कल आपने मनमोहन की दो कविताएं पढ़ी थीं. उसी क्रम में आज प्रस्तुत है उनकी एक और ज़बरदस्त कविता.
हाय सरदार पटेल
सरदार पटेल होते तो ये सब न होता
कश्मीर की समस्या का तो सवाल ही नहीं था
ये आतंकवाद वातंकवाद कुछ न होता
अब तक मिसाइल दाग़ चुके होते
साले सबके सब हरामज़ादे एक ही बार में ध्वस्त हो जाते
सरदार पटेल होते तो हमारे ही देश में
हमारा इस तरह अपमान होता!
ये साले हुसैन वुसैन
और ये सूडो सेकुलरिस्ट
और ये कम्युनिस्ट वमुनिस्ट
इतनी हाय तौबा मचाते!
हर कोई ऐरे गैरे साले नत्थू खैरे
हमारे सर पर चढ़कर नाचते!
आबादी इस क़दर बढ़ती!
मुठ्ठी भर पढ़ी लिखी शहरी औरतें
इस तरह बक-बक करतीं!
सच कहें, सरदार पटेल होते
तो हम दस बरस पहले प्रोफ़ेसर बन चुके होते!
12 comments:
करारा व्यंग्य है मनमोहन जी का
पर सरदार पटेल क्या प्रोफेसर भी बनाते थे !
"सच कहें, सरदार पटेल होते
तो हम दस बरस पहले प्रोफ़ेसर बन चुके होते!"
कविता का ये संदर्भ समझ में नहीं आया...
प्रीतीश भाई
मनमोहन जी स्वयं एक महाविद्यालय में पढ़ाते हैं. सम्भव है यह उन्होंने अपने किसी जुगाड़ू सहकर्मी के बारे में लिखा हो.
2003 या 2004 की बात है. दिल्ली में साहित्य अकादमी के सभागार में `अन्यथा` पत्रिका की ओर से एक रिकोर्डिंग के लिए मनमोहन की कविताओं पर मैनेजर पाण्डेय, मंगलेश डबराल और गंगाप्रसाद विमल बोले थे ओर मनमोहन ने कवितापाठ किया था. इस मौके पर सरदार पटेल वाली कविता को लेकर एक प्रकाशक खासे नाराज हो गए थे. मुझे यह कविता इसलिए भी दिलचस्प और बेहद मारक लगती है कि कवि इसमें उन बातों को ही रखता है जो अक्सर फासीवादी प्रचार के तहत कही जाती हैं लेकिन फिर भी वे इस तरह का प्रचार करने वालों पर ही करारी चोट करती है.
मजेदार कविता। अर्थ-संदर्भ स्वत: स्पष्ट है।
हाँ ये ठीक है कि पटेल ने प्रोफ़ेसर बनाने की फक्ट्री नहीं खोल रखी थी. अब यह कवि की विफलता है, कविता की या पाठक की कि इस कविता को इतना सपाट पढ़ लिया जाय. "सच कहें, सरदार पटेल होतेतो हम दस बरस पहले प्रोफ़ेसर बन चुके होते!" को मेटाफर के तौर पर पढ़ा जाना चाहिए. यही एक लाइन है जो बाकी कोमन सेन्स के तौर पर स्थापित पंक्तियों को कविता बना कर `करारा व्यंग्य`बना देती है. इसी से साफ़ है कि यह मध्य वर्ग का या शासक वर्ग का कोरा पिछड़ापन नहीं है बल्कि उसकी अनुदारता से उसे मिलने वाला लाभ है जिसकी वजह से वह जनतांत्रिक मूल्यों की मुखालफत के लिए पटेल को सर पर उठाए घूमता है. यही चीज है जिसे कोंग्रेस भी और संघ भी अपने फायदे के लिए मोबलाइज करते रहे हैं. यूँ तो यह कविता सीधे पटेल के बारे में भी नहीं ही है शायद, बल्कि हमारे अपने ही बारे में हैं.
...और पहली टिप्पणी में जिस नाराज प्रकाशक का जिक्र किया है मैंने, वो सुदर्शन नारंग थे.
avsarvadiyon par karaa vyang hai manmohan ki ye kavita bahut khoob manmohan ji
@ Dhiresh ji,
yah pathak ki vifalata hai, kyunki sapat padhane ka kam na kavi karata hai na kavita. kavi nahi ho paye pathak hi rahe isliye samajha nahi aya ki kavita keval isi pankti me hai. kavita mujhe achchi lagi.
@ Ashok ji,
Sir, yah pankti
"सच कहें, सरदार पटेल होते
तो हम दस बरस पहले प्रोफ़ेसर बन चुके होते!"
muzhe lagata hai Aarakshan vyavastha (reservation) par hai jisme Ek Sawarn ko promotion nahi mil pata,nokari nahi milati. Usaki Asha hai ki S.patel hote to Aarakshan vyavastha nahi hoti. Rajasthan Isi AAg me sulag raha hai Isliye mainne cheda. Isliye ye lines kisi tarah se alag nahi dikhati hai.
'दस वर्ष पहले प्रोफेसर बनने' को उसी प्रकार लिया जाये जैसे कि 'देश अब तक विकसित राष्ट्रों कि श्रेणी में होता' | यह भी हो सकता है कि कई कारक मनमोहन जी को उनकी प्रतिभा का मूल्य दिलाने से वंचित कर रहे हों, यह उस पर भी करारा व्यंग हो सकता है |
पिछली पोस्ट की टिप्पणी अक्सर पाता नहीं चलती. पर मैं इसे आरक्षण विरोधी कविता कहे जाने पर सिर्फ अचरज ही कर सकता हूँ. ...और रही मनमोहन के प्रोफ़ेसर बनने की बात तो एक कार्यकर्म में इस कविता पर बोलते हुए मंगलेश डबराल ने कहा था कि पटेल होते तो भी मनमोहन को प्रोफ़ेसर नहीं बना सकते थे. अपने करीअर को लेकर बेपरवाह कवि के करिअर से इस कविता का रिश्ता जोड़ने की कल्पना करने वालों पर भी बलि-बलि ही जाया जां सकता है.
meri tippani fir se padha dekhiye kavita ko aarakshan virodhi nahi kaha hai. sardar patel se fasivadi apeksha ke liye kaha hai. kuch is tarah...
"सच कहें, सरदार पटेल होते
to kya desh me aarakshan rahata!
हम तो दस बरस पहले प्रोफ़ेसर बन चुके होते!"
hay! ham ko to bajar me bhi nahi mili !!!
जिस पंक्ति पर इतनी बहस हो गयी लगती है मैं भी कुछ कहने की हिमाकत कर रहा हूँ. दरअसल कविता मैं सरदार पटेल को सभी समस्यायों के समाधान के रूप में स्वयं मनमोहन जी प्रस्तुत नही कर रहे.वे उन सभी लोगों पर चुटकी ले रहे हैं जो ऐसा समझते हैं. इसमें फासीवादी सोच के लोग तो हैं ही .वे आम जन भी हैं जो हर समस्या का समाधान एक झटके में चाहते हैं. जो आज के नेताओं से त्रस्त हैं.जो विलम्ब से होने वाले फैसलों से नाराज़ हैं.जो समझते हैं कि उनकी प्रतिभा ठीक से पहचानी नहीं गयी.जो प्रोफ़ेसर हो सकते थे मगर विलम्ब हो हो रहा है.इस तरह की बात उन्होंने अपने साथियों से ज़रूर सुनी होगी या प्रकारांतर से महसूस की होगी.मुझे ऐसा लगता है.
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