Tuesday, January 12, 2010

ज़ख्मों को अब गिनूंगा मैं बिस्तर पे लेट के



उर्दू के बड़े शायर शिकेब जलाली की एक ग़ज़ल से कुछ अशआर पेश हैं:

जाती है धूप उजले परों को समेट के
ज़ख्मों को अब गिनूंगा मैं बिस्तर पे लेट के

मैं हाथ की लकीरें मिटाने पे हूँ बज़िद
गो जानता हूँ नक्श नहीं ये सिलेट के

दुनिया को कुछ ख़बर नहीं क्या हादसा हुआ
फेंका था उसने संग गुलों में लपेट के

फव्वारे की तरह न उगल दे हरेक बात
कम-कम वो बोलते हैं जो गहरे हैं पेट के

8 comments:

अमिताभ मीत said...

ग़ज़ल के किये आभार अशोक भाई ...

Keeop the good qwork going.

सुशील छौक्कर said...

जाती है धूप उजले परों को समेट के
ज़ख्मों को अब गिनूंगा मैं बिस्तर पे लेट के

वाह क्या लिखा है।

vandana gupta said...

waah.........itni behtreen gazal padhwane ka shukriya.

Ashok Kumar pandey said...

वाह
अद्भुत शेर!!!

मनोज कुमार said...

बहुत बहुत बधाई...

सागर said...

फव्वारे की तरह न उगल दे हरेक बात
कम-कम वो बोलते हैं जो गहरे हैं पेट के

सत्य वचन... यथार्थ...

Anil Pusadkar said...

आभार,अशोक भैया।

मुनीश ( munish ) said...

khoob !