१९९५ में राधाकृष्ण प्रकाशन से प्रकाशित कविता संकलन 'कहीं दूर से सुन रहा हूं' में शमशेर की एक कविता अज्ञेय को समर्पित है। लीजिये पढ़िये…
अज्ञेय के जन्मदिवस पर समर्पित
सादर
अज्ञेय - एय
तुम बड़े वो हो
[क्या कहा मैने? ]
तुम बड़े कवि हो
[बड़े ध्येय! ]
आधुनिक परिवेश में तुम
बूर्ज़्वाजी का करुणतम व्यंग्य
बहुत प्यारा सा
काव्य दक्षिण है तुम्हारे रूपकार
कथा वाम [ वामा ]
कथा जो है अकथनीय
गेय/ जो अज्ञेय
[ खूब! ]
ढल रहा है स्वर्ण निशि के पात्र में
मौन कवि का लोक है यह
प्रलय होती है यहां क्षण मात्र में
मूकतम आलोक ही है आत्मा को प्रेय
[ हां ]
* * *
हाथी दांत के मीनार
पर चांद का घोंसला
1958
7 comments:
बेहतरीन .... बेहतरीन अशोक भाई ............ हमेशा की तरह
बेहद खूबसूरत प्रस्तुति ! आभार ।
अज्ञेय.. बहुत अच्छी प्रस्तुति..
छात्र जीवन में अज्ञेय और मुक्तिबोध मेरे प्रिय कवि रहे हैं.....वक़्त की मार देखिए कि अग्येय के तमाम कोमल फूल झर गए, मुक्तिबोध का गाँठ दार् ठूँठ बचा रह गया स्मृतियों के बियाबान जंगल् में.... मुझे आँसू आ रहे हैं... एक महाकवि समझते समझते दूसरे को क्यों भूल गया मैं?
कवि, मैं ने भी फूल को प्यार किया था. लेकिन जब वह झरता है न, तब दुख होता है. उस का झर जाना मुझे स्वीकार नहीं. ...श्रद्धाँजलि !
बेहतरीन अशोक भाई...
बहुत ही सुंदर प्रस्तुति अशोक जी . .बधाई स्वीकारें
मुझे तो यह कविता अज्ञेय पर व्यंग्य लगी थी
मै मूरक अज्ञानी इसी शोक में अब सबसे सन्यास ले पढ़ने पर भिड़ रहा हूं
Post a Comment