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उर्दू के मशहूर आलोचक जनाब ज़िया जालन्धरी के शब्दों में अतहर नफ़ीस के यहां शोर कम और शऊर ज़्यादा पाया जाता है. आज से वर्षों पहले मैंने अपने डायरी में अतहर का एक शेर लिखा था:
धूप सर पर हो फिर बेसायबां ज़िन्दा रहो
अय मिरे अतहर नफ़ीस अय जाने-जां ज़िन्दा रहो
फिर किसी और डायरी में उसका ये शेर दर्ज़ हुआ:
जिसे खोकर बहुत मग़मूम हूं मैं
सुना है उसका ग़म मुझसे सिवा है
निखालिस ग़ज़ल के शायर थे अतहर नफ़ीस. उनकी शैली में जहां एक तरफ़ बाबा मीर का खस्ता लहज़ा है वहीं आधुनिक समय की रेश-रेश तल्खि़यां भी. अहसास-ए-जमाल और जमाल-ए-अहसास के इस शायर को ज़्यादा लम्बी उम्र नसीब न हुई. अतहर नफ़ीस मात्र अड़तालीस साल के थे जब २१ नवम्बर १९८० को उनका इन्तकाल हुआ. तब तक उनका एक ही संग्रह कलाम नाम से छपा था. बाद में उनकी ग़ज़लों का एक और संग्रह हम सूरतगर ख़्वाबों के की शक्ल में शाया हुआ. यारों के यार के तौर पर जाने जाने वाले अतहर नफ़ीस की मौत पर उसके बहुत से दोस्तों को एक शायर के कम एक दोस्त के जाने का बड़ा सदमा था.
आज उनकी दो ग़ज़लें पेश कर रहा हूं.
एक
सुकूत-ए-शब से इक नग़मा सुना है
वही कानों में अब तक गूंजता है
ग़नीमत है कि अपने ग़म-ज़दों को
वो हुस्न-ए-ख़ुद-निगर पहचानता है
जिसे खोकर बहुत मग़मूम हूं मैं
सुना है उसका ग़म मुझसे सिवा है
कुछ ऐए ग़म भी हैं जिनसे अभी तक
दिल-ए-ग़म-आशना, ना-आशना है
बहुत छोटे हैं मुझसे मेरे दुश्मन
जो मेरा दोस्त है मुझसे बड़ा है
मुझे हर आन कुछ बनना पड़ेगा
मेरी हर सांस मेरी इब्तिदा है
(सुकूत-ए-शब: रात की ख़ामोशी, ग़म-ज़दों को:दुखित लोगों को, हुस्न-ए-ख़ुद-निगर: स्वार्थी सौन्दर्य, मग़मूम: दुखी, इब्तिदा: शुरुआत)
दो
लम्हों के अजाब सह रहा हूं
मैं अपने वुजूद की सज़ा हूं
ज़ख़्मों के ग़ुलाब खिल रहे हैं
ख़ुश्बू के हुजूम में खड़ा हूं
इस दस्त-ए-तलब में इक मैं भी
सदियों की थकी हुई सदा हूं
शायद न रिहाई मिल सके अब
यादों का असीर हो गया हूं
ऐ मुझको फ़रेब देने वाले
मैं तुझ पर यक़ीन कर चुका हूं
मैं तेरे क़रीब आते-आते
कुछ और भी दूर हो गया हूं
(अजाब: यातना, दश्त-ए-तलब: इच्छाओं का जंगल, असीर: क़ैदी)
6 comments:
Aha ! sundar.
मुझे हर आन कुछ बनना पड़ेगा
मेरी हर सांस मेरी इब्तिदा है
subhanallah.....
वाह
क्या अंदाज़े बयां है…वाह
wish i could understand and appreciate. not kidding !
मैं जो तलाश रहा हूं उर्दू पोएट्री में उसके दीदार नहीं हुए, या मैं पकड़ नहीं पा रहा । ये वो सहर तो नहीं टाइप का कुछ ।
ik hi shabd...khoobsurat..
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