Wednesday, December 2, 2009

दीपक के जलने में आली , फिर भी है जीवन की लाली

आज सुबह जब 'कर्मनाशा' पर 'प्रेम कई तरह से आपको छूता है' शीर्षक से एक पोस्ट लगाई तो तो दुनिया जहान की और अपनी कई प्रेम कविताओं की याद हो आई। फिर सोचा कि क्या प्रेम सिर्फ कविताओं में है / कविताओं के लिए है? हमारी रोजमर्रा की जिन्दगी में प्रेम कहाँ, कैसा और कितना है? यह सब गुनते - बुनते काम पर निकल गया लेकिन भीतर ही भीतर 'एक विकल रागिनी' बजती रही। मौका मिलने पर बार- बार अपने भीतर झाँकता रहा और तमाम तरह की प्रतिकूलताओं के बावजूद अपने भीतर की नमी की मिकदार को आँकता रहा।

जैसा कि कह चुका हूँ कुछ कवितायें / कुछ और कवितायें आद आती रहीं और 'क्या भूलूँ क्या याद करूँ' वाली हालत होती रही। किशोरावस्था में पढ़ी गई एक कविता हमेशा संग- साथ रही है।आज उसे ही साझा करते हैं। अच्छी तरह याद है कि यह उसी तरह 'परिभाषा' ( प्रेम की ! ) की तर याद की गई थी जैसी उन दिनों अर्थशास्त्र की विभिन्न परिभा्षायें याद की गईं थीं। वक्त बहुत बीत गया है लेकिन अब भी लगता है कि इस 'परिभाषा' में कुछ न कुछ बात जरूर है ! खैर , आइए पढ़ते - देखते हैं हिन्दी की आधुनिक कविता के सर्वाधिक प्रसिद्ध हस्ताक्षरों में से एक और 'भारत- भारती' के रचयिता मैथिलीशरण गुप्त की यह कविता ' दोनो ओर प्रेम पलता है' और ऊर्दू कविता में सर्वाधिक व्यवहृत प्रतिकों 'शमा और परवाना' को 'दीपक और पतंग' के रूप में यहाँ देखते हुए अपनी अंदरूनी दुनिया की पैमाइश करें कि वहाँ की तरावट अब भी कुछ बची है कि 'वक्त ने किया क्या हसीं सितम' का आलम अवतरित हो गया है ? और हो सके तो यह पड़ताल भी करें कि प्रेम कवितायें वक्त के हसीं सितम को सोखने के वस्ते कितनी कारगर सोख्ते का काम करती है?



दोनो ओर प्रेम पलता है / मैथिलीशरण गुप्त

दोनों ओर प्रेम पलता है !
सखि पतंग भी जलता है हा ! दीपक भी जलता है !!

सीस हिलाकर दीपक कहता
बंधु वृथा ही तू क्यों दहता
पर पतंग पड़कर ही रहता
कितनी विह्वलता है!
दोनों ओर प्रेम पलता है !

बचकर हाय पतंग मरे क्या
प्रणय छोड़कर प्राण धरे क्या
जले नही तो मरा करें क्या
क्या यह असफलता है!
दोनों ओर प्रेम पलता है !

कहता है पतंग मन मारे
तुम महान मैं लघु पर प्यारे
क्या न मरण भी हाथ हमारे
शरण किसे छलता है!
दोनों ओर प्रेम पलता है !

दीपक के जलने में आली
फिर भी है जीवन की लाली
किन्तु पतंग भाग्य लिपि काली
किसका वश चलता है !
दोनों ओर प्रेम पलता है!

जगती वणिग्वृत्ति है रखती
उसे चाहती जिससे चखती
काम नही परिणाम निरखती
मुझको ही खलता है!
दोनों ओर प्रेम पलता है!

3 comments:

Unknown said...

thanks

अनिल कान्त said...

आपने एक बहुत अच्छी कविता पढवाई है
शुक्रिया !

प्रीतीश बारहठ said...

वाह !

प्रेम के साथ ही मिटने की शुरूआत हो जाती है।