

3 comments:

Udan Tashtari said...

अन्ना की कविता पढ़ना सुखद रहता हैं.

सागर said...

धन्यवाद....

मुनीश ( munish ) said...

oh this mysterious world of poetry !it has always been beyond my comprehension . i envy the ones who enjoy it.