
समकालीन ध्रुपद गायन में डागर बन्धुओं का दर्ज़ा निर्विवाद रूप से सबसे ऊपर माना जाता है. इन्दौर के दरबार में गायक था डागर परिवार. उस्ताद नसीरुद्दीन डागर का देहान्त १९३६ के साल मात्र ४१ की वय में हो गया था. उनके बड़े बेटों नसीर मोहिउद्दीन डागर और नसीर अमीनुद्दीन डागर ने इस परम्परा को आगे बढ़ाया. सन १९६६ में नसीर मोहिउद्दीन डागर के इन्तकाल के बाद उनके छोटे भाइयों उस्ताद नसीर ज़हीरुद्दीन डागर और उस्ताद नसीर फ़ैयाज़ुद्दीन डागर ने कमान सम्हाली.
ध्रुपद-धमार की गौरवशाली परम्परा के चमकीले सितारे उस्ताद नसीर ज़हीरुद्दीन डागर और उनके सहोदर उस्ताद नसीर फ़ैयाज़ुद्दीन डागर क्रमशः १९३२ और १९३४ में जन्मे थे. उनके दादाजान अल्लाबन्दे खान डागर बहुत बड़े गवैये माने जाते थे. इन दोनों भाइयों ने बहुत छोटी आयु से ही बाकायदा गायन सीखना शुरू कर दिया था. आलाप और कम्पोज़ीशन की अलग अलग सतहों पर उनका कमाल उनकी गायकी की खास पहचान है.
आज सुनिये उनकी आवाज़ों में ध्रुपद शैली में गाया गया राग जयजयवन्ती.
4 comments:
यह सच है कि मुझे संगीत की समझ नहीं है ( यही हाल साहित्य का भी है) किन्तु जब कुछ भला - सा सुनता हूँ तो लगता कि कानों का होना साथक हुआ।
उस्तादों की गायकी के इस स्पर्श से इस बदराए , ठंढाए मौसम में एक गुनगुनी तपिश मिली।
और क्या कहूँ?
Behtreen! sunwane ka shukriya...
आनन्द आया..बेहतरीन!!
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’सकारात्मक सोच के साथ हिन्दी एवं हिन्दी चिट्ठाकारी के प्रचार एवं प्रसार में योगदान दें.’
-त्रुटियों की तरफ ध्यान दिलाना जरुरी है किन्तु प्रोत्साहन उससे भी अधिक जरुरी है.
नोबल पुरुस्कार विजेता एन्टोने फ्रान्स का कहना था कि '९०% सीख प्रोत्साहान देता है.'
कृपया सह-चिट्ठाकारों को प्रोत्साहित करने में न हिचकिचायें.
-सादर,
समीर लाल ’समीर’
मुरलिया कैसे बाजे .......वाह वाह !
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