Monday, January 11, 2010

साल २०१०: साहित्यकारों से मोहभंग हो चुका- निलय

इस श्रृंखला की पिछली पोस्ट का शीर्षक पढ़कर हमारे प्रिय भाई एक जिद्दी धुन (धीरेश सैनी) ने टिप्पणी की है- 'इसका शीर्षक सही है लेकिन युवा ज़रा चिढ़ जाते हैं ऐसा कहने से. इसमें यह भी जोड़ दिया जाए कि वरिष्ठ भी इधर जाने किस-किस मठ, प्रतिष्ठान में नतमस्तक होते घूम रहे हैं.'

हमारा निवेदन यह है कि इस रायशुमारी में हम अपनी तरफ से कुछ जोड़ने-घटाने की तमन्ना नहीं रखते. यह तो आप जैसे समझदार और विचारशील पाठकों पर छोड़ दिया गया है. साहित्यकारों ने जो कहा वह यहाँ अक्षरशः छापा जा रहा है; जैसे कि आज की यह कड़ी-

निलय उपाध्याय (कवि, हालिया कविता-संग्रह 'कटौती’): इन दिनों मैं बहुत निजी किस्म का जीवन जी रहा हूँ. मेरा कोई सामाजिक जीवन नहीं है. अभी जिन संकटों के दौर से गुज़र रहा हूँ उसमें सार्वजनिक जीवन के लिए कोई जगह नहीं है. पिछला साल जो बीता है उससे मेरी यही अपेक्षा थी कि मेरे परिवार को दो जून का भोजन मिलता रहे. मेरे बच्चों की पढ़ाई चलती रहे...और २००९ में यह पूरा हुआ. आने वाले साल में मैं यह चाहता हूँ कि इन जिम्मेदारियों से अलग होने का वक्त मिले, जिसमें मैं अपने मन के भीतर बसी दुनिया के बारे में लोगों को बता सकूं...कुछ कवितायें लिख सकूं... और जो विकास-क्रम अथवा परिवर्त्तन मेरे भीतर आया है, उसको बता सकूं.

साहित्यकारों से मेरा मोहभंग हो चुका है. अपने अपहरण काण्ड में फंसने की घटना की असलियत मैं अच्छी तरह से जान चुका हूँ. मैं अस्पताल में कंपाउंडर था और वेतन का आधा खर्च पत्र-पत्रिकाएं खरीदने...सदस्य बनने और साहित्यिक यात्राओं में ख़र्च करता था. किन्तु एक मुसीबत आने के बाद जिस तरह प्रेम कुमार मणि से लेकर राजेन्द्र यादव तक ने मुझे सवर्ण करार दे दिया, उससे मेरे दिल को बहुत गहरा धक्का पहुंचा. मुझे पहली बार ये अहसास हुआ कि ये लोग रचनाकार भले ही बहुत अच्छे हों, आदमी बुरे हैं. मैं कवि-लेखक बनकर न रहूँ तो कोई फ़र्क नहीं पड़ता लेकिन हिन्दी साहित्य के इन ढपोरशंखियों से अगले साल क्या, पूरी उम्र कोई सम्बन्ध नहीं रखना चाहता. ये लोग साहित्य के पाँव में मोजे की तरह महक रहे हैं और उनके बारे में सोचने पर इनकी ये गंध ज्यादा परेशान करती है. यही लोग हैं जो जनता और साहित्य के बीच बैठकर एक दूरी पैदा कर रहे हैं.

अगले साल मैं जो भी करना चाहता हूँ वह मेरी पारिवारिक परिस्थिति पर निर्भर करेगा. मैं बिहार सरकार की नौकरी से निकाल दिया गया था... और ४५ साल की उम्र में किसी नई जगह, किसी नई विधा में जड़ें जमाना आसान नहीं होता. पहले मैं बिहार के एक गाँव का निवासी था लेकिन मुझे अगर वक्त मिला तो अब मैं जिस जगह पर हूँ...पूरे देश के गाँवों से आए लोग यहाँ हैं...मैं उनकी पीड़ा, उनकी यातना और उनके जीवन में प्रवेश करने का प्रयास करूंगा...और अपनी कविताओं में यह बताऊंगा कि चाय पीते वक्त उनकी चीनी क्यों कम पड़ जाती है और दाल खाते वक्त नमक.


शिरीष कुमार मौर्य (कवि, हालिया कविता-संग्रह 'पृथ्वी पर एक जगह'):

सामाजिक, सांस्कृतिक, आर्थिक और राजनीतिक स्तर पर तब्दीलियों को लेकर मैं किंचित हताश हूँ. देखना बहुत कुछ चाहता हूँ. एक कवि-नागरिक होने के नाते चाहता हूँ कि नए साल में चीज़ों में सुधार आये. समाज कुछ और मानवीय बने, राजनीति कुछ विचारपरक हो, बाज़ारवाद का छद्म कुछ और उजागर हो, दृष्टिकोण- ख़ास तौर पर स्त्रियों और दलितों के प्रति सामाजिक और राजनीतिक दृष्टिकोण में वांछित बदलाव आये. रही सुकून की बात तो आम आदमी को आज सुकून से ज़्यादा अपने जीवन में घट रही घटनाओं के प्रति जागरूकता और एक गहरी बेचैनी की ज़रुरत ज़्यादा है- सुकून की मंज़िल फ़िलहाल एक स्वप्न है.

साहित्य जगत से मैं महज एक ऐसी अर्थवान आलोचना की उम्मीद करूंगा जो तथाकथित बड़े आलोचकों के घिसे-पिटे पुराने मूल्यों से परे हो और किसी को कुछ बना देने या उसे मिटा देने के थोथे अहंकार से मुक्त भी. कविगण (ख़ासकर युवा कवि) भी हिंदी के इन चाँद-तारों की छाया से बाहर आकर रचनात्मक ऊर्जा के अपने भीतर के सूर्य को पहचानें. हिंदी पट्टी के पाठकों के प्रति उनका खोया विश्वास दुबारा जागे.

गीत चतुर्वेदी (कवि-कथाकार-पत्रकार):

१. इंडिया और भारत का तथाकथित भेद मिट जाए/कम हो जाए.





२. कुछ अच्छी किताबें.


चंद्रभूषण (कवि-पत्रकार, कविता-संग्रह 'इतनी रात गए'): इस साल मैं चाहूंगा कि बहुत सारे उद्योगों में जो छंटनी हो रही है और जो उद्योग मंदी का शिकार हैं, वहां दोबारा काम शुरू किया जाए. वहां लोगों के अधिकार सुरक्षित हों. मंहगाई से सबको राहत मिले.

साहित्य-संस्कृति के क्षेत्र में स्वाभाविक इच्छा है कि अच्छी रचनाएँ आयें. आम लोगों से, मेहनतकश लोगों से जो दूर जाने की प्रवृत्ति बढ़ी है वह घटे. कामना यह भी है कि दिल्ली में जो राष्ट्रकुल खेल होने जा रहे हैं वे अच्छी तरह से संपन्न हों और देश की साख को कोई बट्टा न लगे.








सुन्दर चंद ठाकुर (कवि, हालिया कविता-संग्रह 'एक दुनिया है असंख्य'): पहली बात तो यह है कि २००८ का अंतिम हिस्सा और लगभग पूरा २००९ मंदी की मार से आक्रान्त रहा. हज़ारों नौजवान सड़क पर आ गए, इनमें कई पत्रकार भी शामिल थे. नए लड़कों को नौकरियाँ नहीं मिलीं. उम्मीद है कि २०१० में ये स्थितियां पलट जायेंगी.

साल २०१० में मैं जिस तरह का बदलाव देखना चाहूंगा उसे यूटोपिया कह सकते हैं. लेकिन मन में बहुत बड़ा संशय है कि वह अगले साल तो क्या आनेवाले कई सालों में या इस देश में या पृथ्वी पर जीवन के रहते घटित हो पायेगा अथवा नहीं. दुर्योग से देश को चलाने के लिए जरूरी सारी ताक़त और धन राजनीति के हाथों में केन्द्रित हो गया है. ऐसे में अगर राजनीतिज्ञ समाज की जरूरतों को समझ पायें, नेतागण अपने नागरिक होने के कर्तव्यों को निभा पायें...तो संभवतः वे पिछड़े तबकों और जरूरतमंदों का लिहाज करेंगे और उन्हें सौंपी गयी ताक़त के जरिये नौकरशाहों को मजबूर करेंगे कि विकास का पैसा विकास के लिए ही इस्तेमाल हो.

हिन्दी साहित्य से मुझे सबसे बड़ी उम्मीद यह है कि वह हकीक़त को समझेगा और परम्पराओं में ढोई जाती रही नैतिकताओं और थोथे आदर्शों से बाहर निकलेगा. हिन्दी कविता में दुर्भाग्य से उन विषयों पर नहीं लिखा जा रहा जो हमारे रोज़मर्रा के जीवन और रिश्तों को प्रभावित करते हैं. आधुनिक जीवन की त्रासदियों को व्यक्त कर पाने वाले औजार वहां से नदारद दिखते हैं. आनेवाले वर्ष में अगर ऐसा हो पाए तो हिन्दी कविता विश्वमंच पर अपनी उपस्थिति जरूर दर्ज़ करेगी और कम से कम वह अपने ही समाज में अलोकप्रिय नहीं रहेगी.


सिद्धेश्वर सिंह (कवि, समीक्षक, अनुवादक, ब्लॉगर): कैलेन्डर बदलने से उम्मीदें नहीं बदलतीं. बड़ी उम्मीदें बड़ी जगह, समय के बड़े हिस्से, बड़ी और लगातार कोशिशों तथा बड़े विचार से ही पूरी होती हैं. यह समय छोटी चीजों का है. हमारे गिर्द 'लघु-लघु लोल लहरें' उठती हैं और उनकी फेनिल आभा हमें समन्दर में गहरे उतरने से रोकती है, बहकाती है, बरजती है. फिर भी साहित्य की दुनिया में हाथ-पाँव मारते हुए यह यकीन कायम है कि शब्द में दम है और उम्मीद पर जहाँ कायम है.

हम सब जिस दुनिया और भूगोल के जिस हिस्से में रह रहे हैं वहाँ रोजमर्रा की परेशानियों का रोजनामचा नई-नई इंदराजों से भरता रहता है. इस समय खाने-पीने की चीजों के दाम जिस तरीके से बढ़ रहे हैं उससे हर स्तर के इंसान की रचनात्मकता/उत्पादकता या उसके आस्वादन/उपभोग का दायरा संकुचित, शिथिल व विकृत हुआ है. इसका असर कार्यक्षमता, कार्यप्रणाली और क्रियात्मकता पर भी पड़ा है.

छोटे-छोटे कस्बों में लगने वाले पुस्तक मेलों से उम्मीद बढ़ी है क्योंकि इनसे अच्छॆ साहित्य के वितरण का प्रक्षेत्र बढ़ा है फिर भी साहित्य सृजन, पुस्तक प्रकाशन और सही पाठक के बीच के पुल को सुगम, चौड़ा और सीधा बनाने की सख्त जरूरत है. नए रचनाकारों के समक्ष पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होने का संकट अवश्य कम हुआ है क्योंकि खूब पत्रिकायें निकल रही हैं. हिन्दी ब्लॉग की भी एक बनती हुई दुनिया है जो साहित्य के लिए बहुत ही संभावनाशील माध्यम है. इसे साहित्यकारों को बहुत गंभीरता से लेने की जरूरत है.

गौर करने लायक बात यह है कि साहित्य की दुनिया में प्रलोभन और प्रपंच बढ़ा ही है. बड़े-बड़े नामों की कोई कमी नहीं है. उनके बड़े-बड़े कारनामे भी आत्मकथ्यों और संस्मरणों के माध्यम से खूब आ रहे हैं किन्तु हमारे पास बड़ी रचनाओं की कमी है. वैसे इस समय हिन्दी की नई पीढ़ी की रचनात्मकता उफान पर है. आइए दुआ करें कि उसे सही रहगुजर, सही रहबर और सही काफिला मिले.

बची हुई है उम्मीद की डोर. याद है न? हर रात के बाद भोर.

6 comments:

अमिताभ श्रीवास्तव said...

in chijo ko KABAADKHANAA to nahi kahaa jaa saktaa..., behatreen

गौतम राजऋषि said...

निलय जी के शब्दों ने झकझोर दिया है जैसे पूरे वजूद को...एक सकते की सी हालत में हूँ।

Ashok Kumar pandey said...

'अकेला घर हुसैन का' के कवि से बड़े दिनों पर मुलाकात हुई…

निलय भाई बिल्कुल नाइत्तेफाकी नहीं आपसे…फिर भी हम जैसे लोग अब भी आपकी कविताओं के इंतज़ार में हैं। जल्दी ही आपकी कवितायें अपने ब्लाग पर लगाउंगा।

Ashok Pande said...

ये लोग साहित्य के पाँव में मोजे की तरह महक रहे हैं और उनके बारे में सोचने पर इनकी ये गंध ज्यादा परेशान करती है. यही लोग हैं जो जनता और साहित्य के बीच बैठकर एक दूरी पैदा कर रहे हैं.

... सही बात है!

बेबाकी से बात रखने की दाद देता हूं निलय जी को.

अजेय said...

निलय जी,यदि मै भूल नहीं रहा हूँ तो आप की एक कविता "क्ईली " प्रमोद रंजन से सुनी थी. जब वह हिमाचल में रहता था. अधिक कहने की ज़रूरत नही है. मोह भंग से ऊर्जा ग्रहण कर आगे बढ़ें . बहुत से अच्छे लोग मिलेंगे. मैं ने ज़िन्दगी मैं ऐसे कितने ही क़ुनबे खोएं हैं. यह सफर जारी रहे. पाना खोना तो चलता रहता है. कविता से मोह भंग न हो बस.

सब से खतर्नाक है सपनों खत्म हो जाना .

अजेय said...

# अशोक पाण्डे, आप ने अच्छी उपमा दी. लेकिन ये लोग इस से भी अच्छा डिज़र्व करते हैं. मैं तो कई जगह दे चुका हूँ.