Tuesday, December 8, 2009

फुटबाल के मैदान पर ओस की बूंदे

संजय जी,
टन्न। गुल्लक में पहला चमकदार सिक्का डालने के लिए धन्यवाद। अच्छा
राइटअप बन पड़ा है।

प्रिय भाई;
पावती मिली.एक आपत्ति ...संबोधन के आगे 'स्वीकार्य' नहीं.
ब्रुरोक्रेटिक है ये शब्द .मैं सिर्फ़ संजय और संजय भैया,संजय भाई से कम
कुछ नहीं ले सकता. पैदाइश वर्ष १९६१ (यदि यह संबोधन तय करता हो तो).
अशेष शुभेच्छाएँ अनिल भाई.
संजय
30.8.2008

कुछ मामूली सी लगती बातें दिमाग में फंसी रह जाती हैं। न जाने कहां गुम हो जाने को रह-रह लौटती हैं। जैसे यही "सुर-पेटी" वाले संजय भाईsanjay patel की दो लाईनों की, साल भर से ज्यादा पुरानी एक चिट्ठी। "जी" ब्रुरोक्रेटिक कैसे हो गया। क्या सिविल सेवा की शुरूआत करने वाले अंग्रेजों ने गंगा जी, बाला जी, स्वामी जी या "मोरे राजा जी" कहना शुरू किया था।
अभी पंद्रह दिन पहले तक झेंप लगती थी। कौन सा तीर मार लिया है कि इसका जिक्र किया जाए। फिर पलटी मार गए तो। हुआ यह है कि पंद्रह साल की मुतवातिर शराबखोरी और सिगरेट के चस्के से बाहर निकल कर फुटबाल खेलना शुरू किया है। केडी सिंह बाबू स्टेडियम के ग्राउंड पर हर सुबह किसिम-किसिम के पेशे वाले लोग, जिन्होंने "सनराइज" नाम का एक क्लब बनाया है, हर सुबह खेलते हैं। कुछ दुकानदार हैं, कुछ पत्रकार, कुछ बेरोजगार, कुछ क्लर्क...कुछ संतोष या डुरंड खेले पुराने खिलाड़ी जो गोल पोस्ट के पास ही टूंगते- ताड़ते रहते हैं और एन वक्त पर शातिर लचक के साथ गोल दाग देते हैं।
पहला दिन ठीक-ठाक बीता। गेंद मिलती तो मन में पुरानी पुलक उठती। लेकिन जरा सी देर में लगता कि गेंद का वजन कुछ ज्यादा है। थोड़ा भागते ही बेलगाम धौंकनी और दिमाग में बजती सीटियों से पश्चाताप भरा संतोष होता कि भीतर कुछ टूट रहा है और उखड़ी सांस छब्बीस साल पहले के लड़के को झकझोर कर बुला रही है जो टाउन नेशनल इंटर कालेज, सैदपुर, (गाजीपुर) के मैदान पर और गांव के खलिहान में खेला करता था। जिसे फुटबाल का पंचर बनवाने के लिए भटकने में वही सुख मिलता था जो शायद किसी सच्चे साधु को बड़े मकसद के लिए भीख मांगने में मिलता होगा। उसके बाद मैं फुटबाल जमीन से ज्यादा अपनी कल्पनाओं में खेलता रहा हूं। रड गुलिट का हेडर लेता जटाधारी सिर, माराडोना की रबड़ की टांगे, बबीटो की शतरंज की चाल जैसी पेनाल्टी किक मेरे दिवास्वप्नों में निरंतर रहे हैं बस, उनके धड़ पर सर मेरा होता था। यही कारण रहा होगा कि बारिश की रातों में, सूनी सड़क पर पांच-सात मिनट के लिए अचानक शराबियों की दो टीमें बन जाती थीं और बीयर के केन या थर्मोकोल के टुकड़े पर अपना सारा नशीला कौशल निछावर कर देती थीं। पैवेलियन में बैठी आसमान की बिजली के लिए?
दूसरे दिन, मेरी टीम के पांच लोगों ने अलग-अलग पोजिशन से खेलने का लगभग आदेश दिया। आखिरी वाले सज्जन से मैने कहा भाईजान, पहले तय कर लो कि एक आदमी कितनी टांगे लेकर मैदान पर आया करे या एक ही आदमी उर्फ कप्तान फील्ड सजाए। उन्होंने जिस तरह से मुझे देखा मैं समझ गया कि अगर मुझे आदेश सुनने की आदत नहीं है तो यहां भी किसी को इस तरह के जबाब की तवक्को नही है।
ऐ हीरो..ऐ हीरो...। तीसरे दिन गोलपोस्ट से चिपके रहने वाले परमानेंट फुलबैक जेपी सिंह लगातार किसी को टेर रहे थे। थोड़ी देर बाद पता लगा कि वे मुझसे ही कह रहे थे कि विपक्षी टीम के फारवर्ड यानि उनके बहनोई नागेन्द्र सिंह को मार्क कर खेलूं। दो दिनों में टांगे चढ़ चुकी थीं और अचानक दौड़ना, दुनिया का कठिनतम काम हो चुका था और ऊपर से "ऐ हीरो...।" मैने उनसे जाकर कहा कि भाईसाहब, यह हीरो-हिरोईन कहना कृपया बंद कीजिए। कोई आरसेनल और बोका का मैच नहीं हो रहा है कि हम हार गए तो स्टेडियम में लाशें बिछ जाएंगी। उसके तुरंत बाद से मेरा नया नाम ऐ आरसेनल हो गया। ऊपर से यह तुरपाई कि इन्हें अपनी टीम के हारने की परवाह ही नहीं है। चौथे दिन तो जेपी सिंह ने मेरी बांह पकड़ ली और गोलपोस्ट के पीछे जाकर बैठने को कहा। कुछ सेकेन्ड सकते में रहने के बाद मैने हाथ झटकते हुए खुद को यह कहते पाया कि तुम कौन होते हो यार, मुझे बाहर बिठाने वाले। खैर एक परिचित सीनियर पत्रकार ने बीच-बचाव कर मामले को तुरंत रफा किया।
पांचवे दिन पूरी निष्ठा से टैकल करने की कोशिश की तो नागेन्द्र सिंह ने जबड़े पर कुहनी चिपका दी। बिलबिला कर रह गया। उसे रोक कर कहा कि खेल के बहाने मारोगे तो मैं बद कर मारूंगा। खांटी प्रोफेशनल की तरह पास आते रेफरी के दर्शनार्थ नागेंद्र ने अपना गाल आगे कर दिया मारोगे, लो मारो...मारोगे लो मारो। रेफरी जरा दूर हुआ तो भुनभुनाया...चूतिया कहीं के। साले कह दिया न कि रंगबाजी नहीं चल सकती..बिल्कुल नहीं चल सकती। इसके जवाब में गाली दोगे...तो गाली दोगे का कौआरोर।
सालों से उखड़ती सांसों के बीच होने वाली ऐसी झन्नाटेदार बतकही का अवसर नहीं मिला था और ईगो, मैदान की हरी घास पर चकनाचूर होकर ओस की बूंदों का भ्रम पैदा कर रहा था।
इसी बीच घुटने का रपचर्ड लिगामेंट टीस मारने लगा और हाकी वाले बुजुर्ग अशोक तिवारी जी की सलाह पर उसे ठीक करने के लिए फुटबाल खेलना छोड़ कर स्टेडियम के जिम जाने लगा। दो दिन बीत गए तो जिम की ओर जाते देख कोई बीस-बाईस के फारवर्ड नदीम ने आवाज लगाई... अबे आ...चला आ थोड़ी-बहुत तो लगती ही रहती है। तिवारी जी ने धीमे से कहा कि ये लालच बहुत खतरनाक होता है। घुटना चाहिए तो कतई मत जाना।
...लेकिन जाना तो है। बस घुटना फिर से काम चलाऊ हो जाए। इस खेल में अंतरात्मा से जुड़ी कोई बात है।
सोचता हूं उम्र बढ़ने के साथ हम खेलना क्यों छोड़ देते हैं। ईगो को पोसने के लिए या विशेषाधिकार के साथ जीने के भ्रम को स्थाई बनाने के लिए। या कोई और बात है आप सब बताएं।

7 comments:

मनोज कुमार said...

अच्छी रचना। बधाई।

अजित वडनेरकर said...

बढ़िया है जी...पर दिमाग़ खराब हो गया है.

काश कि शब्दों के सफ़र से पीछा छूटे
काश कि हम भी सुबह जल्दी उठें
काश कि कुछ पुराने शौक ताज़ा हों
काश कि हम पुराने से लगें
काश कि पहले सी चोटें खाएं
और मरहम भी न लगे
काश कि याद आए कोई प्रार्थना, कि
गुनगुनाएं और भरोसा खुद में जागे
काश कि मिल जाएं एक बार
बिसरे चेहरे और पहचाने भी जाएं
काश कि इस उम्रे-परीशां का
आखिरी मकाम जल्द आए...

गिरिजेश राव, Girijesh Rao said...

सही कहूँ, शीर्षक देख कर यहाँ आया था। यादव जी, प्रसन्न हुआ।
शुद्ध ब्लॉगरी की पोस्ट। टटकी, ताजी और नई उद्भावनाएँ समेटे।
धन्यवाद अच्छी रचना पढ़वाने के लिए।

hamarijamin said...

badhiya hai...se khali kam nahi chalaya ja sakata! kabadi ke rup mein ap bhate ja rahe hain. harmonium chhod-chhad ke yaha maujud hain, yahi sukun ki bat hai.

के सी said...

इसे कहते हैं सोने में सुहागा
वडनेरकर जी को भी बधाई .

कामता प्रसाद said...

भाई मैंने गद्य का आस्‍वाद प्राप्‍त करने हेतु इस पोस्‍ट को पढ़ा। स्‍व की हिफाजत तो करनी चाहिए क्‍योंकि वह मेरे ख्‍याल से निज का पर्याय है माने यह कि हममें जो कुछ भी सकारात्‍मक है और मानवीय गरिमा से जुड़ा है पर ई ससुरा इगो तो होता ही वनैल, जंगली और हिंस्र, जितनी जल्‍दी हो सके रेशनलिटी को जगाकर इसे भगा देना चाहिए। पुनर्नवा होने का प्रयास परवान चढे यही दुआ है।

चंद्रभूषण said...

जो लोग छोड़े हैं, वे बताएं। मैंने फुटबॉल तो कभी खेला नहीं और जो-जो गेम खेले हैं, उन्हें छोड़ने का मौका कभी छोड़ता नहीं। आदमी की तरह जीना है तो मरने के दिन भी कुछ न कुछ खेल कर मरना चाहिए, ऐसी मेरी राय है... विनम्र।