Wednesday, February 17, 2010

संगीत के बहाने कुछ बातें



घिसीपिटी किन्तु जगजाहिर बात है कि सतत वैश्वीकरण के इस समय में हमारा देश संक्रमण के अद्भुत दौर से गुज़र रहा है. संगीत का विराट क्षेत्र भी इस से अछूता नहीं रहा है. आप किसी दूरस्थ क़स्बे में किसी परिचित को मोबाइल पर फ़ोन कीजिए तो संभव है कि फ़ोन पर आपको बिसराया हुआ कोई फ़िल्मी गाना सुनने को मिल जाए, या गायत्री मंत्र का अविकल पाठ. हो सकता है किसी ने लोकसंगीत को अपनी रिंगटोन बना रखा हो या किसी प्रसिद्ध अंग्रेज़ी पॉप गाने को. माता के जगराते या लाफ़्टर चैलेन्ज के चुटीले गीत भी सुनने को मिल सकते हैं.

संगीत को सुनने और सुनाने की उत्कंठा इधर दो-तीन सालों में जिस बड़े पैमाने पर जाहिर हुई है, उसे तमाम चीज़ों से पिट चुकी हमारी व्यवस्था से उकताए लोगों की भावाभिव्यक्ति की इच्छा के तौर पर देखा जा सकता है. ग्रामोफ़ोन से टू-इन-वन और उसके बाद क्रमशः सीडी प्लेयर, मोबाइल फ़ोन आईपॉड और पॉडकास्ट जैसे मशीन-माध्यमों से गुज़रते हुए संगीत ने न जाने कितने दौर देख लिए हैं लेकिन इस बात से कोई इनकार नहीं कर सकता कि वर्तमान समय अब तक का सबसे अनूठा संगीतमय काल है.

अभी कुछ ही साल पहले तक गीत को पसन्द करने का पहला पैमाना फ़कत उसके उसके बोल हुआ करते थे. बोल समझ में आ गए तो ही गाना सुना जाता था. आम परिवारों में पाश्चात्य, विशेषतः अंग्रेज़ी गीतों से परहेज़ करने का यही मुख्य कारण हुआ करता था. बहुत मुश्किल बोल वाली ग़ज़लें और क़व्वालियां इत्यादि भी इसी श्रेणी में रखी जाती थीं. पक्के सुरों वाले शास्त्रीय रागों को केवल अभिजात्य वर्ग के संग्रह का हिस्सा माना जाता था. बहुसंख्य लोगों को तो ऐसे किसी संगीत के अस्तित्व तक का बोध नहीं था. सो हम उत्तर भारतीयों के पास पसन्दीदा संगीत के नाम पर ले दे कर मोहम्मद रफ़ी, मंगेशकर बहनें, किशोर कुमार और मुकेश बचते थे.

१९८० के दशक को मैं इस लिहाज़ से बहुत क्रान्तिकारी दशक मानता हूं. बेग़म अख़्तर और मेहदी हसन जैसे मंजे हुए कलाकारों की ग़ज़लगायकी से बहुत ही दूर और दोयम दर्ज़े का संगीत रचने वाले पंकज उधास और अनूप जलोटा सरीखे गायकों ने ग़ैरफ़िल्मी ग़ज़लों-भजनों आदि को जनता के सम्मुख रखा और वे हाथोंहाथ लिए गए. "घुंघरू टूट गए" और "सागर से सुराही टकराए" जैसी रचनाओं ने भविष्य के संगीत की कच्ची रूपरेखा बना दी थी. जगजीत सिंह का पॉपुलर संस्करण इसी की परिणति के रूप में देखा जाना चाहिए. हमें इसी दौर में उभरी "डिस्को दीवाने" वाली नाज़िया हसन को भी नहीं भूलना चाहिये.

'रोजा' के यादगार संगीत से फ़िल्मी संसार में प्रवेश लेने वाले ए. आर. रहमान का योगदान इस मायने में बहुत बड़ा है कि उन्होंने हमें शब्दों से परे जाकर बीट्स और संगीत का आनन्द लेना सीखने की तरफ़ प्रेरित किया. दुनिया भर के संगीत को पसन्द और अपने गीतों में इस्तेमाल करने वाले ए. आर. रहमान की सफलता ने भारत में पश्चिम की तर्ज़ पर म्यूज़िक-बैंड्स की स्थापना का रास्ता आसान बनाया. 'इन्डियन ओशन', जैसे ग्रुप्स इसी दौर में सामने आये और रातोंरात युवा पीढ़ी के पसन्दीदा हो गए. आज लगातार नए-नए बैण्ड अपना संगीत लॉंन्च कर रहे हैं. ज़रा इन के नामों की बानगी तो देखिये - 'मिली भगत'. 'जलेबी', 'चटनी रीमिक्स'. 'कारटेल', 'साइनाइड'. पुराने फ़िल्मी गानों को रीमिक्स बना कर पैसा बनाने का खेल भी चलन में आया और जल्दी ही अपने अवश्यंभावी अन्त तक पहुंचा.

इन्टरनैट और अंतर्राष्ट्रीयता के लगातार बढ़ते जाने के बाद युवा पीढ़ी के एक बड़े हिस्से ने अपना ध्यान विश्व संगीत पर दिया. भारत में 'एनिग्मा' या 'जिप्सी किंग्ज़' जैसे ग्रुप के अल्बमों की रेकॉर्ड बिक्री बताती है कि बहुत जल्द ही परिपक्व हो जाने वाली युवा पीढ़ी अब किसी भाषा या बोल तक ही अपने प्रिय संगीत को सीमित नहीं रख रही है - उसे ट्यूनीशियाई धुनों से लेकर स्पेनी बोलेरोज़ और चीनी संगीत से लेकर ग्रेगोरियन चान्ट्स तक से कोई गुरेज़ नहीं. उसे ऋग्वेद की ऋचाओं का फ़्यूज़न में ढला होना भी अच्छा लगता है और नुसरत फ़तेह अली ख़ान की तेज़ क़व्वालियां को सुनना भी.

नए भारत के युवाओं के पसन्दीदा संगीत की रेन्ज देखनी हो उनकी कारों के डैशबोर्ड खोलकर देखिये - वहां वक़्त और मूड के हिसाब से किशोर कुमार से लेकर तलत मेहमूद; हूलियो इग्लेसियास से लेकर बैक स्ट्रीट बॉयज़ और नुसरत से लेकर पंडित जसराज तक मिल सकते हैं. मोत्ज़ार्ट और बीथोवेन सरीखे पाश्चात्य उस्तादों को भी वहां पाया जा सकता है. इसी संसार के थोड़ा और अंतरंग हिस्से में घुसना हो तो हॉस्टलों में रहने वाले किशोर-किशोरियों के संग्रह इस रास्ते पर ले जा सकते हैं. कैलाश खेर और रब्बी शेरगिल के माध्यम से सूफ़ी संगीत सुन रही इस पीढ़ी को कैचप सॉंग भी अच्छा लगता है तो लॉस देल रियो भी. जगजीत सिंह की बेहद हल्की ग़ज़लों को सुन कर इमोशनल हो जाने वाले ये युवा पार्टी वगैरह में 'हट जा ताऊ पाछे नै' पर भी थिरक सकते हैं और 'ब्राज़ील' पर भी. 'ब्राज़ील' गाना तो नगीना, खरहीखांकर, टांडा और गागरीगोल जैसे बेनामी क़स्बों-गांवों की बारातों में लगातार बजता रहा है. ख़ैर, दोस्तों को ढेर सारा संगीत कॉपी कर उपहार में दिये जाने का बढ़ता चलन भी भविष्य के प्रति आश्वस्त करने वाला है.

ब्लॉगिंग एक अलग और नई तरह का माध्यम है जिसमें संगीत सुनाए जाने के बीसियों यन्त्र मौजूद हैं. आप पुराने से पुराना और नए से नया संगीत यहां खोज-सुन सकते हैं. एक साल से ख़ुद दो संगीतकेन्द्रित ब्लॉगों का संचालन करते हुए मुझे एक से बढ़कर एक अविस्मरणीय अनुभव हुए हैं. किसी संगीत को पॉडकास्ट कर चुकने के बाद ख़ासतौर पर युवा श्रोता जिस तरह रियेक्ट करते हैं और छोटी सी ग़लती की तरफ़ ध्यान दिलाते हैं, वह अलग तरह से उत्साह पैदा करने वाला होता है. यह ब्लॉग पर होने वाला संवाद था जिसके कारण मुझे कैरिबियाई द्वीपों में रह रही गिरमिटियों की संततियों द्वारा बचाए भोजपुरी गीत सुनने को मिल गए और एक बड़े हिन्दी कवि से अफ़ग़ानिस्तान में पटियाला घराने का परचम फैलाने वाले मोहम्मद हुसैन सराहंग जैसे दिग्गज संगीतकार से परिचित होने का मौका मिला. ये तो कुछ उदाहरण भर हैं.

यह दीगर है कि संगीत की अजस्र धारा के महात्म्य को रेखांकित करने की विशेष आवश्यकता नहीं लगती. हमारे अपने देश की संगीत परम्परा इस क़दर समृद्ध है पर बाज़ार के लिए परम्पराओं की कोई कीमत नहीं होती. लेकिन इस के बावजूद आप पाएंगे कि शास्त्रीय संगीत की बिक्री में भी रेकॉर्ड बढ़ोत्तरी हुई है. यही हाल के. एल. सहगल और तलत मेहमूद के कलेक्टर्स पैकेजेज़ पर लागू की जा सकती है. यानी जो बच्चे दस साल पहले जगजीत सिंह को सुन रहे थे, वे अब मेहदी हसन की राह पर हैं; जो मैडोना को पसन्द करते थे वे अब खोज खोज कर पॉल रॉब्सन सरीखे कालजयी गायकों को सुन रहे हैं. आप यक़ीन करें न करें मैं तो सोलह साल के एक बच्चे को जानता हूं जो पंडित कुमार गन्धर्व के निर्गुण भजनों का दीवाना होने के साथ साथ 'कजरारे कजरारे तोरे नैना' की बुराई में एक शब्द भी नहीं सुन सकता.

(यह लेख कुछ समय पूर्व नवभारत टाइम्स के लिये लिखा गया था.)

1 comment:

कविता रावत said...

Sangeet ke bahane aapne bahut achhi-achhi baaten likhi bahut-bahut badhai. Bahut late pahunchi lekin sahi jagah mili.. Blog bahut sundar laga..
Bahut shubhkamnayen...