Wednesday, January 6, 2010
अगर आलू के बराबर हो गए आतंकी
लीलाधर जगूड़ी हमारे समय के बड़े कवियों में शुमार किए जाते हैं. उत्तराखण्ड के टिहरी ज़िले के धंगणगांव में एक जुलाई १९४४ को जन्मे जगूड़ी जी के प्रमुख संग्रह हैं - शंखमुखी शिखरों पर (१९६४), नाटक जारी है (१९७२), इस यात्रा में (१९७४), रात अभी मौजूद है (१९७६), बची हुई पृथ्वी (१९७७), घबराये हुए शब्द (१९८१), ’ईश्वर की अध्यक्षता में’ (१९९९), ख़बर का मुंह विज्ञापन से ढंका है (२००९) इत्यादि.
साहित्य अकादेमी पुरुस्कार से सम्मानित जगूड़ी जी के संग्रह ’ईश्वर की अध्यक्षता में’ से दो कविताएं:
एक ख़बर
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अकसर
आतंकवादी सड़कों के किनारे गन्ने के खेतों में छिप जाते हैं
इसलिए गन्ना जलवाया जा रहा है
रामदीन कुछ गहरे डूबकर बोला -
गन्ना महंगा गुड़ बन जाए, महंगी चीनी बन जाए
गन्ने को कीड़ा लग जाए
इसी तरह का रोग है कि गन्ने में आतंकवादी छिप जाए
सुलहदीन बोला -
अचरज नहीं कि पीपल वाले भूत से ज़्यादा
गन्ने से डर लग जाए
मातादीन बोला - गन्ने से उगता है उद्यम
और हर उद्यम में जा छिपता है आतंकवादी
रामदीन भी पलट कर बोला -
पर अगर आलू के बराबर हो गए आतंकी
गोली-बारूद आलुओं में से चलने लगे
मान लीजिए वे अरहर में छिप जाएं
धान में छिप जाएं
सारे अन्न-क्षेत्र में आतंकी ही आतंकी हों
वे अड़ जाएं और इतने बढ जाएं
कि साग भाजियों में भी कीड़ों की तरह पड़ जाएं
तब भाई मातादीन हम अपना क्या-क्या जलाएंगे ?
गरीब वेश्या की मौत
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कल-पुर्जों की तरह थकी टांगें, थके हाथ
उसके साथ
जब जीवित थी
लग्गियों की तरह लंबी टांगें
जूतों की तरह घिसे पैर
लटके होठों के आस-पास
टट्टुओं की तरह दिखती थी उदास
तलवों में कीलों की तरह ठुके सारे दुख
जैसे जोड़-जोड़ को टूटने से बचा रहे हों
उखड़े दाँतों के बिना ठुकी पोपली हँसी
ठक-ठकाया एक-एक तन्तु
जन्तु के सिर पर जैसे
बिन बाए झौव्वा भर बाल
दूसरे का काम बनाने के काम में
जितनी बार भी गिरी
खड़ी हो जा पड़ी किसी दूसरे के लिए
अपना आराम कभी नहीं किया अपने शरीर में
दाम भी जो आया कई हिस्सों में बँटा
बहुतों को वह दूर से
दुर्भाग्य की तरह मज़बूत दिखती थी
ख़ुशी कोई दूर-दूर तक नहीं थी
सौभाग्य की तरह
कोई कुछ कहे, सब कर दे
कोई कुछ दे-दे, बस ले-ले
चेहरे किसी के उसे याद न थे
दीवार पर सोती थी
बारिश में खड़े खच्चर की तरह
ऐसी थकी पगली औरत की भी कमाई
ठग-जवांई ले जाते थे
धूपबत्तियों से घिरे
चबूतरे वाले भगवान को देखकर
किसी मुर्दे की याद आती थी
सदी बदल रही थी
सड़क किनारे उसे लिटा दिया गया था
अकड़ी पड़ी थी
जैसे लेटे में भी खड़ी हो
उस पर कुछ रुपए फिंके हुए थे अंत में
कुछ जवान वेश्याओं ने चढाए थे
कुछ कोठा चढते-उतरते लोगों ने
एक बूढा कहीं से आकर
उसे अपनी बीवी की लाश बता रहा था
एक लावारिस की मौत से
दूसरा कुछ कमाना चाहता था
मेहनत की मौत की तरह
एक स्त्री मरी पड़ी थी
कल-पुर्जों की तरह
थकी टांगें, थके हाथ
उसके साथ अब भी दिखते थे
बीच ट्रैफ़िक
भावुकता का धंधा करने वाला
अथक पुरुष विलाप जीवित था
लगता है दो दिन लाश यहाँ से हटेगी नहीं.
(फ़ोटो: उत्तरकाशी में अपनी पौत्री मिष्टी के साथ जगूड़ी जी)
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लीलाधर जगूड़ी
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3 comments:
छोटे मुहं बड़ी बात, कलेवर मार्मिक लेकिन कसावट की कमी खल रही है।
बेहद आत्मीय तस्वीर! कमाल की कवितायें!
jagoodiji ke kavita sangrah ko khngaal chuka hu, unki kai saari behtreen kavitao me se aapne jo chuni vo aaj ke sandarbh me behad upyukt he, yahi kamaal karte he aap ki hame jin rachnao me vichaarpoorvak dimag doudana pade use post karte he. dhnyavaad.
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