Tuesday, January 12, 2010
आज कुमार गंधर्व की 18वीं बरसी है !
इन्दौर के प्रमुख दैनिक नईदुनिया में आज कुमार जी को उनकी 18वीं बरसी पर याद किया है जिसे क़लमबध्द किया है जीवनसिंह ठाकुर ने. लिखने पढ़ने वालों की बिरादरी में जीवनसिंह जी का नाम अपरिचित नहीं है. वे कुमारजी की कर्मस्थली देवास में ही रहते हैं और कुमारजी के निवास भानुकुल से बरसों से जुड़े है. मुझे लगा कि कुमारजी के मुरीदों तक यह शब्द-चित्र पहुँचना ही चाहिये इसलिये इसे जारी कर रहा हूँ.
मुझे ठंड की शाम और रात सदा से ही अच्छी लगती है। सूनी सड़कों पर घूमना बहुत ही सुकून भरा अहसास होता है। मौसम के ये अवसर मैंने कभी नहीं छोड़े और कभी छूट भी गए तो अफ़सोस का साया इतना घना होता है कि आने वाली रात के इंतज़ार में दॉंत कटकटाने लगते हैं। 11 जनवरी को भी उसी सर्द रात में घूम कर लौटा थाऔर 12 जनवरी की सुबह बेहद सर्द और बर्फ़बारी के साथ लौटी थी। 12 जनवरी 1992 की सुबह पंडित कुमार गंधर्व प्रभाती में या भैरवी के अंत में - प्रभाती की शुरूआत की बेला में एक स्थाई गुनगुनाहट देकर कहीं दूर चले गए थे। जहॉं से उन्हें कोई राग, कोई अलाप, कोई पुकार वापस नहीं ला सकती थी।
पूरे अठ्ठारह बरस हो गए हैं कुमार गंधर्व हमारे बीच नहीं हैं। हालॉंकि उस दिन भी जब उनके पार्थिव शरीर को कंधों पर लिए भारी मन-मस्तिष्क से ले जा रहे थे ऐसा लगा नहीं था कि यह अंतिम यात्रा है। हमें इसे सिर्फ़ यात्रा ही रहने देना चाहते थे। उस दिन अंतिम शब्द को अपने पास फटकने भी नहीं देना चाहते थे। लेकिन चाहने न चाहने के बीच कुदरत अपने नियम का पालन कर रही थी। हम सभी निहत्थे उस नियम को अपने तरीके से काम करते देख रहे थे। वापस लौटे तो भानुकूल के सन्नाटे में शांति तो थी लेकिन रिक्तता नहीं थी। जिस सच्चाई से हम रूबरू हुए थे वह सच्चाई भानुकूल के बाहर कहीं रह गई थी। ऐसा लगा कुमारजी वहीं कहीं है। वही झूला हल्का सा कंपकपाता हुआ। जैसे कुमारजी बस अभी-अभी उठ कर अंदर गए हों या बस आने ही वाले हों ... आज अठ्ठारह बरस गुजर चुके हैं, लेकिन भानुकूल में कभी लगा ही नहीं कि कुमारजी नहीं हैं। वही जीवंतता, वही उपस्थिति का अहसास, वही बालसुलभ भोली निर्दोष आवाज़ ... जैसे दूर से घुँघरुओं की रुनझुन-रुनझुन की तरह सुनाई देती है। कुमारजी कहीं गए नहीं वे इन्हीं हवाओं में इन्हीं शब्दों में उल्हास और उदासियों में ठहाकों और मुस्कुराहटों में हैं। इंसान चला जाता है कुछ घंटों में, कुछ दिन में उसे भुला दिया जाता है। या व़क़्त की गहरी धूल में दब जाता है। लेकिन कुमार गंधर्व यानी बाबा इन अठ्ठारह बरसों में लोगों में निरंतर जिज्ञासा बने रहे। कुमारजी जैसे काल पर विजय प्राप्त करके कालजयी हो गए हों। आज भी 12 जनवरी 2010 है, अठ्ठारह बरस का लम्बा फ़ासला है। हम जब भी भानुकूल गए झूला कभी खाली नहीं लगा। बहन कलापिनी (कुमारजी की बेटी) अंदर से आकर चाय का कप थमाती हैं तो भाई भुवनेश (कुमारजी का सुपौत्र) पानी का गिलास... फिर लगता है जैसे कोई भोली-सी आवाज़ में कह गया- बैठिये। मैं चौंक कर झूले की तरफ़ देखता हूँ, फिर अंदर उनके कमरे में जहॉं बिस्तर पर कुछ फूल पड़े हैं। ताई वसुंधरा (कुमारजी की जीवन और संगीत सहचरी) स्नेहिल हमारा हालचाल पूछती हैं। जो गया उसकी पीड़ा सालती तो है, लेकिन पीड़ा और पीड़ा के अहसास की क्यारियों में आँसुओं के नम, कोमल फूल खिले हैं। उन पर यादों की तितलियॉं बैठती है। कुछ गंध हवाओं में फैली हैऔर एक स्मृति का आँचल आसपास ममतालु लिपट जाता है कुमारजी यहीं हैं...यहीं है...।
(सुनिये कुमार जी की ये दो कालजयी रचनाएं:)
कौन ठगवा नगरिया लूटल हो:
निरभय निरगुन गुण रे गाऊंगा:
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9 comments:
pandit ji ko shat-shat naman.
निवेदन है की कबाडखाना की पोस्ट्स के लिए search का आप्शन हो..
नमन!!
कुमार गन्धर्व मेरे सबसे प्रिय संगीतकार रहे हैं।
नीरभय नीरगुन गुन रे गाऊँगा हो या
सखी मन लागे ना हो या
बाजे रे मोरा झाँझरवा या
कौन ठगवा ...सब अद्भुत। अनिवर्चनीय आनन्द प्रद।आभार उनकी याद दिलाने के लिए।
श्रद्धांजलि।
कुमार साहब क़ि याद दिलाने के लिए शुक्रिया!
उनके दो संस्मरण पेश हैं-
" कुछ अरसा पहले की बात है, कुमार गन्धर्व क़ी चर्चा चलने पर अशोक वाजपेई ने बताया क़ि एक बार वे ... देवास गए.
कुमार ने अपना ही रचा एक राग सुनाया - मधुसूर्ज़ा. जैसा क़ि अमूमन शाश्त्रीय संगीत में होता है- यह राग मध्यान्ह का था.
राग ख़त्म कर लेने के बाद बातचीत शुरू हुई. कुमार बहुत सहज व्यक्ति थे, अन्य संगीतकारों क़ी तरह नाज़-नखरे वाले नहीं.
शायद उन्होंने ही उस किशोर से पूछा या जाने कैसे प्रसंग छिड़ा, उस किशोर ने दो टूक कहा क़ि मुझे तो इसमें मिमियाने की
आवाज़ आ रही थी. ज़ाहिर है, यह प्रतिक्रिया किसी हद तक औचक और अस्वस्तिकारक थी. किशोर के पिता ने उसे डपटा
होगा. लेकिन कुमार ने फ़ौरन हस्तक्षेप किया और कहा क़ि बच्चे की प्रतिक्रया एकदम ठीक है. फिर कुमार ने बताया क़ि
यह राग उन्होंने देवास के लाल बंगले में रचा था, जब वे यक्ष्मा से ग्रस्त होकर लगभग पांच वर्ष रोग शैया पर रहे थे. ऊपर
देवास का देवालय था, जहाँ दोपहर के समय बलि के लिए बकरे ले जाये जाते थे. उन बकरों का मिमियाना भी अनायास इस राग में
आकर गुंथ गया, क्योंकि जब यह राग रचा जा रहा था तो कुमार के मध्यान्ह क़ी यह यह एक स्थाई ध्वनि थी."
"दूसरा प्रसंग मराठी के सुप्रसिद्ध नाटककार पु. ल. देशपांडे ने बयान किया है :
एक बार उसका गाना सुनाने के लिए आचार्य अत्रे आये.
दूसरे ही दिन आचार्य अत्रे ने हम लोगो को अपने घर बुलाया.
अत्रे बोले- "कल क़ी आप क़ि अज़ब दुनिया वाली बंदिश क्या खूब थी. कौन सा राग था?
"हमीर"- कुमार ने कहा.
"हमीर? पर मेरे पास वह जो कोई संगीत शिक्षक बैठा था, उसने मुझसे कौन सा कल्याण कहा था?"
उस बेचारे को महामूर्ख कह कर अत्रे जी अलग हो गए.
कुमार ने कहा- "उसकी गलती नहीं है अत्रे साहब!
ये लोग राग को तभी पहचान सकते हैं, ज़ब वह सामने से आये.
मैं तो हमीर का प्रोफाइल रंग रहा था. पहचान भूल गए- बस!"
(नीलाभ क़ी किताब "प्रतिमानों क़ी पुरोहिती" से)
अतिशय आत्मीय याद और सघन गद्य!
टिप्पणी में ही सही, कुमार गन्धर्व जी के दो बहुमूल्य संस्मरण प्रस्तुत करने के लिए भाई मृत्युंजय को कोटिशः धन्यवाद!
मृत्युंजयजी,
बड़ा भावपूर्ण संस्मरण लिखा आपने..हो सके तो नीलाभजी की पुस्तक प्रतिमानों की पुरोहिती के प्रकाशक का नाम मेल करें,जिससे ये पुस्तक मंगवा कर पढ़ सकूँ>...कोटिश: आभार...
sanjaypatel1961@gmail.com
संजय जी,
नीलाभ जी की किताब इस विषय पर नहीं है.
यदि आप कुमार साहब पर या उनका खुद का लिखा कुछ पढना चाहते हैं तो
हिंदी साहित्य सम्मलेन के संगीत विशेषांक क़ी खोज करे.
इसमें कुमार साहब पर कुछ संस्मरण और
"लोक कलाओ तथा शास्त्रीय कला" के संबंधों पर कुमार साहब का जबरदस्त लेख है.
मेरे पास यह था पर अभी नहीं मिल रहा है. शायद कोई ले गया है.
दरियाफ्त करके तफसील बताऊंगा.
यदि कहीं और से मिल जाये तो ले लीजियेगा.
वैसे कुमार साहब पर अशोक वाजपेई लिखते रहें हैं.
नीलाभ जी की किताब सदानीरा प्रकाशन, इलाहाबाद से छपी है,
जो उन्ही का प्रकाशन है.
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